ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान!
ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान ‘जिन्दगी कैसी है पहेली, कभी तो हंसाये कभी ये रुलाये, कभी देखो मन नहीं चाहे पीछे — पीछे सपनों के भागे, एक दिन सपनो का राही चला जाए… सपनों के आगे कहां… जीवन के इस फलसफे की अभिव्यक्ति देने वाले मन्ना डे संगीत की दुनिया को अलविदा कह गये। कलकत्ता महानगर के उत्तरी इलाके का हिस्सा जो एक ओर चितरंजन एवन्यु और दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द स्ट्रीट से घिरा है। हेदुआ के नाम से जाना जाता है जहां आज भी नूतन के साथ पुरातन के दर्शन होते हैं। हेदुआ के इस सड़क का नाम शिमला स्ट्रीट है — शिमला स्ट्रीट की एक गली मदन बोसलेन की गलियों की पेचीदा सी गलिया चंद दरवाजो पर पैबंद भरे टाटो के पर्दे और धुंधलाई हुई शाम के बेनाम अँधेरी सी गली से इस बेनूर से शास्त्रीय संगीत के चिरागों की शुरुआत होती है एक भारतीय दर्शन का पन्ना खुलता है और प्रबोध चंद डे (मन्ना डे) का पता मिलता है। 1 मई 1920 को श्री पूर्ण चन्द्र डे व महामाया डे के तीसरे पुत्र प्रबोध चन्द्र डे के रूप में जन्म लिया। बाल्यकाल में प्रबोध को लोग प्यार से मन्ना कह के बुलाते थे। मन्ना दा के घर का माहौल सम्पूर्ण रूप से संगीतमय था। उनके चाचा श्री के सी डे स्वंय बड़े संगीतकार थे इसके साथ ही उस घर में बड़े उस्तादों का आम दरफत था जिसका गहरा असर मन्ना के बाल मन पर पड़ा उसका असर बहुत ही गहरा था। हेदुआ स्ट्रीट के एक किनारे खुबसूरत झील थी लार्ड कार्व्लिस नाम से और दूसरी ओर स्काटेज क्रिश्चियन स्कूल उसी में इसकी शिक्षा दीक्षा हुई। मन्ना दा अपने कालेज के दिनों में अपने दोस्तों के बीच गाते थे। इसी दरमिया इंटर कालेज संगीत प्रतियोगिता हुई उसमें मन्ना दा ने तीन वर्ष तक सर्वश्रेष्ठ गायकी का खिताब अपने नाम कर लिया। यही संगीत प्रतियोगिता मन्ना डे के जीवन का पहला टर्निग प्वाइंट है। इसके बाद ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी अपने चाचा संगीतकार श्री के सी डे के चरणों में बैठकर अपनी संगीत साधना की शुरुआत की और अपने संगीत को दिशा देने लगे। मन्ना डे के बड़े भाई प्रणव चन्द्र डे तब तक संगीतकार के रूप में स्थापित हो चुके थे। दूसरे बड़े भाई प्रकाश चन्द्र डे डाक्टर बन चुके थे और मन्ना के पिता अपने तीसरे बेटे को वकील बनाना चाहते थे। पर नियति के विधान ने तो तय कर दिया था कि प्रबोध चन्द्र डे को मन्ना डे बनना है। ताल और लय, तान और पलटे, मुरकी और गमक का ज्ञान उनके प्रथम गुरु के सी डे से मिला। इसके साथ ही विकसित हुआ गीत के शब्दों के अर्थ और भाव को मुखरित करने की क्षमता इसके साथ ही मिला अपने चाचा जी की आवाज का ओज और तेजस्विता, स्वर में विविधता सुरों का विस्तार उन पर टिकने की क्षमता ये सम्पूर्णता मन्ना दा ने अपने साधना से प्राप्त किया। नोट्स लिखने का ज्ञान मन्ना ने अपने बड़े भाई प्रणय दा से प्राप्त किया | इसके साथ ही अपने चाचा के सी डे के साथ संगीत सहायक के रूप में कार्य करते हुए युवक मन्ना के जीवन में एक नई करवट ली 1942 में मन्ना दा बम्बई आ गये और यहाँ के सी दास और एस डी बर्मन को भी असिस्ट करने लगे। अब वो स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशक बनना चाहते थे उन्होंने बहुत सारी फिल्मों में अपना संगीत भी दिया। परिस्थितियों की प्रतिकूलता अक्सर आदमी के इरादों को तोड़ती है युवक मन्ना भी ऐसी मन: स्थिति से गुजर रहे थे। “हँसने की चाह ने मुझको इतना रुलाया है” हताशा और मायूसी से जूझते हुए मन्ना ने यह सोचा होगा कि वो समय भी आयेगा जब सम्पूर्ण दुनिया में मेरे गाये गीत लोग गुनगुनाएंगे। उन्होंने अपना कार्य करते हुए शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अब्दुल रहमान व उस्ताद अमानत अली खान साहब से शात्रीय संगीत सिखने का कर्म जारी रखा। 