बुलंदी

खल रहा है खुद को जिंदा रखने की नसीहत देने वाले उत्तम बाबू का अचनाक चले जाना

पत्रकारिता कोर्स में दाखिला के लिए माखन लाल चर्तुवेदी विश्वविद्यालय की ओर से अखबारों में एक विज्ञापन  प्रकाशित था। निर्धारित तिथि को साक्षात्कार के लिए जब मैं पटना म्यूजियम के सामने स्थित आईआईबीएम के परिसर में पहुंचा तो वहां पहले से काफी भीड़ लगी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि पटना के सारे तमाम प्रतिभाएं पत्रकारिता कोर्स में दाखिला लेने के लिए लंबे समय से बेकरार थी। उत्तम सिंह द्वारा पटना में माखन लाल चर्तुवेदी विश्वविद्यालय एक ब्रांच खोलने का ही इंतजार हो रहा था।

साक्षात्कार का दौर लंबा चलता रहा। दाखिला के लिए इच्छुक छात्रों को एक-एक करके चैंबर में बुलाया जा रहा था। जब मेरी बारी आयी तो मैं अंदर दाखिल हुआ। अंदर पूरा बोर्ड बैठा हुआ था। एक बड़े से टेबल के इर्द गिर्द कई कुर्सियां लगी हुई थी। सामने वाली कुर्सी पर उत्तम सिंह बैठे हुये थे जबकि उनके अगल-बगल वाली कुर्सी पर समीर सिंह और विकास झा बैठे हुये थे। इनके अलावा माखन लाल चर्तुवेदी विश्वविद्यालय की ओर से भोपाल से एक प्रतिनिधि आये हुये थे। उत्तम सिंह के अगल- बगल बैठे लोग मुझसे सवाल करते रहे और मैं जवाब देता रहा। इस बीच उत्तम सिंह ने मेरी तरफ देखते हुये पूछा, “क्या तुम्हारे परिवार में कोई पत्रकार या फिर लेखक है? ”

मैंने जवाब दिया –“नहीं।  क्या मेरे पत्रकार बनने के लिए मेरे परिवार में किसी का पत्रकार या फिर लेखक होना जरूरी है?” मेरा जवाब सुनकर वह मुस्कराये और फिर मुझे जाने को कहा।

उत्तम सिंह से यह मेरी पहली मुलाकात थी। दूसरी मुलाकात तकरीबन एक महीने बाद हुई। क्लास शुरु होने के ठीक पहले दिन। लगभग सभी छात्र-छात्राएं पहला क्लास अटेंड करने के लिए पूरे उत्साह के साथ आये थे, और परिस्थियां कुछ ऐसी बनी की उसी दिन पहला क्लास लेने आये एक दैनिक समाचार पत्र के पत्रकार से क्लास में पत्रकारिता के इतिहास और स्वरुप को लेकर बहस हो गयी। चुंकि पत्रकारिता कोर्स में दाखिल लेने के बहुत पहले ही किताबों से मेरी अच्छी खासी दोस्ती हो चुकी थी। उन दिनों में पटना में टीवी या इंटनेट का चलन नहीं था। फिल्म या फिर किताबों के जरिये ही व्यक्ति अपना समय भी काटता था और मनोरंजन भी करता था। सोवियत संघ की रादुगा प्रकाशन की किताबें पटना के फुटपाथ पर बहुत ही कम पैसे में आसानी से मिल जाते थे। इन्हीं फुटपाथ पर से मुझे कई बेहतरीन किताबें पढ़ने को मिली थी, उनमें से एक थी, जॉन रीड की “जब दस दिन दुनिया हिल उठी।” कम उम्र में पढ़ी गई बेहतरीन किताबों का कॉकटेल कीक बैक भी मारता है और हैंगओवर भी करता है। मेरी भी स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। हिटलर की आत्मकथा यानि मीन कैंफ ने भी इतिहास को लेकर मेरी समझ को अपने तरीके से पुख्ता कर दिया था।

