ब्लागरी

का हो अखिलेश, कुछ बदली उत्तर प्रदेश !

प्रिय अखिलेश जी,

 आप जानते ही हैं कि हमारे देश के लोग और खास कर उत्तर प्रदेश के लोग साक्षरता से ले कर रोजगार तक में फिसड्डी हैं। विकास की बात करना तो खैर जले पर नमक छिड़कना ही हो जाता है। यह विकास की ही मार है कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के लोगों को भिखारी शब्द से सुशोभित कर जाते हैं और फ़र्जी कागज़ फाडते-फाड्ते आप की ताजपोशी के लिए लाल कालीन बिछा जाते हैं। आप ने हालां कि तभी कह भी दिया था कि चुनाव परिणाम के बाद वह और भी बहुत कुछ फाडेंगे। और देखिए न कि हार स्वीकार करने के बाद वह देश की लोकसभा में भी दिखे नहीं हैं अभी तक। सुना है कि अपनी महिला मित्र के साथ एक परदेसी धरती पर वह दिखे। जहां उन की महिला मित्र के साथ फ़ोटो खींचने के चक्कर में कुछ फोटोग्राफर पिट गए। खैर, वह तो चुनावी मंज़र था आप भी बहुत कुछ दाएं-बाएं बोल गए हैं। कर करा गए हैं। चलिए उन सब को भूल जाते हैं। पर आप से कभी राहुल गांधी की भेंट हो तो उन्हें बताइएगा ज़रुर कि उत्तर प्रदेश के लोग अब देश ही नहीं दुनिया में भी कई शीर्ष पदों पर या अगली कतार में दिखते हैं। और यह कोई आज से नहीं बरसों-बरस से है।

हां, यह सही है कि उद्योग आदि न होने से बहुत सारे बेरोजगार नौजवान मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, आसाम आदि या दुबई, बैंकाक, अफ़्रीका, आस्ट्रेलिया, लंदन, वाशिगटन आदि जगहों पर जाते रहते हैं। कभी आस्ट्रेलिया, कभी आसाम तो कभी मुंबई आदि में पिटते भी रहते हैं। तो इस में उन बिचारों का क्या दोष? यह तो आप राजनीतिज्ञों आदि की ही कृपा है। उन के यहां से जाने में भी और पिटने में भी। नहीं देखिए न जौनपुर से मुंबई गए कांग्रेस के कृपाशंकर सिंह या आज़मगढ से मुंबई गए आप की पार्टी के अबू आज़मी जो कभी मज़दूर थे वहां, अब अरबपति हैं। भले भ्रष्टाचार आदि की तोहमत लग गई तो क्या ! राजनेता होने का कवच तो है ना। और बहुत सारे लोग ऐसे भी है जो दिल्ली मुंबई नहीं गए लखनऊ या अपने गृह जनपद में ही कृपाशंकर सिंह या अबू आज़मी के कान काटे बैठे हैं। किस-किस का नाम लू और किस-किस का न लूं? और कि किस पार्टी में यह भैया लोग नहीं हैं। भ्रष्टाचार, दबंगई, गुंडई आदि में सभी एक दूसरे से अव्वल हैं। बसपा और सपा तो मुफ़्त में बदनाम हैं। क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या पीस, क्या ये, क्या वे सभी पार्टी में एक से एक टापर बैठे हुए हैं। आप इन सब पर कुछ अंकुश आदि का नाटक भी करेंगे या नहीं? या फिर जैसे जे पी ग्रुप या पोंटी चड्ढा आदि पर भी कागजी तलवारें ही भांजेंगे? आखिर इस के पहले भी तो यह लोग आप के ही खेमे में थे।

