तीसरा मोर्चा और मुलायम की पुरानी चाहत
राजनीति में वह ताकत है जो होनी को अनहोनी और अनहोनी को होनी में बदलने का माद्दा रखती है। राजनीति में कभी कोई स्थाई विरोधी और स्थाई दोस्त नहीं होता। कब क्या होगा यह कोई नहीं जानता। कल तक एक दूसरे की आलोचना करने वाले राजनेता कब एक दूसरे का समर्थन करने लगें इसे भी कोई नहीं जानता। लेकिन इतना जरूर है कि राजनीति अवसरों को भुनाने का सुपर एक्शन खेल है। जो इस खेल के हर बिशात को समझ जाता है केन्द्रीय राजनीति की चाभी उसी के हाथ में होती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव राजनीति के इस खेल के एक ऐसे ही खिलाड़ी हैं जिसकी हर चाल के अपने आप में एक अलग मायने होते हैं। वो कब किस के साथ होंगे ये समझना किसी के बस की बात नहीं होती। वक़्त से साथ अपने रुख को कैसे कठोर और मुलायम करना है ये मुलायम सिंह यादव से बेहतर भला कौन समझ सकता है? यही कारण है कि कल तक कांग्रेस के संकटमोचक रहे मुलायम आज उसके लिए चिंता का विषय बन गए हैं। दरअसल मुलायम सिंह की खासियत ही यही है कि वे जब भी अपनी चाल चलते हैं तो हुकुम का इक्का अपने हाथ में रखते हैं। यही कारण है कि क्या साथी और क्या विरोधी? सभी सब कुछ जान कर भी मुलायम का खुला विरोध नहीं कर पाते। मौजूदा दौर में कांग्रेस अपनों में उलझी है एक-एक करके उसके सभी साथी उसका साथ छोड़ रहे हैं, ऐसी स्थिति में कांग्रेस के पास अपनी सरकार बचाने के लिए सिवाए सपा की बातों को मानने के आलावा कोई चारा नहीं है। हलाकि बसपा एक विकल्प के तौर पर है लेकिन कांग्रेस अच्छी तरीके से जानती है कि सिर्फ बसपा के दम पर वो अपनी सरकार नहीं बचा पायेगी इसलिए वो सपा की हर जायज ना-जायज बातों को मान रही है। जिसकी बानगी पिछले दिनों देखने को मिली जब बेनी के बयान पर सपा ने लोकसभा में हंगामा किया और उनके इस्तीफे की मांग की। सपा अच्छी तरह से जानती थी कि अपने सहयोगियों से परेशान कांग्रेस हर कीमत पर सपा को मनायेगी कि वो बेनी के इस्तीफे की मांग छोड़ दे और हुआ भी यही चलते सदन में कांग्रेस प्रमुख ने मुलायम के पास जाकर उनसे बेनी के इस्तीफे की मांग न करने का अनुरोध किया जिसे सपा प्रमुख ने मान लिया। वस्तुतः बेनी का इस्तीफा तो सपा भी नहीं चाहती थी, सपा तो ये बताना चाहती थी कि तुम क्या तुम्हारी पार्टी प्रमुख भी हमारे सामने झुकेगी जो उसने कर दिखाया।
अगले साल लोकसभा के चुनाव होने हैं या मुलायम के शब्दों में कहे तो इस वर्ष अक्तूबर से लेकर दिसंबर के बीच में चुनाव होने हैं। राजनीति के मंजे खिलाड़ी मुलायम ये बात अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि मौजूदा दौर कांग्रेस और भाजपा दोनों के खिलाफ है एक तरफ जहाँ आम जनता कांग्रेस की महंगाई और भ्रष्टाचार से उबी है तो वहीं दूसरी अल्पसंख्यक वर्ग भाजपा के मोदी प्रेम के चलते उससे अलग हो जायेगा। ऐसे में उन्हें अपनी बरसों पुरानी हसरत पूरी होती दिख रही है। हसरत इस देश का प्रधानमंत्री बनने की। उन्हें लग रहा है कि अगर इस मौके को भुनाया जाये तो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुचना आसन होगा। मुलायम जानते हैं कि प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना तीसरे मोर्चे की सरकार आने पर ही पूरा हो सकता है इसलिए वो लगातार जनता के सामने तीसरे मोर्चे को विकल्प के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। मुलायम की इस कोशिश में बाधक उत्तर प्रदेश में स्थापित उनकी अपनी ही सरकार है। मुलायम पुत्र अखिलेश के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में स्थापित सपा सरकार पिछले एक सालों में कानून व्यवस्था के मुद्दे पर पूरी तरह से नाकाम रही है।
मुलायम की दृष्टि यू.पी. की बिगड़ती कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार से उपजी सरकार विरोधी आवाजों को पहचान रही है। वे अच्छी तरह जान गए हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव सपा के लिए सरल नहीं हैं। यदि यही स्थिति रही तो उनकी हार निश्चित है। वे यह भी जानते हैं कि चुनाव की दृष्टि से केन्द्र सरकार की नाकामियों, भ्रष्टाचार और घोटालों के कारण कांग्रेस की स्थिति दयनीय है। पिछले साल हुए यू.पी. विधानसभा चुनावों में युवराज राहुल गांधी के धुआंधार प्रचार के बाद भी कांग्रेस की शर्मनाक पराजय को भी वे अच्छी तरह जानते हैं। वे यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि राज्य की बिगड़ती कानून व्यवसथ के चलते वर्तमान में यू.पी. में भाजपा की स्थिति मजबूत होती जा रही है और सपा के खिलाफ बड़ा चुनवी मुद्दा भाजपा के हाथ में है जिसका लाभ भाजपा को लोकसभा चुनावों में मिलना तय है। इस लिए वो अपने बरसो पुराने हथियार सम्प्रद्यिकता पर वापस लौट आये हैं। वो लगातार ऐसी बयानबाजी कर रहे है जिसका सीधा असर मुस्लिम वोट बैंक पर हो।
इसी क्रम में उन्होंने उतर प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था को मीडिया का दोगलापन करार देते हुए उसे दिल्ली और गुजरात की कानून व्यवस्था से जोड़ते है। वस्तुतः मुलायम की यह पैंतरेबाज़ी एक तीर से दो निशाने लगाने वाली है। एक तरफ जहाँ वो दिल्ली की कांग्रेस सरकार के खिलाफ बने महौल को भुनाना चाहते हैं वो वही दूसरी तरफ गुजरात को जोड़कर मुस्लिम मतदाताओ में ये जता रहे हैं कि किस तरह मीडिया जान बूझकर साम्पदायिक शक्तियों को मजबूत कर रही है। उनकी कोशिश है जितनी जल्दी हो सके सम्प्रद्यिकता की धार को प्रदेश में इतना मजबूत कर दो कि आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा के खिलाफ बिगड़ती कानून व्यवस्था को विपक्ष चुनावी मुद्दा न बना पाए । वो चाहते है कि उत्तर प्रदेश का लोकसभा चुनाव साम्प्रदायिकता के ऐसे चूल्हे पर सेका जाये जहाँ से उत्तर प्रदेश के मुलिस्मों के वोटों को पूरी तरह से सपा के लिए केन्द्रित किया जा सके। अब देखना ये होगा कि प्रदेश में साम्प्रदायिकता को मजबूत करने की मुलायम की ये कोशिश लोकसभा चुनाव में क्या गुल खिलाती है? और मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश से सपा के लिए कितनी सीट निकाल पाते हैं ?
रही बात मुलायम के तीसरे मोर्चे की, तो ये कोई पहली बार नहीं हो रहा जब तीसरे मोर्चे को राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनैतिक विकल्प बनाने के प्रयास किये जा रहे हों इससे पहले भी कई बार तीसरे मोर्चे को राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनैतिक विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिशे वामपंथी दलों विशेषकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में की गयी जो हर बार विफल रही। तीसरे मोर्चे के गठन की अब तक कवायद पर गौर करें तो पता चलता है, जब भी इस तरह की जब भी कोई कोशिश हुई, वो कोशिश मुह के बल गिरी। 1996 में जब अटल सरकार अल्पमत में आ गयी तो वामपंथी पार्टियों ने छोटे दलों को जोड़ कर तीसरे मोर्चे का गठन किया। कांग्रेस और सी.पी.एम ने इस मोर्चे को बाहर से समर्थन दिया जबकि प्रमुख वामपंथी पार्टी सी.पी.आई सरकार में शामिल हुई और एच.डी देवगौड़ा के नेतृत्व में केंद्र में तीसरे मोर्चे ने सरकार बनायीं किन्तु देवगौड़ा के नेतृत्व में बनी सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पायी और देवगौड़ा की जगह पर तीसरे मोर्चे ने इंद्र कुमार गुजराल को देश का प्रधानमंत्री बनाया पर गुजराल की सरकार भी ज्यादा नहीं चल पायी और तीसरे मोर्चे की यह सरकार लगभग दो साल के कार्यकाल में ही सिमट कर रह गयी। वर्तमान दौर में मुलायम की जो तीसरे मोर्चे को स्वरुप में लाने की चाहत उभरी है वो वस्तुतः 1996 की इसी घटना की देन है जब एच.डी. देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद लेफ्ट के सपोर्ट से मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद के बेहद नजदीक पहुंच गए थे पर अपने ही समाजवादी नेताओं की यादवी लड़ाई में मुलायम उस समय पीएम बनते-बनते रह गए और आइ.के. गुजराल पीएम बन गए। अप्रैल 1997 की वो कसक सपा प्रमुख के दिल में अभी तक है और उन्हें लगता है कि अब वो समय आ गया जब उनका 15 साल पुराना सपना पूरा हो सकता है। इसीलिए वे राष्ट्रीय स्तर पर इस कोशिश में लगे हैं कि सभी छोटे दलों को मिलाकर तीसरे मोर्चे का गठन किया जाये। हलाकि तीसरे मोर्चे के गठन की सम्भावना काफी कम दिखती है, क्योकि संभावित रूप से तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाले दलों की अपनी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा है लेकिन फिर भी चुकि राजनीति अंतहीन समझौतों और संभावनाओं का खेल है इसलिए अभी से कुछ भी कहना सही नहीं होगा।
पर इतन तय है कि तीसरा मोर्चा की सरकार न आने की स्थिति में भी मुलायम सत्ता के लिए अपना मोह नहीं छोड़ पाएंगे और जरुरत पड़ने पर वो भाजपा के साथ भी जायेंगे जिसका इजहार वो आडवानी प्रेम के रूप में कर चुके हैं।
अनुराग मिश्र
स्वतंत्र पत्रकार
लखनऊ
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