हार्ड हिट

चित बेजान करने वाला शब्द पलायन- भाग 2

संजय मिश्रा
पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि उनके राज्य में कृषि कार्य के लिए मजदूरों की कमी हो गयी है। इतना कहना था कि बिहार के सत्ताधारी नेताओं की बाछें खिल उठी। बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री ने दावा किया कि राज्य से खेतिहर मजदूरों का पलायन कम हो रहा है। बादल के बयान के एक दिन बाद यानि 5 मई को बिहार के प्रमुख हिन्दी अखबार में लीड खबर आई — ” बिहार से थमा पलायन “। बिहार के मुखिया ने तो इतना तक कह दिया कि राज्य के पुनर्निर्माण में इन मजदूरों का सहयोग मिल रहा है। बादल के बयान पर जिस अंदाज में नेताओं ने प्रतिक्रिया दी उसमे आपाधापी तो थी लेकिन उसका स्वर सहमा हुआ था। बीते अगहन की ही बात है जब दरभंगा के हायाघाट इलाके से मजदूरों का एक जत्था पंजाब गया। लगभग दो महीने तक ये मजदूर फसल काटने की आस में वहाँ जमे रहे….लेकिन उन्हें काम नहीं मिला। साथ में जो जमा-पूंजी थी ….. खोरिस में चली गई। हताश….बेहाल ये मजदूर अपने गाँव लौट आये। आपको ये जान कर ताज्जुब होगा कि इन मजदूरों की आप-बीती उसी अखबार में प्रमुखता से छपी थी …….जिसने पलायन थम जाने की खबर दी। इन दोनों ख़बरों के बीच तीन महीने का फासला। तीन महीने में ऐसा क्या हो गया कि पलायन की समस्या हल होने के दावे होने लगे ? दरअसल, पलायन की चर्चा होते ही दावे किये जाते हैं, लेकिन उसके पीछे की दृढ़ता का साहस कोई नहीं दिखा रहा। इस तरह का दावा तभी किया जाता है जब कहीं से कोई ” फेवरेबल ” बयान आ जाए। क्या बिहार सरकार के पास पलायन करने वाले मजदूरों का सही-सही आंकड़ा है ?

बादल को बिहार से होने वाले पलायन की कितनी समझ है ये कहना मुश्किल है । हर सीजन में … ये संभव है कि पंजाब के किसी इलाके में बिहारी मजदूर अधिक संख्या में पहुंच जाते हैं तो दूसरे इलाके में इनकी संख्या कम पड़ जाती है। इनके पंजाब जाने का सिलसिला सालों से जारी है। इस दौरान नियमित पंजाब जाने वालों को दिल्ली में अवसर दिखा और इनकी अच्छी-खासी तादाद पंजाब के बजाय दिल्ली में अटकने लगी। खेतिहर मजदूर…मजदूर बनते गए। पंजाब के किसानो की चिंता बढ़ी। नतीजतन कृषि मजदूरों को लाने के लिए पगड़ीधारी सिख सीधे बिहार के गाँव पहुँचने लगे। ये सिलसिला उस समय शुरू हुआ जब दिल्ली में बिहारियों की इतनी भीड़ नहीं हुई थी। बाद के समय में बिहार के अधिकांश गाँव में मजदूरों को पंजाब और अन्य जगह ले जाने वाले एक नए वर्ग का उदय हुआ जिन्हें ” ठेकेदार” या ” दलाल “कहा जाता है।

जब दिल्ली में भी अवसर ” सेचुरेट ” होने लगे तो इन मजदूरों ने गुजरात में ठौर ली। पंजाब और मुंबई की हिंसक वारदातों ने इस प्रक्रिया को गति दी है। अब पंजाब और दिल्ली का अधिकांश ” लोड ” गुजरात उठाने लगी। इस राज्य में शहर-दर-शहर बिहारी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती है। नए अवसर की तलाश ने इन मजदूरों की प्राथमिकता यहीं तक सीमित नहीं रहने दी।

शुरू-शुरू में दक्षिन भारत में इनका जाना नहीं हो पाया। भाषा की समझ नहीं होना आड़े आया। लेकिन देश के इस हिस्से में भी इन मजदूरों ने पैठ बना ली है। हैदराबाद-विजयवाड़ा हाइवे पर पहाड़ की गोद में बसे रामोजी फिल्म सिटी में बिहारी मजदूर मिल जाएं तो आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए। आंध्र-प्रदेश के निर्माण उद्योग में इनकी अच्छी-खासी संख्या लगी है। कर्णाटक और केरल के प्लान्टेशन उद्योग में भी इनकी पहुँच बनी है। मजदूरों के ठेकेदार भाषा की समस्या से इन्हें निजात दिलाया। धीरे-धीरे बिहारी मजदूर तमिलनाडू में भी दस्तक दे रहे हैं।

बिहार के मजदूरों को पंजाब के किसान सेल फोन सहित अन्य सुविधाएँ देंगे …… इस खबर की चहुँ ओर चर्चा हो रही है। इस शोर में केरल की सरकार की ओर से बाहरी मजदूरों के लिए कल्याण बोर्ड बनाने की खबर दब सी गई। केरल ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्य सरकारें समय समय पर इन मजदूरों के हित के लिए चिंता जताती रहती हैं। इनके कल्याण के कई कदम उठाए भी गए हैं।