बताऊं आप को कि मैं ने भी कभी जहाज चलाए हैं। पानी वाले जहाज भी और आसमान वाले भी। तलवार और बंदूक भी। पर बचपन में। खिलौने वाले। कागज की नाव भी। जब कभी बरसात होती थी नाव कहिए जहाज कहिए तुरंत बनाते थे और चला लेते थे। वैसे ही जैसे आप लोग चुनाव का ऐलान होते ही घोषणा पत्र बना लेते हैं, वादे-इरादे गढ लेते हैं। और चुनाव बाद ही भूल जाते हैं। वैसे ही जैसे आप ने चुनाव में डी पी यादव को तो पार्टी में लेने से इंकार कर दिया और साथ ही आज़म खां को तभी नाप में ला कर मोहन सिंह जैसे को शहीद कर दिया। लोगों को बहुत अच्छा लगा। पर यह क्या आप ने निर्दलीय राजा भैया जो पोटा, गैंगेस्टर आदि से सुशोभित हैं, जेल यात्रा आदि में भी निपुण हैं को भी आप ने जेल मंत्री से ही नवाज दिया? निर्दलीय होने के बावजूद। कुछ पत्रकारों ने जाने कैसे सवाल उठा दिया आप के सामने तो आप ने बता दिया कि राजनीतिक दुशमनी के तहत उन पर मुकदमे लिखे गए। संकेतों मे बिना नाम लिए कह दिया कि मायावती ने उन को रंजिश में फंसाया। और कहा कि तारीख देख लो। क्या बात कर रहे हैं अखिलेश जी? तारीख तो यह बताती है कि राजा भैया पर सब से पहले मुकदमा लिखा गया १९८९ में। धारा १४७, १४८, १४९ और ३०७ में। तब आप के पिताश्री मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे । कोई मायावती आदि नहीं। तो क्या आप की भी कभी कोई राजनीतिक रंजिश रही है राजा भैया से? फिर भी मंत्री बना दिया? इतना ही नहीं जब ६ जुलाई, १९९५ को कुंडा के दलेरगंज में राजा भैया ने ३५ मुसलमानों के घर जला दिए गए। इन मुसलमानों के घर ३ दिन तक धू-धू कर जलते रहे थे। आगजनी के बाद मुस्लिम लडकियों के साथ बलात्कार करवा कर उन्हें गायब करवा दिया गया। दलेरगंज में तब सिर्फ़ वृद्ध और अपंग ही बचे रह गए थे। बाकी लोग घर छोड कर भाग गए थे। तब आप के पिताश्री मुलायम सिंह यादव ने हफ़्ते भर तक विधान सभा नहीं चलने दी थी। इन मुसलमानों का कुसूर सिर्फ़ इतना भर था कि उन्हों ने राजा भैया को वोट नहीं दिया था। इन का वोट नियाज़ हसन को चला गया था जो विधान सभा अध्यक्ष रहे थे।

कल्याण सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब उन के साथ प्रतापगढ मैं गया था। चुनाव कवरेज के लिए। उन्हों ने तब राजा भैया को कुंडा का गुंडा कह कर ललकारा था। आज भी अगर गूगल पर कुंडा टाइप कीजिए तो पहले कुंडा का गुंडा ही खुलता है। फिर कुछ और। कल्याण सिंह ने ही राजा भैया पर पहली बार पोटा आदि भी लगाया था। लेकिन पतित राजनीति का खेल देखिए कि कल्याण सिंह ने ही राजा भैया को सब से पहले कैबिनेट मंत्री बनाया। राजा भैया जब राजभवन में शपथ के लिए बैठे थे तब के दिन भी राजा भैया पर वारंट था सो मैं ने तत्कालीन प्रमुख सचिव गृह हरीशचंद्र जी से बताया कि देखिए यहां आप का एक वांटेड अपराधी बैठा हुआ है। वह फ़ौरन चौकन्ने हुए और पूछा कि कहां? मैं ने शपथ लेने वाले मंत्रियों के साथ बैठे राजा भैया को दिखाया तो वह शिथिल पड गए। फीकी मुस्कान फेकते हुए बोले आप भी क्या मजाक करते हैं? यही बात थोडी देर बाद मैं ने तत्का्लीन पुलिस महानिदेशक श्रीराम अरुण से भी कही कि आप का एक वांटेड क्रिमिनल यहां मौजूद है। वह हडबडा गए और फ़ौरन उन का हाथ अपनी रिवाल्वर पर चला गया। पर जब मैं ने उन्हें राजा भैया को दिखाया तो वह भी शांत हो गए। यह तब था कि जब यह दोनों ही अधिकारी ईमानदार और सख्त छवि के माने जाते रहे हैं। बल्कि मैं ने तो श्रीराम अरुण से यह भी कहा कि बताइए अगर आप की जगह हिंदी फ़िल्म का कोई नाना पाटेकर टाइप का पुलिस अफ़सर होता तो क्या करता? यहीं पटक कर पहले राजा भैया को निपटा देता। शपथ-वपथ बाद में होती रहती। पर श्रीराम अरुण बिचारी हंसी, फीकी हंसी हंस कर रह गए।