1953 में मन्ना दा की जीवन में दो टर्निग प्वाइंट आता है वही से ये संगीत का सुर साधक अपनी संगीत की यात्रा पर बे रोक टोक आगे की ओर अग्रसर होता है। प्रथम प्वाइंट इनका सुलोचना कुमारन से विवाह करना और दूसरा वो संगीत का इतिहास बनाने वाला तारीख जब वो राजकपूर जी के लिए अपनी आवाज देते हैं वही से मन्ना दा की एक नई संगीत यात्रा की शुरुआत होती है। राजकपूर की फिल्म “बुट्पालिश” के गीत से जहां मन्ना दा से दुनिया की तरक्की के लिए नई सुबह का आव्हान करते है “रात गयी फिर दिन आता है इसी तरह आते — जाते ही ये सारा जीवन जाता है ये रात गयी वो नई सुबह आई” से मानव जीवन में आशावाद की एक नई किरण को जन्म देता है वही पर प्यार का इकरार भी करना जानता है “आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम से मिले वीराने में भी आ जायेगी बहार” “ प्यार हुआ इकरार हुआ फिर प्यार से क्युं डरता है दिल” गाकर नौजवानों को प्यार की परिभाषा पढाते हुए आगे निकल आते है। शंकर जयकिशन ने ख्याति लब्ध पंडित भीमसेन जोशी के साथ इनकी संगत भी कराई। जो प्रसिद्धि मन्ना दा को बंगला फिल्म जगत से मिला वो हिन्दी फिल्म जगत से कम था या अधिक यह कहना बहुत कठिन है। एक सवाल खड़ा होता है कि मन्ना ने बंगला फिल्म जगत को छोड़कर मुम्बई का रुख क्यों किया। मुंबई आने के बाद ही मन्ना का हर स्वरूप का एक्सपोजर हुआ मन्ना का अगला दौर एक अनोखा दौर था जहां पर मन्ना ने भारतीय भाषाओं में गीत गाये उर्दू में गजल, उडिया, तेलगु, मलयालम, कन्नड़, भोजपुरी और बंगला भाषाओं में इस विविधता के कारण मन्ना दा को एक न्यु फ्रेम मिला। एक और सवाल कि पाशर्व गायकी के साथ ही मन्ना दा ने गैर फ़िल्मी गीतों को गाया है। जिसके अंदाज बड़े निराले हैं “सुनसान जमुना का किनारा प्यार का अंतिम सहारा चाँदनी का कफन ओढ़े सो रहा किस्मत का मारा किस्से पुछू मैं भला अब देखा कही मुमताज को मेरी भी एक मुमताज थी”। दूसरी तरफ अपने गैर फिल्मों से नारी संवेदनाओं का एक ऐसा दर्शन दिया “सजनी —– नथुनी से टूटा मोती रे धूप की अंगिया अंग में लागे कैसे छुपाये लाज अभागी… मनवा कहे जाए भोर कभी ना होती रे …|
मन्ना डे ऐसे फनकार थे जो कामेडियन महमूद के लिए भी गाते थे और हीरो अशोक कुमार के लिए भी चाहे वो शास्त्रीय संगीत हो या किशोर कुमार के साथ फिल्म “पड़ोसन” की जुगल बंदी चाहे वो एस डी बर्मन, रोशन या शंकर जयकिशन सभी ने उनके हुनर को सलाम किया। मन्ना साहब ने जिन किरदारों के लिए गीत गाये वो किरदार इतिहास के पन्नों पर दस्तावेज बन गये। फिल्म “उपकार” में प्राण ने उसमें मलंग बाबा की सकारत्मक भूमिका की और मलंग बाबा एक गीत गाता है, “कसमे वादे प्यार वफा सब बाते हैं बातों का क्या … कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या”
इस गीत ने प्राण का पूरा किरदार ही बदल दिया और मलंग बाबा हिन्दी सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया। 1971 में मन्ना डे को पद्म श्री से सम्मानित किया गया 2005 में पदम् भूषण से नवाजा गया और इस सुर साधक को 2007 में दादा साहेब फाल्के एवार्ड से समानित किया गया। आज ये सुर साधक चिर निद्रा में विलीन हो गया यह कहते हुए गानेर खाताये शेशेर पाताये एई शेष कोथा लिखो एक दिन — आमी झिलाम तार पोरे कोनो खोज नेई।
इस सुर साधक को शत् शत् नमन्
सुनील दत्ता, स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक