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…. तो फिर इतने बड़े पैमाने का उत्सव क्यों?

संजय मिश्र

” सच्चिदानंद सिन्हा बाय द नाइन गौड्स ही स्वोर, दैट इव द इयर वाज ओवर , ही सुड बी अ जज एट बांकीपुर । “इस कविता में बिहार निर्माता सच्चिदानंद सिन्हा का यशोगान है। ये ‘ कोप्लेट ‘ साल 1910 में लिखी गई। लेकिन 22 मार्च, 2011 के दिन जब गांधी मैदान में बिहार दिवस को लेकर भव्य आयोजन किया गया तो उस इतिहास पुरुष का कोई नामलेबा नहीं था। जिन्हें सत्ता के खेल की बारीक समझ है , वे भी , उन्हें भुला दिए जाने पर हैरान हुए। क्या ये सच्चिदानंद ब्रांड बिहारीपन युग के अंत का उदघोष है?

22 मार्च को ही, उसी बांकीपुर में, एक नए नायक की जय-जयकार हो रही थी। गांधी मैदान के मुख्य समारोह स्थल पर मौजूद सरकारी लोग ये समझाने की कोशिश में लगे थे की नए युग का आगाज हो चुका है और इसके सूत्र-धार नीतीश कुमार हैं। उत्सवी माहौल का लुत्फ़ उठाने आये आम-जन समारोह स्थल के बीच खड़ी सुनहरे रंग की स्त्री की प्रतिमा को जतन से निहार रहे थे। किसी को मेनहटन के सामने खड़ी “स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी” याद हो आई तो कोई सभा-मंच से हो रहे भाषण के मजमून से, इस स्त्री की आकांक्षा का मिलान करने में मशगूल था। कितने ही चेहरे आश्वस्त हो जाना चाह रहे थे की ये मूर्ति नए बिहार के उदय का प्रति-बिम्ब हो। क्या, सचमुच मुक्ति की गाथा के सपने वहाँ बुने जा रहे थे ? किस दुविधा से मुक्ति चाहिए बिहार को?

जब से बिहार दिवस की तैयारियों ने जोर पकड़ा, तभी से बिहारी उप-राष्ट्रीयता , बिहारीपन और बिहारी अस्मिता जैसे शब्दों की अनुगूंज सुनाई देने लगी। कई लोगों का मानना है कि बिहारीपन का भाव प्रबल नहीं है जिस कारण राज्य में पिछड़ापन है। सरकार दावा करती है कि उसने बिहारी सोच को जगा दिया है और हमें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। सवाल उठता है कि जब बिहारी अस्मिता पर गर्व करना लोगों को आ गया है, तो फिर इतने बड़े पैमाने का उत्सव क्यों?
खै , पूरे राज्य में उत्सव मनाया जा रहा है और साल भर ऐसे आयोजन होते रहेंगे। बिहार के सौवें साल का जश्न है ये। निश्चय ही इससे पहले इतने बड़े आयोजन नहीं हुए। बिहार के जीवन में ये नया ‘एलीमेंट’ है। ख़याल है कि इससे ‘ सेन्स ऑफ़ बिलोंगिंग ‘ पुख्ता होगा। लेकिन राज्य के दूसरे शहरों से जो जानकारी मिली उसके मुताबिक़ समारोह स्थलों पर लोगों से अधिक कुर्सियां नजर आई। जो टीवी चैनलों के सहारे इस जश्न में शरीक होना चाहते थे उन्हें बिजली की बाधित आपूर्ति ने निराश किया।

जन-सहभागिता की इस तल्ख़ वास्तविकता के बाद रुख करें गांधी मैदान का। सरकारी सभा-स्थल पर सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता विराजमान थे। विपक्ष के बड़े नेताओं को बुलाने की जहमत नहीं उठाई गई। ऐसे मौकों पर अन्य राज्यों में विपक्षी नेता को बुलाने का प्रोटोकॉल है। मंच पर स्वास्थय मंत्री अश्विनी चौबे मौजूद थे जिन्हें फिरौती नहीं देने पर जान से मारने की धमकी मिली हुई है। लेकिन नीतीश अपनी उपलब्धियां गिनाने में लगे थे। एक अन्य समारोह में उन्होंने विशेष राज्य की मांग दुहरा दी।

सरकार मानती है कि विकास हुआ है इसलिए बिहारी होने पर जनता गर्व कर रही है। वो कहती है कि विशेष राज्य का दर्जा मिलने से राज्य का और विकास होगा नतीजतन बिहारीपन की भावना दृढ़ होगी। सरकार के साथ मीडिया का दुराग्रह भी सामने है जिसे बिहारीपन के विशेष राज्य की मांग में तब्दील होने में कोई राजनीति नहीं दिखता। ऐसे पत्रकारों का आग्रह है कि उत्सव के इन अ-विस्मारनिए पलों में डूब जाएँ सब। उन्हें अहसास नहीं कि इस कोशिश में वे नीतीश के गुण-गान को ही पराकाष्ठा पर पहुंचा रहे हैं। ये पत्रकार लगातार इस बात को उछाल रहे हैं कि बिहारी मेहनती, मेधावी और देश को नई राह दिखाने वाले होते हैं। क्या बिहारी मीडिया का ये वर्ग जताना चाहता है कि दूसरे प्रदेशों के लोग काहिल, भुसकोल, और सामाजिक बदलाव को समझने में नाकाबिल होते हैं?
बेशक, बिहार में बदलाव हुए हैं। लेकिन इसे अतिरंजित करने में मीडिया झूठ का सहारा भी लेता है। एक उदाहरण काफी होगा। बालिका साइकिल योजना को बिहार की देन बता कर प्रचारित किया जाता है। जबकि असलियत ये है कि ऐसी योजना छतीसगढ़ में पहले से अमल में है। मीडिया के इस फरेब से आत्म- गौरव कितना मजबूत होगा ….ये तो वही जाने।

 गांधी मैदान में जिस मंच से नीतीश का संबोधन चल रहा था उस पर बिहार दिवस का ‘ लोगो’ अंकित था जिसके नीचे लिखा था–‘ हमारा बिहार ‘। ये दो शब्द सरकार की ओर से बिहारीपन की ब्रांडिंग के लिए बनाए तीन सूत्रों का हिस्सा हैं। लेकिन लोगों के जेहन में तो ब्रांड के रूप में उस सुनहरी स्त्री की आकृति बस गई जो उनकी आकांक्षा को रिफ्लेक्ट कर रही थी। नीतीश ने भी इस प्रतिमा को बड़े गौर से देखा …. जो शायद सवाल कर रही थी कि – हमारा बिहार – कब – अपना बिहार- बनेगा।
सच्चिदानंद की प्रशंसा वाली कविता को एक बार फिर पढ़ें—-ख़ास कर इसके अंतिम लाइन को। जी हाँ , यहाँ सत्ता और स्वार्थ की गंध है । आज के बिहारी नायक इसे जरूर याद रखें…वरना फिर कोई प्रतिमा ‘ बांकीपुर ‘ में लगी होगी जो … किसी युग के अंत का गवाह बनेगी।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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