अखिलेश जी, आप को मालूम ही होगा कि राजा भैया पर अभी भी ३५ से अधिक मामले दर्ज हैं। आप को शायद यह भी मालूम ही होगा कि इलाहाबाद के चौधरी महादेव प्रसाद कालेज से थोडी सी पढाई किए राजा भैया को उन के पिता उदय प्रताप सिंह ने ज़्यादा इस लिए नहीं पढाया क्यों कि उन का मानना था कि ज़्यादा पढाई लिखाई से आदमी कायर बन जाता है। सो देखिए न राजा भैया कायर नहीं हुए और कि उन्हों ने बहादुरी के क्या तो कीर्तिमान स्थापित किए हैं। पोटा, गैंगेस्टर सब से सुशोभित हैं। और आप हैं कि बता रहे हैं कि उन्हें राजनीतिक रंजिश में फंसाया गया है। अरे मायावती और अमर सिंह को एक साथ चिढाना ही था तो कोई और तरकीब आज़माए होते ! यह तरकीब कभी हो सकता है भारी पड जाए।

प्रिय अखिलेश जी, इतनी नादानी किसी सरकार के मुखिया को शोभा नहीं देती। आप के पिताश्री ने इस के पहले अमरमणि त्रिपाठी मामले में भी यही किया था। जब वह मायावती मंत्रिमंडल सुशोभित कर रहे थे तभी मधुमिता को भी उन पर मरवा देने का आरोप लगा। आप के पिताश्री ने ही उन की नाक में दम कर दिया। उन्हें मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पडा। पर यह क्या आप के पिताश्री की जब सरकार बनी तो वही अमरमणि उन के तारनहार बन गए! अब तो खैर वह सपत्नीक जेल की शोभा बढा ही रहे हैं। पर उन के बेटे को आप ने तार दिया है। विधायक बन गया है। आश्चर्य है कि उसे मंत्री नहीं बनाया। आज़म खां से लगायत शिवपाल, बलराम यादव, राजाराम पांडेय आदि सभी तो आप के चाचा ही हैं।संबंध ही में नहीं राजनीति में भी। ज़रा सावधान रहिएगा। आप के पिता्श्री ने आप को मुख्यमंत्री बनाया पुत्र मोह में ही सही यहां तक तो ठीक था। पर यह जो अपनी शिव जी की बारात भी आप के मत्थे डाल दी है इस की आप को क्या-क्या कीमत आने वाले दिनों में चुकानी पडेगी, आने वाले दिन ही बताएंगे। तिस पर आप को अपने कार्यालय में भी अनिता सिंह जैसी चाचियों से भी निभानी पडेगी। सच आप के पिताश्री ने यह सब कर के कतई ठीक नहीं किया है। आशीर्वाद दे कर कह तो दिया है मुलायम ने कि आप अपने कुर्ते पर दाग न आने दें। पर जो तमाम दागी मंत्रियों और अफ़सरों की फौज से आप को रुंध दिया है, उस का क्या करेंगे आप? इन बंधनों और बाधाओं से कैसे छुटकारा पाएंगे? आप के साथ जाने-अनजाने हो यही गया है कि कोई आप के पंख काट कर आप के हाथ में थमा दे और पूछे कि भाई आप उड क्यों नहीं रहे? मुझे तो डर लग रहा है कि बहुमत की सरकार के बावजूद आप की गति कहीं मनमोहन सिंह से भी बुरी न हो जाए। भगवान बचाए आप को इस बला से ! खुदा महफ़ूज़ रखे हर बला से !

आप के पिताश्री मुलायम सिंह की राजनीति और कार्यशैली से मैं ही क्या बहुतेरे वाकिफ़ हैं। मैं ने तो बार-बार आप के पिताश्री को कवर भी किया है, साथ में यात्राएं की हैं, बहुत सारे इंटरव्यू किए हैं। बल्कि एक बार तो जान जाते-जाते बची है। तब १९९८ में मुलायम सिंह यादव संभल से चुनाव लड रहे थे। हम कुछ पत्रकार कवरेज के लिए संभल जा रहे थे। कि एक ज़बर्दस्त एक्सीडेंट हो गया। सीतापुर के पहले खैराबाद में। हमारी अंबेसडर और ट्रक आमने-सामने लड गए। हमारे साथी जयप्रकाश शाही और ड्राइवर का तो मौके पर ही निधन हो गया। मैं और गोपेश पांडेय किसी तरह बच गए। आप के पिता ने तब हमारे इलाज और देख रेख में कोई कसर नहीं छोडी थी। सब से पहले देखने आने वालों में भी वही थे। मैं जानता हूं कि ऐसे और भी तमाम लोगों की मदद वह निरंतर करते रहे हैं। चाहे सत्ता में रहे हों चाहे सत्ता से बाहर।

