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कहीं ज्यादा पीड़ादायक रही म्यांमार की कहानी
संजय राय
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भारत और उसके कई पड़ोसी देश इन दिनों चुनावी दौर से गुजर रहे हैं। पाकिस्तान में चुनाव हो गया है और वहां की सत्ता में नवाज शरीफ की वापसी हो चुकी है। भारत में अगले साल चुनाव होने हैं और भूटान में भी जल्द ही सत्ता परिवर्तन हुआ है। नेपाल चुनावी कसमसाहट के दौर से लोकतंत्र के चैराहे पर खड़ा है तो अफगानिस्तान अमेरिकी सेना की अगले साल वापसी के बाद के आशंकाग्रस्त माहौल में तालिबान की बढ़ी ताकत के बीच जम्हूरियत का ककहरा सीखने की कोशिश में है। लेकिन आज हमारी चर्चा का विषय ये सभी देश नहीं हैं।
भारत के उत्तर-पूर्व में बसा है म्यांमार। ब्रिटेन की औपनिवेशिक सत्ता ने भारत के साथ-साथ इस देश पर भी लंबे समय तक शासन किया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी के हमलों से पस्त अंग्रेजी सत्ता ने 1947 में भारत को और तकरीबन छह महीने बाद 4 जनवरी 1948 को म्यांमार को आजाद कर दिया। इसके बाद भारत ने तो जम्हूरियत का रास्ता चुना और आज बडे़ गर्व से हम कहते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा देश है, जहां जनता हर पांच साल में जम्हूरी तरीके से अपनी सरकार का गठन करती है। लेकिन म्यांमार की कहानी कहीं ज्यादा पीड़ादायक रही। यहां पर 1962 से 1990 तक सेना का शासन रहा और जनता की आवाज को बंदूक की बट से दबाया गया।
भारत की तरह म्यांमार में भी आजादी का एक जबरदस्त आंदोलन हुआ था। लेकिन इस आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने वाले एंटी फासिस्ट पीपल्स फ्रीडम लीग के प्रमुख नेता आंग सान की 19 जुलाई 1947 को हत्या कर दी गई। तब इस देश का नाम बर्मा था और भारत के साथ जनसम्पर्क बेहद अच्छा था। उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बर्मा में नौकरी-धंधे के लिये जाया करते थे। अगर कहें कि भारत के हर हिस्से के लोग बर्मा के साथ हर स्तर पर बेहद करीब से जुड़े थे तो यह अतिरेक नहीं होगा। जरा याद कीजिये पुराने दौर के उस गाने को- मेरे पिया गये रंगून, किया है वहां से टेलीफून। तुम्हारी याद सताती है, जिया में आग लगाती है। लेकिन आजादी के बाद दोनों देशों के बीच दूरी इस कदर बढ़ी कि आज की पीढ़ी को इस देश के बारे में बेहद कम जानकारी है। कितने लोग यह जानते हैं कि अंग्रेजों ने जब 1857 की लड़ाई में बहादुर शाह जफर और उनकी बेगम को देश-निकाला की सजा देने के बाद उन्हें बर्मा में रखा था। रंगून की मांडले जेल में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को कैद करके रखा गया था।
तकरीबन साढ़े पांच करोड़ की आबादी वाले इस देश की 90 फीसदी जनता बौद्ध धर्म को मानती है। चार फीसदी ईसाई और चार फीसदी मुसलमान आबादी है। बाकी तीन फीसदी अन्य धर्मों को मानने वाले लोग हैं। म्यांमार में अभी भी भारतीय मूल की दो फीसदी आबादी रहती है जो इस देश की नागरिक बन चुकी है। अंग्रेजों के समय भारत से गये बहुत लोग यहीं बस गये और उनकी पीढ़ियां यहां की मिट्टी में रच-बस गई हैं।
भारत में 16वीं लोकसभा का चुनाव पूरा होने के अगले साल यानि 2015 म्यांमार में चुनाव होंगे। यह चुनाव इस नजरिये से काफी अहम है कि जैसे-तैसे तमाम उतार-चढ़ाव के म्यांमार में जम्हूरियत के संघर्ष को 25 साल पूरे हो जायेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि म्यांमार की जम्हूरियत इस मुकाम तक काफी ठोकर खा-खाकर पहुंची है। लंबे समय तक सैनिक सत्ता ने यहां के लोकतंत्र को बुरी तरह से कुचला है। इतिहास गवाह है कि म्यांमार के जम्हूरी आंदोलन को आंग सान की पुत्री आंग सान सू की ने परवान चढ़ाया। वह लोकतात्रिक मूल्यों के लिये अपने देश की फौजी सत्ता से कई बार टकराईं और वर्षों जेल में कैद रहीं। 1990 में मिलिटरी जुन्टा की सरकार ने दुनिया भर की जम्हूरी ताकतों के दबाव में चुनाव कराया तो सू की की पार्टी को बहुमत मिला था, लेकिन जुन्टा ;सवोच्च सैन्य शासन तंत्रद्धने उन्हें सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया था। इस तरह एक जम्हूरी सरकार को सेना ने अपनी ताकत के सहारे कुचल डाला और खुद सरकार बन बैठी। पिछले साल वहां हुये उप-चुनाव में आंग सान सू की की पार्टी को भारी बहुमत मिला और वह वहां की संसद में नेता प्रतिपक्ष बनीं।
