गांधी जरूर निहार रहे होंगे अन्ना के आंदोलन को
संजय मिश्र, नई दिल्ली
कुछ-कुछ तहरीर स्क्वेर सा नजारा…. पर संयत। फिजा में हर तरफ संयम, कहीं कोई तनाव नहीं। उलटे उमंग और आकांक्षा पसरती हुई। जी हाँ, दिल्ली ने इस तरह का जन सैलाब उमरते कभी न देखा था। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं और उस युवा पीढ़ी की मौजूदगी जिसने हाल ही में ” जैस्मिन रेवोल्यूसन “से मौन सहमति जताई है। कभी लगता किसी उत्सव में शरीक होते लोग हैं ये पर अगले ही क्षण बेहतर भविष्य की ललक दिखाते मन को आश्वस्त करते चेहरे। ये सोलह अगस्त 2011 की बात है।
देश ने एक और अद्भुत दृश्य देखा और वो 15 अगस्त दोपहर बाद का था। हुक्मरानों के अड़ियल रवैये से व्यथित अन्ना राजघाट पहुंचे थे। उस समय चंद लोग ही थे वहाँ। गांधी समाधि के सामने घास पर मौन बैठे अन्ना मानो राष्ट्र-पिता से बात कर रहे हों। अनुमान करिए वे क्या कह रहे होंगे गांधी से? संभव है बापू के सपनो की धज्जियां उड़ने पर अपराध बोध जता रहे हों। इस आत्मालाप के दृश्य जब टीवी स्क्रीन पर दिखे तो देश चकित रह गया। झकझोड़ने वाले इन दृश्यों को महसूस करने दिल्ली के लोग घरों से निकल पड़े। दो घंटों के भीतर आठ हजार लोग जमा हो चुके थे। सभी अभिभूत और शांत -चित।
आखिरकार एक बच्चा अन्ना के करीब पहुचता है और बैठ जाता है। अन्ना की तंद्रा भंग होती है। वो उस बच्चे को पुचकारते हैं। बच्चा भी सहट कर अन्ना के बिलकुल करीब आ जाता है। तभी एक और बच्चा अन्ना के पास पहुंच कर प्रणाम करता है। अन्ना झट उठ खड़े होते हैं। उन्हें जवाब मिल चुका है। शायद ये बच्चे अहसास करा रहे थे कि उनके लिए अन्ना को अपनी मुहिम जारी रखनी है। अन्ना का मन अब हल्का हो चला था। देर शाम अन्ना का देश के नाम संबोधन दिल थाम कर सुनते लोग।
आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब देशवासी प्रधान-मंत्री के भाषण से ज्यादा किसी दूसरे शख्स के संबोधन के लिए उद्विग्न थे। जो आहट 15 अगस्त को दोपहर बाद सुनाई दी उसे संपूर्णता में लोगों ने 16 अगस्त को देश भर में देखा। जन लोकपाल के धुर विरोधी मशहूर न्यायविद के टी एस तुलसी 16 अगस्त की शाम होते-होते अन्ना को सलाम कर रहे थे। 17 अगस्त का दिन….. आखिरकार पी चिदंबरम को कहना पड़ा कि अन्ना सच्चे गांधीवादी हैं और उनको नमन करता हूँ। अन्ना की आंधी ने राज-सत्ता को हिला कर रख दिया था, संसद के गलियारों में मौजूद सहमे राज-नेता बौने नजर आने लगे थे।
क्या जनता ने लोक-जीवन के लिए नया बिम्ब गढ़ा है ? बौद्धिकों ने माना कि जन-भावना को समझने में सरकार ने भूल ही नहीं की बल्कि उसका तिरस्कार किया। सरकार के साथ-साथ राजनीतिक बिम्ब गढ़ने में माहिर रहे लालू इसे स्वीकार करने के बदले संसद की अस्मिता बनाम अन्ना की चाल चलने में मशगूल हैं। दर-असल लोक जीवन का ये नया बिम्ब साफ़ इशारा कर रहा है कि सरकार चलाने और राज करने के फर्क को समझें राजनेता।
सत्ता से जुड़े लोगों ने आजादी के बाद से ही कई प्रतिमान गढ़ लिए हैं। पिछले दिनों के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो इसने निहायत ही कई नए सवाल खड़े कर आम-जानो को चौंका दिया। ज़रा सवालों को याद करें…….कोई भी(अन्ना और रामदेव की मुहिम) आ-कर अपनी बात नहीं मनवा सकता पहले चुनाव लड़े तब सवाल करें संसद सर्वोच्च है।
जाहिर है ऐसे सवाल लोगों को मथते रहे और समझदार लोगों को भी इस भूल-भुलैया में फंसाते रहे। ये गहरी चाल थी…..पर अन्ना अडिग। वे कहते रहे कि—आप सेवक हैं और हम मालिक। ये भीतर से लहू-लुहान करनेवाला जवाब होता था। फिर भी सत्ता के लोग नहीं चेते। 16 अगस्त ने इनके सभी प्रतिमान और सवालों को ध्वस्त कर दिया और राजनेताओं की असल हैसियत को आइना दिखा गया।
16 अगस्त के बारह घंटे ने अन्ना की मुहिम को आन्दोलन की शक्ल दे दी। ये अलग तरह का आन्दोलन है, जे पी के आन्दोलन से निहायत ही अलग। इसका नेतृत्व गैर-राजनीतिक है जो इसकी ताकत भी है और भविष्य में कमजोरी भी बन सकता है। लोग कहते हैं कि इसने देश को एक-सूत्र में जोड़ दिया है। सुखद आश्चर्य ये कि सारे भेद मिटते नजर आए। लेकिन गौर करें तो इसकी असल ताकत कहीं और नजर आए। दर-असल इसने भारत और इंडिया के द्वंद्व को भोथरा किया है। फेस-बुक जेनेरेसन वाले इंडिया का भारत से साक्षात्कार किया है। गांधी जरूर निहार रहे होंगे कहीं से।
आंदोलन जैसा भी हो इतनी तस्वीर बिल्कुल साफ है कि आम जनता भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहती है।
वह द्वंद्व ही क्या जो भोथरा हो?