अभी ताज़ा कडी बने हैं अदम गोंडवी। उन के इलाज में भी, देख-रेख में भी आप के पिता ने कोई कमी न होने दी। अब वह नहीं बच सके, यह अलग बात है। सो कहने का कुल मतलब यह कि मुलायम सिंह यादव की नियति और नीति से बार-बार वाबस्ता रहे हैं। हम या हमारे जैसे लोग। सो समझ में आ जाता है कि वह अब क्या कहेंगे और क्या फ़ैसला करेंगे? अभी आप का देखना बाकी है। तुरंत-तुरंत कुछ भी कहना जल्दबाज़ी ही है। लेकिन अभी जो पूत के पालने वाले पांव दिख रहे हैं, वह बहुत आश्वस्त नहीं करते, यह कहने में तनिक भी संकोच मुझे नहीं है। अभी जो मायावती राज में उत्तर प्रदेश दलित उपनिवेश में तब्दील हो गया था, लग रहा है अब यादव उपनिवेश की आहट है। मायावती राज में जैसे ब्राह्मणवाद की भी छौंक दीखती थी,लोग खांस रहे थे, अब मुस्लिमवाद की छौंक में लोग खांस रहे हैं। उत्तर प्रदेश की सेहत के लिए न वह ठीक था, न यह ठीक है। संतुलन बना कर चलने में हर्ज़ क्या है? फिर आप और आप के पिताश्री तो लोहिया की माला जपने वाले हैं। लोहिया तो इन सब चीज़ों को रत्ती भर पसंद नहीं करते थे। तो आप के गले से यह सब कैसे उतर रहा है? आप के पिताश्री तो खैर लोहिया लोहिया जपते रहते थे और यह सब भी करते रहते थे, अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में। लोहिया के लगभग सभी सिद्धांतों को वह तिलांजलि दे कर राजनीति करने के आदी हैं।

संचय के खिलाफ़ थे लोहिया। पर मुलायम पर आय से अधिक संपत्ति का मामला आज भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। वंशवाद या परिवारवाद के खिलाफ़ थे लोहिया। पर देखिए न आप का पूरा परिवार सत्ता में लोट-पोट है। आप खुद अपने पिता की विरासत संभाल ही बैठे हैं। जिस कांग्रेस के खिलाफ़ लोहिया आजीवन लडते रहे, आप लोग उस कांग्रेस से पहले खुद दूध पीते रहे, अब उसे ही दूध पिला रहे हैं। तो यह सब क्या है? यह और ऐसी तमाम बातें हैं जो लोहिया के खिलाफ़ आप लोग करते ही रहते हैं। यह ठीक नहीं है। न आप के हित में, न आप की पार्टी और सरकार के हित में, न ही उत्तर प्रदेश या देश के हित में। ठीक वैसे ही जैसे आप ने ऐलान किया है कि मायावती द्वारा बनवाए गए स्मारकों से आप मूर्तियां तो नहीं हटवाएंगे पर स्कूल या पार्क बनवाएंगे। यह भी ठीक नहीं है। आप बार-बार कह रहे हैं कि बदले की कार्रवाई नहीं करेंगे। पर है यह बदले ही की कार्रवाई। आप माने या न माने। नाक आगे से पकडिए चाहे पीछे से। बात एक ही है। अंबेडकर हों या कांशीराम, एक बार आप उन से असहमत हो सकते हैं, कोई बात नहीं दस बार नहीं हज़ार बार होइए। पर वह हमारे समाज की साझी धरोहर हैं, यह भी मान लेने में कोई नुकसान नहीं है। उन स्मारकों या पार्कों में हुई धांधली पर तो आप पूरी कार्रवाई करिए। पर वहां स्कूल या अस्पताल बनाना तर्क सम्मत नहीं है। बहुत ज़मीन पडी है उत्तर प्रदेश में। जितने चाहिए उतने स्कूल या अस्पताल बनाइए। पर बदले की यह कार्रवाई ठीक नहीं है। कम से कम आप की सरकार के हित में तो कतई नहीं। न हो तो एक बार पीछे मुड कर इतिहास पर नज़र डाल लीजिए। आप के पिताश्री के एक गुरु हैं चौधरी चरण सिंह। जनता पार्टी की सरकार में जब केंद्रीय गृहमंत्री बने तो इंदिरा गांधी के खिलाफ़ इतने आयोग पर आयोग बिठा दिए कि जिस इंदिरा गांधी को जनता ने एकदम साफ कर दिया था, उसी इंदिरा गांधी को वापस आने में पांच साल भी नहीं लगे। ढाई साल में ही जनता ने फिर जनता पार्टी को धूल चटा कर इंदिरा गांधी को वापस दिल्ली में सत्ता दे दी। तो यह और ऐसी गलतियों से बचें तो ही आप का और उत्तर प्रदेश का भला होगा। टकराव से तो सब का नुकसान ही होगा। यह सही है कि जनता ने मायावती की मूर्तियों और पत्थरों को बिलकुल पसंद नहीं किया । पर जो आप भी करने के लिए कह रहे हैं, जनता यह भी पसंद नहीं करेगी।