जम्हूरियत के बारे में अक्सर कहा जाता है कि तमाम खामियों और बुराइयों के बावजूद एक बद से बदतर जम्हूरी शासन भी किसी अच्छी तानाशाही व्यवस्था से बेहतर होता है। इसमें लोगों को एक तय समय सीमा के पुरानी सरकार को सत्ता से बेदखल करके अपने हित को ध्यान में रखते हुए नई सरकार चुनने की आजादी मिलती है। यह व्यवस्था देर सबेर हमें अपने सपनों को पूरा करने और खुद को शासन में शामिल करके नीतियों, नियमों, कानूनों और योजनाओं को लागू करने का मौका उपलब्ध कराती है। आंग सान सू की को दुनिया के तमाम देशों का समर्थन हासिल है और ऐसी उम्मीद की जा रही है कि संम्भवतः 2015 के चुनाव में उनकी पार्टी अकेले अपने बूते सत्ता में आये तो म्यांमार में लोकतंत्र की जड़ें और ज्यादा मजबूत होंगी।
किसी भी देश में जम्हूरियत की मजबूती का सबसे अहम पैमाना वहां की चुनाव प्रक्रिया में अवाम की भागीदारी होता है। म्यांमार में अगर इस पैमाने के सहारे जम्हूरियत को परखने की कोशिश करें तो साफ दिखेगा कि अभी भी वहां के रहनुमाओं को काफी मेहनत करनी है। वहां की सरजमीं में पैदा हुए, पले-बढ़े रोहिंग्या मुसलमानों के साथ बहुसंख्यक आबादी का दुश्मनी का भाव इस शांतिप्रिय देश की फिजा को पिछले कुछ सालों से खराब किये हुये है। बदअमनी के इस माहौल से भयभीत रोहिंग्या मुसलमान बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के जानलेवा हमलों का शिकार बन रहे हैं। दुख की बात यह है कि जम्हूरियत की प्रतीक बन चुकी आंग सान सू की भी इस विषय पर खुलकर बोल नहीं पा रही हैं। उनकी यह चुप्पी म्यांमार में लोकतंत्र के भविष्य पर सवाल खडे करती है। उनके सुनहरे लोकतांत्रिक संघर्ष को देखते हुये म्यांमार का बच्चा-बच्चा उम्मीद की नजर से उनकी ओर देखता है और दुनिया भर की जम्हूरियत समर्थक ताकतों को भी उनसे यही उम्मीद है।
देशों के इतिहास में कुछ घटनाएं मील का पत्थर बन जाती हैं। यह मील का पत्थर उस देश को अतीत की याद तो दिलाता ही है आगे का रास्ता भी दिखाता है। अगर म्यांमार में जम्हूरियत ने 25 साल का सफर तय करके एक मील का पत्थर बनाया है तो इसके साथ ही रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहा अत्याचार भी एक मील का पत्थर ही है। लेकिन यह पत्थर म्यांमार को उसके पतन के रास्ते पर ले जाने की भरपूर कूबत रखता है और इस हकीकत को वहां के रहनुमा अपनी जनता को जितना जल्द समझा सकें उतना ही अच्छा होगा।
भौगोलिक रूप से म्यांमार की सीमा भारत, चीन, लाओस, बांगलादेश और थाईलैंड से जुड़ती है। चीन और भारत के इस पड़ोसी देश में नये सिरे बह रही जम्हूरियत की बयार अमेरिका और यूरोप को पुरसुकून राहत महसूस करा रही है। चीन भी म्यांमार में अपनी रणनीतिक पैठ को मजबूत बना रहा है। भारत सरकार भी अपनी म्यांमार नीति को नये सिरे चमकाने की कोशिश में लगी हुई है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि हमें म्यांमार के साथ जिस गति से सम्बंधों को मजबूत बनाना चाहिए वह दूर-दूर तक नहीं दिख रही है।
कुछ महीने पहले आंग सान सू की भारत के दौरे पर आई हुई थीं। उनकी पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई है और वह आॅल इंडिया रेडियो में भी काम कर चुकी हैं। इसलिये भारत के साथ उनका विशेष स्वाभाविक लगाव है। लेकिन जिस गर्मजोशी के उनका स्वागत होना चाहिए था, वह सरकार के स्तर पर कहीं नहीं दिखा। भारत को म्यांमार के जम्हूरी जलसे में सक्रिय और सकारात्मक भूमिका अदा करने का अवसर हमेशा उपलब्ध रहा है, लेकिन भारत ने इसका भी उपयोग नहीं किया। बहरहाल, 2015 में दोनों देशों में नई सरकारें रहेंगी। उनसे उम्मीद की जा सकती है कि इतिहास को गौर से समझकर दोनों देश एक मजबूत इरादे के साथ भविष्य की नई इबारत लिखेंगे।