गांवों और कस्बों में घुट रही है पत्रकारिता
शिवदास
आप हर रोज अपने बेडरूम में खिड़कियों और दरवाजों के झरोखों से आती सूरज की किरणों के बीच आंखें खोलते हैं, तो पहले आपको दरवाजे पर पड़े 12 से 42 पेज के अखबारों की याद आती है। हल्की कंपकपी के बीच आप झट से अपने बिस्तर को छोड़ अखबार को उठाकर बड़े शहरों से लेकर गांवों के मुहल्लों तक की खबरों को जानने की कोशिश करते हैं। साथ ही साथ आप ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं कि हमारे आस-पास में क्या घटा है और हमारे लिए क्या फायदेमंद है। यदि आपको एक दिन भी अखबार समय से नहीं मिलता है तो आप की बेचैनी बढ़ जाती है जैसे कोई आपकी बहुमूल्य चीज खो गई हो। लेकिन आपने कभी उन बातों पर गौर किया है कि देश-विदेश से लेकर गांवों मुहल्लों तक की खबरों को कवर करने से लेकर अपके दरवाजे तक खबरों को पहुंचाने में अखबार की दुनिया में काम करने वालों को कितने मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।
देश-विदेश की खबरों से लेकर छोटी सी बस्ती तक की खबरें 12 से 42 पेज के अखबार में मात्र दो से पांच रुपये में कैसे मिल जाती है? जबकि इससे कहीं ज्यादा दाम अखबार के कागजों का होता है। बेशक, आपका उत्तर होगा- अखबारों में छपने वाला विज्ञापन अखबार निकालने वालों की कमाई का जरिया होता है। आप का कहना भी सही है। अखबारी दुनिया में काम करने वाले लोगों के भरण-पोषण की आमदनी का यह एक पहलू है। लेकिन मेरे जैसे हजारों लोगों को चिंतित करने वाला पहलू कुछ दूसरा ही है। जिसमें पत्रकारिता का शौक रखने वाले अपने घर की पूंजी फूंकते हैं। साथ ही साथ ऊंचे पदों पर बैंठे लोगों के हाथों शोषित होते रहते हैं, क्योंकि ऊंचे पदों पर काबिज लोगों को मीडिया हाउसेस के संचालकों द्वारा इसी के लिए मोटी रकम का भुगतान किया जाता है। पत्रकारिता की चकाचौंध और प्रभाव को पाने के चक्कर में युवाओं से लेकर बुजुर्ग तक शोषित होकर काम करते रहते हैं। साथ ही साथ अपने घुटन की जिंदगी को इस आशा में काटते रहते हैं कि कभी-तो अपनी भी सुबह होगी।
सुबह तो जरूर होती है लेकिन उन्हीं लोगों की जो बड़े शहरों में और बड़े मीडिया हाउसेस में काम करते हैं। दो-चार साल के बाद कुछ शोषित हो रहे युवाओं को खाने-पीने की मेहरबानी आकाओं द्वारा कर दी जाती है लेकिन उसके घर का नमक रोटी कब तक चलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं होती। हजारों ऐसे भी होते है जिनके लिए नमक रोटी मिलना दूभर होता है। गले में फांसी का फंदा पड़ते (शादी हो जाते) ही बिना पगार के काम कर रहे युवाओं के सिर से धीरे-धीरे पत्रकार बनने का भूत उतर जाता है और दूसरे क्षेत्र में अपना भाग आजमाना शुरू कर देते हैं। लेकिन बहुत से ऐसे भी होते हैं जो अपनी प्रतिष्ठा और प्रभाव के लिए शोषण के गम की घूंट पीते रहते हैं।
महानगरों से लेकर बड़े शहरों में अखबारी दुनिया में काम करने वाले खबरनवीसों को कंपनी इतना तो भुगतान कर देती है कि वे अपना जीवन किसी तरह से खिंच-खांच कर चला सकें। साथ ही साथ अधिकारक तौर पर पत्रकार का दर्जा भी मुहैया करा देती है। लेकिन वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता की जड़ कहे जाने वाले छोटे शहरों और गांवों में कामकरने वाले खबरनवीसों को न ही दो वक्त की रोटी के लिए संस्थान द्वारा धन मुहैया कराया जाता है, न ही अधिकारिक तौर पर पत्रकार कहलाने का दर्जा। ऊपर से विज्ञापन और प्रसार का दबाव। पत्रकारिता करने और पत्रकार बनने के जोश में छोटे शहरों के पत्रकार अपने घर का धन खर्च करके खबरों को इकट्ठा करते हैं और लोगों से पंगा भी लेते हैं। लेकिन इन खबरनविसों को अपनी स्टोरी पर नाम तक मुहैया नहीं हो पाता है। कोई केस हो गया तो कंपनी अपना संवाददाता बताने से भी मुकर जाती है। जिससे वे फर्जी पत्रकार के रूप में पुलिस रिकॉर्ड