अच्छा होगा अखिलेश जी कि मतभेद और रगडा-झगडा छोड कर उत्तर प्रदेश को विकास की राह पर ले जाएं। जनता ने आप के रुप में विकास का सपना देखा है, विनाश का नहीं। नहीं कल को वापस आ कर मायावती या कोई और लोहिया पार्क में भी स्कूल य अस्पताल खोलने की बात करने लगेगा। तो ऐसी बातों का कभी अंत होता नहीं। किस-किस स्मारक या पार्क को स्कूल या अस्पताल में बदलेंगे हम लोग भला? अभी तो पहले तो अपनी पार्टी के लोगों को अनुशासन में बांधिए और कहिए कि दबंगई छोड कर शांति कायम करें। नहीं अभी पांच साल पहले ही एक नारा लगा था कि चढ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगा हाथी पर ! तो तब हाथी का राज आ गया था। पर जो अभी-अभी आप हाथी को साइकिल से रौंद कर राज करने आए हैं, तो ऐसा कुछ मत करिए कि जल्दी ही हाथी फिर लौट आए। या फिर क्षेत्रीय पार्टियों से लोग ऊब कर पंजा या कुछ और देखने लग जाएं। अभी तो देखिए न हमारे गांव से एक बुजुर्गवार आए हैं। चुनाव के समय आप का भाषण सुन कर बहुत मोहित थे आप पर। माफ़ कीजिए आप का भाषण सुन कर नहीं बल्कि आप के भाषण में बेरोजगारी भत्ता की बात सुन कर मोहित थे। वह मेरे पीछे पडे हैं कि आप से उन को मिलवा दूं। मैं ने उन्हें बता दिया है कि आप व्यस्त बहुत हैं, मिल नहीं पाएंगे। पर वह चाहते हैं कि किसी तरह उन की बात आप तक पहुंच जाए। तो अखिलेश जी, यह चिट्ठी दरअसल उन्हीं की बात कहने के लिए लिखनी शुरु की थी। माफ़ कीजिए और भी बहुत कुछ दाएं-बाएं की बातें लिख गया। तो उन बुजुर्गवार का कहना है कि उन को तो आप ने ठग लिया। और उन को ही क्यों उन का तो कहना है कि सगरो जवार को ठग लिया। सब ने आप को इसी एक आसरे पर वोट दिया था। अब सब का आसरा टूट गया है। वह कह रहे हैं कि जब आप ने बेरोजगारी भत्ता का भाषण दिया था तब कोई उम्र की सीमा नहीं बताई थी। कि पैतीस के बाद ही बेरोजगारी भत्ता मिलेगा। उन के तीन बेटे और एक बेटी है। सब पढे-लिखे बेरोजगार हैं। अभी पैतीस वर्ष का होने में दस साल से भी ज़्यादा का टाइम है। मैं ने उन्हें बताया है कि घोषणा-पत्र में साफ लिखा है पैतीस साल के बाद। तो उन्हों ने मुझे साफ डपट दिया कि भाषण के समय कोई घोषणा पत्र नहीं बंटा था।