दरअसल, पलायन पर ये चौथी धारा के विमर्श का प्रतिफल है। ये समझ दिल्ली में विकसित हुई जिसके पैरोकार एनजीओ से जुड़े लोग और सोसल एक्टिविस्ट हुए। इसके तहत ये राए बनी कि ये मजदूर दिल्ली ( या ये जहाँ भी कमाने जाते हैं ) के लिए ” दाग ” नहीं हैं बल्कि इनका ” असिस्टिंग रोल ” उस जगह की समृधि का बाहक हैं। इनके रहने की जगह यानि झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़ने की जगह उनमे बुनियादी सुविधाएं बधाई जाए। सुविधाएं बढ़ने से ये मजदूर अधिक उत्पादक साबित होंगे….ऐसा इस धारा के लोगों का मानना था। असल में ” ल्यूटिन दिल्ली ” के दायरे में आने वाले सभी झुग्गी बस्तियों को राज्य सरकार हटाना चाहती थी। आखिरकार उद्योगों को एनसीआर में धकेलने के बाद ल्यूटिन दिल्ली को “स्लामिश लुक” से लगभग मुक्त कर दिया गया। मजदूरों को सुविधाएं देने की वकालत इनके जरूरी ” प्राडक्ट ” बन जाने की कथा भी कहता है। मजदूर अब “स्किल्ड” हैं लिहाजा उनकी अवहेलना संभव नहीं….उलटे मजदूरों के ” पेशेवर ” बनते जाने की आहट है ये। बिहार के सरकारी महकमे के लोग अच्छी तरह जानते हैं की उनके प्रयासों की बदौलत ये स्थिति नहीं आई है। दरअसल मजदूरों की सुध लेने में उनकी दिलचस्पी है भी नहीं ….. सेल फोन मिलने की घटना पर खुशी का इजहार कर वे बस इतना जताना चाहते हैं कि ये सब पलायन थम जाने का नतीजा है। लेकिन मई महीने में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई त्रासद भगदड़ और ऐसी ही अन्य घटनाएं उन्हें बार-बार याद दिला जाती हैं कि ” पलायन थम गया ” की जुगलबंदी के लिए फिलहाल स्पेस नहीं है।

दिल्ली सरकार ने ये फैसला लिया कि कामगारों को अब प्रतिदिन कम से कम 200 रूपये मजदूरी मिलेंगे। ये फरमान लागू हो चुका है। इसने बिहारी मजदूरों को राहत तो दी है लेकिन मुस्कान नहीं। ये उनकी अदम्य इच्छा शक्ति और जीवन संघर्ष की मौन स्वीकारोक्ति का नतीजा माना जा सकता है।विदर्भ के किसानो की आत्महंता कोशिशों की बजाए बिहारी मजदूरों ने अलग राह पकड़ी । ये सफ़र आसान नहीं रहा है। वो जानते हैं कि दिल्ली ” मायावी ” भी है और उसकी ” क्रूरता ” का इतिहास भी पुराना है। यहां इनकी आबादी 40 लाख के करीब है फिर भी ” बिहारी” कह कर दुत्कारे जा रहे हैं। इस शब्द के साथ जिस हिकारत का भाव झलकता है वो ” हिन्दू” शब्द की उत्पत्ति की याद दिला जाता है। जब अरब दुनिया के लोग काफी विकसित हुए तो वहां जाने वाले सिन्धु नदी के पूरब के लोगों को ” हिन्दू” कह कर चिढ़ाया जाता …. गंवाद कह कर उनका उपहास किया जाता।

पलायन के साथ पारिवारिक बिखराव की गाथा जुड़ जाती है । कुछ मजदूर तो बिछोह के साथ प्रवास में समय बिताते वहीं कई लोग परिवार साथ ले आते हैं। जो अकेले हैं उन्हें गाँव की चुनौती से मुकाबला करते रहना होता है…जबकि दिल्ली में परिवार के संग रहने वालों को कमाने के संघर्ष के साथ घर की महिलाओं के शारीरिक शोषण कि चिंता सताती रहती है। जाहिर सी बात है इनका बसेरा बाहरी इलाकों में होता है जहां पीने का पानी भी जुटाने के लिए इनकी महिलाओं को दूर जाना होता है। ऐसे मौके गिद्ध दृष्टी वालों के लिए मुफीद होते। सीमा पूरी, करावल नगर, खजूरी, बुराड़ी, विनोदगर, मंडावली, पटपडगंज, खोदा, उत्तम नगर, नागलोई, नजफ़ गढ़, पालम, संगम विहार, महरौली, सरूप नगर, नोएडा, फरीदाबाद, गांधी नगर, खुरेजी, आजादपुर, और शकूर बस्ती जैसे इलाके शारीरिक शोषण की ऐसी अनेक दास्तानों को दफ़न करते हुए मौजूदा आकार में आई हैं। इन इलाकों में रहने वाले मजदूरों को अब बुनियादी सुविधाएं मिलने लगी हैं। चौथी धारा की सोच और प्रवास की क्रूरता के बीच द्वंद्व जारी है।

बेढब जिन्दगी में तारतम्य बिठाते इन मजदूरों को मालूम है कि बिहार उन्हें बुलाएगा नहीं…उनकी आस अपनी अगली पीढ़ी की सफलता पर टिकी है।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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3 Comments

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