गरीबों का हाकिम बनने वाली पार्टियां चुनाव में अरबों फूंकने को बेताब

क्या यह वही आपत्तिकालीन समय है, जिसमें आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है। आजकल बिहार मे चुनावी माहौल को देखते हुए तो ऐसा ही लग रहा है । हर एक नेता या फिर नेता बनने की भूख से पीड़ित हर एक सख्स आज अपनी अंतरात्मा की दुहाई देता लोगों से मिल रहा है । पहले चरण का चुनाव हो चुका है, और प्रचार के दौरान हर वो प्रपंच देखने को मिला जिसमे ज्यादा से ज्यादा आम जनता को बेवकूफ बनाया जा सके ।

 ये सियासत ही है जिसमें निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा को बढाते है। यहां हम किसी को कुछ भी कह सकते और फिर अपने कहे पर अडिग रह्ने के लिए और भी कुछ कहने को प्रेरित रहते है । क्या प्रधानमंत्री और क्या मुख्यमंत्री या फिर क्या और बडे़ नेता सभी एक ही पानी से धुले हुए दिखते है । इस चुनाव प्रचार मे गरीबों के मसीहा बनने का दावा करने वाले कुछ नेताओं या फिर ये भी कह ले कि ज्यादातर नेताओं के प्रचार करने का तरीका बड़ा ही भव्य दिखा। हो भी क्यूं नही आखिर वे गरीबी, बेकारी, लाचारी जैसे विध्वंसक मापदंडों से आम जनता को आजादी दिलवाने का जो प्रयास कर रहे हैं ।

 चुनाव का बिगुल बजते ही नेतागण अपने पूरे शबाब मे नजर आने लगे और एक दूसरे पर थूका-थाकी की झड़ी लगा दी । और ऐसा हो भी क्यूं न ! चुनाव मे अपनी पूरी ताकत झोंकने का ये सबसे शानदार तरीका जो है । सभी बडी पार्टीयां अपने स्टार प्रचारकों के जरिये बिहार का अपने-अपने तरीके बखान करवाने मे आगे दिख रही हैं । कभी कोई फिल्म स्टार आता है, तो कभी कोई क्रिकेटर से नेता बने प्रचारक आते हैं । ये सभी उस जनता के बीच जाकर अपनी डफली बजाना शुरू करते है जिनके किसी भी सुख-दुख से न तो उनका पहले कोई लेना-देना था और न भविष्य मे कभी कोई मतलब रहेगा ।

 मगर आज जो सबसे अहम बात है वो ये है कि हम जनता अपना मूल्य समझे और विश्वास करें कि हम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है और हमारा महत्वपूर्ण वोट उस योग्य उम्मीदवार को मिले जो हमारी योग्यता को निखार सके । इस पांच साल से पहले के जो पंद्र्ह साल थे वो बिहार के लिये क्या थे, ये कोई आज उस बिहारी से जा कर पूछे जिसकी उम्र के वो पंद्र्ह महत्वपूर्ण वर्ष बेकार मे निकल गये । आज बहुत से बड़े नेता ये चिल्लाते फिर रहे हैं कि बिहार मे विकास के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ है , चलिये कुछ न भी हुआ तो पांच साल मे ही न ….पहले के पंद्रह वर्ष और उसके पहले के बाकी वर्षों मे क्या बिहार की कायापलट हो चुकी थी ?

 आज कोई परिवर्तन के लिए वोट मांग रहा है तो कोई नया बिहार बनाने की बात कर रहा है । कुल मिलाकर सपनों का बाजार गर्म है, पर आम जनता को वहां भी महंगाई के मार के अलावा और कुछ नही दिख रहा है । ये पब्लिक है और ये सब जानती है कि कैसे चौदह रूपये किलो बिकने वाली चीनी आज मजे से तीस रूपये मे बिक कर गरीबों का मुंह फिका कर चुकी है । आम आदमी के हाथ को मजबूत करने की चाह रखने वाली पार्टियां आज आम आदमी के हाथों को तोड उसपर प्लास्टर चढा कर उसे कांक्रिट जितना मजबूत बनाने को प्रयासरत है । तो गरीबों के हाकिम बनने वाली पार्टियां अपने चुनाव मे अरबों फूंकने को बेताब है । हेलिकाप्टर से उतरा ही नहीं जाता है , क्या करे अभी गरीबों से नही मिले तो महाप्रलय न आ जाये इस संसार में ..।

 ध्यान दे अभी कुछ ही समय पहले महिला आरक्षण के विरोध में संसद बड़ी-बड़ी बातों को कहने वाले भद्रजनों की पार्टियां कितने महिलाओं को आगे ला रही है ? आम जनता आज हर उस बयानबाजी को समझ रही है जिसे शायद उसे देने वाले नही समझ रहे हैं । सत्ता की लोलुपता इस कदर इनके मन-मंदिर को श्मशान बनाने पर तुली हुई है कि सत्प्रयत्न की इच्छा अब इन नेताओं मे कही से भी बची हुई नही दिख रही है । अभी कुछ ही दिनो पहले हमारे बिहार विधानसभा को अखाड़ा बना दिया गया था । क्या इन बातों को बिहार की जनता इतनी जल्दी भूला देगी ? शायद नहीं …. लेकिन अगर बिहार की जनता इसे भुलाने की भूल करगी तो फिर आने वाले पांच साल उन्हे इसके गंभीर परिणाम के लिए भी तैयार रहना होगा ।

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