रूट लेवल

दलितों को दलित बनाए रखने की होड़

आजादी के 66 वर्ष गुजर जाने के उपरांत महात्मा गाँधी के हरिजनों और बाबा अंबेडकर के दलितों को जाति व्यवस्था में बराबरी पर लाने हमारी सारी राजनैतिक अवधारणायें बेतुकी व हास्यास्पद साबित हुई है। क्योकि अब भी देखा गया है की इन दलितों को स्कूलों, कार्यस्थलों, सेवाओं, राजनीतिक दायरों, प्रार्थना स्थलों, स्वास्थ्य व्यवस्थाओ व सामाजिक अनुष्ठानो में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जबकि संवैधानिक लिहाज से सबको समानता का अधिकार प्राप्त है। बहरहाल भारतीय जनमानस से भेदभाव के विभेद को मिटने ऐसा कोई सिद्धांत भी दिखाई नहीं देता जिसका कठोरता से पालन हो व एक ही झटके में भेदभाव की रीढ़ टूट जाये। परन्तु यह भी संभव नहीं क्योकि इस विभेद को मिटाना न तो हमारा राजनैतिक तंत्र चाहता है और न ही वह कथाकथित धर्मावलम्बी जो आज भी निरा मूर्ख पंडित को आदर देता है व विद्वान् दलित को भेदभाव के नजरिये से देखता है।

यहाँ तक कि दलितों के दलित बने रहने का अधिकांश श्रेय इन्हीं दलितों को जाता है जो अपने अधिकार की लड़ाई में शून्य साबित है। साथ ही इनकी दयनीय दशा के लिए समूचा तंत्र भी जिम्मेदार रहा है क्योंकि एक ओर जहाँ हमने इन दलितों को आरक्षण की आग में जलाकर इनपर आरक्षित कोटे को पूर्ण करने का धब्बा लगा दिया है तो वहीं दूसरी ओर आरक्षण से मिलने वाली तमाम सुविधाओं का इनपर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वे अब इन सुअवसरों को छोड़ना ही नहीं चाहते और इन दलितों की यह अवधारणायें शहरी क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी तेजी से फैलने लगी है। जिससे हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम नागरिक और संवैधानिक अधिकारों के विमर्श में अब किस तरह आगे बढे? चूंकि हम सभी यह अच्छी तरह से जानते है कि जाति व्यवस्था में गैरबराबरी को न केवल वैधता बल्कि धार्मिक स्वीकार्यता भी मिली हुई है जिसके परिणाम स्वरुप ही इस जातिगत भेद को सिध्दांतों और व्यवहारों में स्वीकारा जाता रहा है।

दरअसल आज भारत में आरक्षण की जमीनी हकीकत यह है कि आरक्षित व्यक्ति अपने आप को किसी भी परिस्थिति में सिध्द करने की चेष्ठा ही नहीं करता, वह स्वंय में पंगु बना रहता है जिससे समूचा समाज भी उसे दीनता के नजरिये से देखता है। जबकि इन दलितों से समाज के भेदभाव का एक कारण और सामने आया है जिसमें एक अनारक्षित वर्ग का व्यक्ति उस आरक्षित वर्ग के दलित व्यक्ति से तब और अधिक घृणा करने लगता है जब उसके अयोग्य होने के बावजूद भी कोटा आधारित पद या नौकरी उसे स्वीकृत कर दी जाती है। अन्यथा अनारक्षित वर्ग के साथ दलितों की दोस्ती भी देखी गई है।

भारत में भेदभाव की जड़े वर्षों से जमी हुई है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि पहले यह भेदभाव वर्ण व्यवस्था के आधार पर किया जाता था लेकिन वर्तमान समय में जहाँ समाज साक्षर हुआ है तब भी भेदभाव बढ़ा है परन्तु अब इसकी वजह कोई वर्ण व्यवस्था नहीं अपितु यह आरक्षण प्रणाली जिम्मेदार है। यदि भारत से इस भेदभाव के दायरे को हमेशा के लिए समाप्त करना है तो सबसे पहले आरक्षण के चेहरे को बदलना होगा साथ ही उन लोगों को दलित वर्ग से बाहर आकर समाज के सामने अपनी योग्यता सिध्द कर यह बताना होगा कि योग्यता किसी वर्ण, संप्रदाय या वर्ग विशेष की जागीर नहीं है। साथ ही उन्हें मिलने वाला आरक्षण महज एक राजनैतिक कूटनीति है जिसके आधार पर इन लोगों को दलित दर्शाकर वोट बैंक को बढाया जाता रहा है और इसी आरक्षण ने आजादी के 66 वर्ष गुजर जाने के उपरांत भी इन दलितों को पंगु बनाये रखा। लेकिन अब समय है स्वंय के साथ सामाज की कुप्रथाओ को बदलने का।

अक्षय नेमा मेख

09406700860

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button