में पंजीकृत होकर अपराधी बन जाते हैं और कोर्ट से लेकर कचहरी तक का चक्कर लगाते रहते हैं। कभी-कभी खबर की टोह में पुलिस से भी पंगा हो जाता है और इन खबरनवीसों को पुलिस के कहर का कोपभाजन बनना पड़ता है। ऐसे कई मामले छोटे जनपदों में सामने भी आये है जिसमें पुलिस ने फर्जी मुकदमा दायर कर खबरनवीसों को कोर्ट और कचहरी का चक्कर लगाने के लिए छोड़ दया है। साथ ही साथ संस्थान ने हाथ भी खिंच लया है, क्योंकि उन्होंने पुलिस के गैर-जिम्मेदाराना हरकतों को जनता के सामने लाने की कोशिश की। ऐसे ही एक मामले के भुक्तभोगी खबरनवीस राजेंद्र द्विवेदी हैं। उत्तर प्रदेश के अतिपिछड़े एवं नक्सलप्रभावित जनपद सोनभद्र में खबरनवीस का काम करने वाले राजेंद्र ने सोनभद्र के पूर्व पुलिस अधीक्षक के कार्यकाल में पुलिस की कुछ कारगुजारयों को उजागर किया था जिसका खामियाजा आज भी उनको भुगतना पड़ रहा है। राजेंद्र आज भी कोर्ट का चक्कर काट रहे हैं। पहले भी पुलिस द्वारा कई पत्रकारों को फर्जी मुकदमें फंसाया गया था। वर्तमान पुलिस अधीक्षक रामकुमार के कार्यकाल के दौरान कई पत्रकारों को खबर लिखने के कारण पुलिस के कहर का कोपभाजन बनना पड़ा है। और कुछ को फर्जी मुकदमों में फंसाया गया है। और वे आज भी कोर्ट में पेश होने के लिए मजबूर हैं। देश के राज्यों की राजधानियों से सुदूर के जिलों में प्रशासन की अराजकता और भ्रष्टाचार की जड़ें इस कदर गहरी हैं कि माफिया और दबंग ही राज कर रहे हैं। उनके खिलाफ आवाज उठाने वालों को प्रशासन सहित माफियाओं के कहर का कोपभाजन बनना पड़ता है। फिर भी गांवों और छोटे शहरों के खबरनवीस पत्रकारिता के लिए बिना पगार और अथॉरिटी के खबरों का संकलन करते हैं और मीडिया हाउसेस को देते हैं। बावजूद इसके मीडिया हाउसेस का विज्ञापन और प्रसार के लए दबाव बना रहता है। कुछ मीडिया हाउसेस ने तो अब एक नया फंडा अपनाया है। शहरों से लेकर गांवों के खबरनवीसों तक से खबर इकट्ठा करवाने और कुछ खर्च देने से पहले बकायदा एक शपथ-पत्र के साथ एक फार्म भरवा ले रहे हैं जिसमें साफ-साफ लिखा होता है कि आप मीडिया हाउस के लिए खबरों का संकलन अपने शौक के लिए कर रहे हैं। और आप मीडिया हाउस का इम्प्लाई होने का दावा नहीं करेंगे। यदि किसी खबर पर कोई कानूनी केस बनता है तो उसका हर्जाना आप खुद वहन करेंगे। इसके लिए कंपनी जिम्मेदार नहीं होगी। ऐसा ही छोटे शहरों के टीवी पत्रकारों के साथ भी होता है। सारे विपरीत परिस्थितियों के बावजूद छोटे शहरों और गांवों के पत्रकारों ने हार नहीं मानी है और शहरों के पत्रकारों से कहीं ज्यादा मेहनत करके बिना पगार वाले ये खबरनवीस पत्रकारिता की बुनियाद को बचाये रखें हैं। लेकिन जिस प्रकार से मीडिया हाउसेस बड़े शहरों के पत्रकारों की तुलना में गांवों और छोटे शहरों के पत्रकारों के साथ सौतेला व्यवहार कर रहे हैं। उससे पत्रकारिता फीकी पड़ती जा रही है और गांवों और छोटे शहरों में अच्छे पत्रकारों की कमी होती जा रही है। साथ ही साथ पीत-पत्रकारिता के रुतबे में बढ़ोत्तरी हो रही है। परिणामस्वरूप छोटे शहरों और गांवों में जुल्म और उत्पीड़न के चलते आम आदमी की सिसिकयां दबती चली जा रही हैं। मीडिया हाउसेस के संचालकों और उनके प्यादों को देश के चौथे स्तंभ के इस पहलू पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत आ पड़ी है।
परिचय : शिवदास जमीनी स्तर की पत्रकारिता को अपने पसीने से सींचते हुये बेबाकी से लिख रहे हैं।
journlism is a mission not profession.
Journalism is a mission not profession well … since without Media Houses these journalist will not achieve their proper goal or target. Due to this reason the poor journalist, without much name and fame are generaly being blackmailed by Media Houses because they have very polished professionals.