पहले दिन क्लास में आकर जैसे ही पत्रकार महोदय पत्रकारिता के इतिहास के बारे में बताने लगे मुझे लगा कि वह विषय को ठीक तरह से रख नहीं पा रहे हैं। एक दो सवाल को लेकर उनसे बहस हुई फिर मैंने अपनी ओर से यह प्रस्ताव रखा कि वह मुझे अपनी जगह पर आकर इस विषय को सही तरीके से छात्रों के सामने रखने दे। निर्भय देव्यांश तुरंत मेरा समर्थन किया और इसके साथ ही क्लास में शोरगुल होने लगा। चुंकि उत्तम बाबू एक सधे हुये प्रबंधक थे। इस बात की जानकारी उनतक तुरंत पहुंच गयी कि क्लास में हंगामा की स्थिति बनी हुई है। वह खुद उठकर क्लास में चले आये और पत्रकारिता का पहला क्लास उन्होंने अपने तरीके से लिया। उनके आने के बाद मैं भी सहजता से अपनी सीट पर बैठ गया था। वह धाराप्रवाह अंग्रेजी में पत्रकारिता के तमाम आयाम को समझाते रहे। वह बेहतरीन अंग्रेजी बोलते थे। और वाकई में उस दिन से मैं उनकी अंग्रेजी का मुरीद हो गया था और मेरी दिलचस्पी उनमें बढ़ती चली गयी।

मेरी आदत थी कि सुबह क्लास में आते ही जो भी किताब मैं पढ़ रहा था उससे कुछ अच्छे कथन निकाल कर ब्लैक बोर्ड पर लिख देता था। चुंकि उन दिनों में हिटलर की मीन कैंफ पढ़ रहा था इसलिए ब्लैक बोर्ड पर हर रोज हिटलर की कोई न कोई उक्ति लिख ही देता था। यह बात उत्तम सिंह को भी पता चला गया। एक दिन किसी काम से मैं उनके चैंबर में दाखिल हुआ तो उन्होंने मेरी तरफ देखते हुये कहा, “कहो हिटलर, क्या बात है? ” उसके बाद से वह जब भी मुझे देखते मुझे हिटलर कह कर ही संबोधित करते थे। उनके इस संबोधन में मुझे उनका प्यार दिखाई देता था और विश्वास भी। उन्होंने एक बार मुझे कहा भी था, “कई लोगों के जरिये तुम्हारी बहुत सारी शिकायतें मेरे पास आयी थी। लेकिन इस बारे में मुझे कभी तुमसे पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई।” उन्हें यह भी पता था कि मैं सड़कों पर से किताबें खरीद कर पढ़ता हूं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम चाहो तो यहां कि लाईब्रेरी से किताबें ले सकते हो। मेरी आदत किताबों पर नोट बनाकर पढ़ने की थी। इसलिए मैं लाइब्रेकी की किताबों को घर लाकर पढना मुझे रास नहीं आता था।

उत्तम सिंह की एक अहम खासियत यह थी कि वह नई नस्ल के मन और मिजाज को अच्छी तरह से समझते थे और उसके साथ उसी स्तर पर जाकर संवाद करते हुये उसे सही राह दिखाने की कोशिश करते थे। क्लास खत्म होने का बाद अक्सर आईआईबीएम के मुख्य गेट पर वह आकर खड़ा हो जाते थे। पत्रकारिता के छात्रों की एक टोली उन्हें घेर लेती थी। फिर खड़े खड़े ही बातों का लंबा सिलसिला निकल पड़ता था। बिहार के मौजूदा हालात से वह अच्छी तरह से वाकिफ थे। एक दिन उन्होंने हम सभी छात्रों समझाते हुये कहा, “अभी तुमलोगों को लिए वक्त लड़ने झगड़ने का नहीं है। सियासी टोपी पहन कर अपराधियों का एक नया गिरोह खड़ा हो चुका है। बिहार अभी घोर अराजकता के दौर से गुजर रहा है। कब किसकी कहां. हत्या कर दी जाएगी कोई नहीं जानता है। इसलिए तुमलोगों के लिए यह बेहतर होगा कि अपने आप को बचाओ। देखते देखते यह समय भी गुजर जाएगा, लेकिन तुम लोगों का जिंदा रहना जरूरी है।”

हमलोगों को जिंदा रहने की नसीहत देने वाले उत्तम सिंह आज हमारे बीच नहीं है। आज हमलोग वैश्विक महामारी के दौर से गुजर रहे हैं। आज उनकी बिहार को उनकी बहुत ज्यादा जरूरत थी। उनकी वफात की खबर से वाकई मैं गमगीन हूं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।

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