अब उन्हें हम कैसे समझाएं और कि क्या समझाएं अखिलेश जी? आप ही बताएं। बेरोजगारी भत्ता के साथ-साथ रोजगार की भी तमाम योजनाएं क्या नहीं चला सकते आप? आखिर बहुमत की सरकार है आप की। कुछ भी कर सकते हैं आप। आप युवा हैं। एक युवा की तडप और वह भी रोजगार की तडप क्या आप नहीं जानते होंगे? मेरा मानना है कि ज़रुर जानते होंगे। बंगाली में एक कहावत कही जाती है कि किसी को खाने के लिए मछली देने से अच्छा है कि उसे मछली मारना सिखा दीजिए। आप भी आखिर यही क्यों नहीं कर देते? आखिर कब तक बेरोजगारी भत्ता दे कर प्रदेश के युवाओं को भिखारी बनाए रखेंगे? अब देखिए यह चिट्ठी आप को भेजने जा ही रहा था कि तीन चार दिन पुराना अखबार दिख गया। जिस में हमारे एक बुजुर्ग लेखक अमरकांत जी को ज्ञानपीठ सम्मान देने की खबर छपी है। उन्हों ने सम्मान लेने के साथ ही एक बयान भी जारी किया है। दरअसल उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लेखकों को जो हर साल सम्मान या पुरस्कार देता था उसे मायावती ने अपनी तानाशाही के चलते रद्द कर दिया था। तो अमरकांत जी चाहते हैं कि उसे मुलायम सिंह बहाल करें। अखिलेश जी, अगर आप इस पर भी विचार कर सकेंगे तो खुशी होगी|

हां, यह चिट्ठी थोडी सी नहीं बहुत बडी हो गई है। क्या करें बातें ही बहुत हैं। अभी भी बहुत सारी बातें रह गई हैं। जो कभी फिर सही। एक बात और बताऊं कि मन करेगा तो ऐसे ही आप को और भी चिट्ठियां मैं लिखता रहूंगा। लोगों की बातों को बताने के लिए। इस लिए भी कि मैं जानता हूं कि आप की अफ़सरशाही, कार्यकर्ता और अखबार, चैनल सब के सब अब चाटुकार हो गए हैं। बिकाऊ और पालतू हो गए हैं। जो बात आप को पसंद होगी वही बात आप से कहेंगे। बाकी पी जाएंगे। अब देखिए न कि मायावती ने अफ़सरों को इतना टाइट कर दिया कि बेचारे अपनी ही बात कहना भूल गए। क्या आइ ए एस क्या आइ पी एस क्या पी सी एस, पी पी एस सबने अपनी सालाना वीक तक मनाने की वर्षों की परंपरा तक तोड दी इन पांच सालों मे। तो जो लोग अपनी बात कहने में भी कायर या नपुंसक होने की हद तक चले जाएं उन अफ़सरों से आप उम्मीद करें कि वे जनता का दुख दर्द बता कर या आप की गलतियों को बता कर आ बैल मुझे मार कहेंगे? क्या वैसे ही एक नान आइ ए एस कैबिनेट सेक्रेट्री बन कर इन पर सालों रुल कर गया? और ये अपने को रुलर के खांचे से बाहर भी नहीं निकाल पाए। अब तो यह अफ़सर पिंजडे में इतने दिन बंद रह चुके हैं कि आप बाहर भी जो गलती से निकाल देंगे तो ये उड नहीं पाएंगे। कोई कुत्ता बिल्ली भले इन्हें मार कर खा जाए। रही बात अखबारों और चैनलों की तो उन की हालत तो इन अफ़सरों से भी गई बीती है। यह अब दुकानें हैं। जब जिस की सत्ता है, तब तिस के अखबार हैं, तब तिस के चैनल हैं। अभी तक मायावती के थे, अब आप के हैं। अब बचे आप के कार्यकर्ता। तो सत्ता पाने के बाद वह होश में भी हैं भला? वैसे भी नीचे की नेतागिरी अब और गिर गई है जैसे ऊपर की। सो चिट्ठी मैं लिखता रहूंगा। आप और आप की मशीनरी बुरा माने चाहे भला। हम तो चिट्ठी लिख-लिख कर पूछ्ते ही रहेंगे कि का हो अखिलेश, कुछ बदली उत्तर प्रदेश!

आप का,

दयानंद पांडेय 

आभार : http://sarokarnama.blogspot.

दयानंद पांडेय

अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 26 पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),सात प्रेम कहानियां, ग्यारह पारिवारिक कहानियां, ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित। सरोकारनामा ब्लाग sarokarnama.blogspot.in वेबसाइट: sarokarnama.com संपर्क : 5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001 0522-2207728 09335233424 09415130127 dayanand.pandey@yahoo.com dayanand.pandey.novelist@gmail.com Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest

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