
जब सफर आँखों से करता हूँ (कविता)
हास्य कवि “आवारा जी “//
जब सफर आँखों से करता हूं तो
, निशाने पर मंजिले जिस्म रखता हूं
सब जानते है “आवारा” ऐसे सफर में
,खैरात दीदार- ए- दरारों की मिल ही जाती है
एक चाह रहती है कुछ और मिल जाये
कसम से कुछ और दिख जाये
चलता हू जब भी आँखों से
हस्ती “आवारा ” की आबाद रखता हूं
दुपट्टो के झराको से झांकती उन कयामत उभारो को
बस आँखों के गलियारे से चलाकर दिल के पिंजरे में कैद रखता हूं
मुझे मालूम है झुकती नहीं वो भी यु ही अकेले में
ऐसियो को ताड़ने की खतिर हमेशा तैयार रहता हूं
मेरी आंखे आज कल उदास रहती है
क्यूंकि लडकिया ..आज की बिंदास रहती है
एक दौर था जब कमसिनों पर पर्दों का पहरा था
आज तो बिन कपड़ो के ये ..आज़ाद रहती है
मुझे मालूम है वो दौर भी जल्द ही आयेगा
जब आंख उन पुराने सफ़र को बस सपनो में पायेगा
बस यही कहना है इन आँखों का इन बदलती बालाओ से
एक हद के बाद बेसरमियत ,शर्म की नहीं वफादार रहती है