दि लास्ट ब्लो ( उपन्यास,पार्ट-6)
यह दौर लालू यादव के उत्थान का दौर था। बिहार की राजनीति में एक हंसोड़ नेता की छवि के साथ लालू यादव की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी। पटना विश्वविद्यालय के कैंपस में एक रेडियो नाटक लोहा सिंह की खास संवाद अदायगी शैली में लोगों को हंसा-हंसाकर लोटपोट करते हुये लालू यादव छात्रों को गुदागुदा भी रहे थे और उनके दिलों दिमाग में सधे हुये अंदाज में पैठ बनाने की भी कोशिश कर रहे थे। पटना विश्वविद्यालय के तमाम कॉलेजों पर परंपरागत रूप से अगड़ी जातियों का दबदबा था। ऐसे में लालू यादव ने खुद के एक छात्र नेता के रूप में स्थापित करके इतना तो संकेत दे ही दिया था कि भविष्य में बिहार की राजनीति में अहम किरदार निभाने की काबिलियत तो वह रखते ही है।
कांग्रेस विरोध की आड़ में पिछड़ावाद बिहार की सियासत में तेजी से जड़ जमा रहा था। कांग्रेस के परिवारवादी सियासत के खिलाफ चौतरफा हमले हो रहे थे। सार्वजनिक मंचों से कांग्रेस और उसके खानदानवादी राजनीति पर हमला करते हुये एक विदुषक राजनीतिज्ञ वाली खास शैली से लालू यादव लोगों को खूब गुदगुदा रहे थे।
तकरीबन डेढ़ दशक पहले हुये जेपी आंदोलन ने वंशवाद के खिलाफ बिहार की राजनीतिक चेतना को पूरी तरह से झकझोर दिया था। 1977 में इंदिरा गांधी की सत्ता से बेदखली और फिर 1980 में वापसी के बावजूद बिहार में पिछड़ावाद की सियासत का एक आधार तैयार हो चुका था। राममनोहर लोहिया का पुराना नारा ‘सौ में नब्बे पिछड़ा है नब्बे भाग हमारा है’ पिछड़ों के बीच लगातार गूंज रहा था। व्यवहारिक स्तर पर पिछड़ावाद को रफ्तार देने के लिए जरुरत थी एक नेता की। इस कमी को लालू यादव ने सधी हुई चाल से पूरा कर दिया। समय को पहचानते हुये लालू यादव ने खुद को पिछड़ों के नेता के तौर पर मजबूती से पेश करना शुरु कर दिया और खासतौर से अहीरों की जमात जिसमें सत्ता की ललक जाग चुकी थी लालू यादव के इर्दगिर्द खड़ी होती चली गई। लालू यादव को अहीरों से ताकत मिली। या यह कहना बेहतर होगा कि लालू यादव ने बहुसंख्यक अहीरों को उनकी ताकत का अहसास कराते हुये एक मजबूत सियासी गिरोहबंदी शुरु कर दी। अगड़ी जातियों की दबंगई से खार खायी दूसरी पिछड़ी जातियां भी सत्ता में हिस्सेदारी की उम्मीद में इस गिरोह के साथ खड़ी हो गई। वीपी सिंह के नेतृत्व में पूरे देशभर में राजीव गांधी और कांग्रेस के खिलाफ लामबंदी शुरु हो गई। इसके साथ ही लालू यादव कांग्रेस के परिवारवाद के खिलाफ और मुखर होते चले गये। वीपी सिंह प्रधानमंत्री के ओहदे पर काबिज होने में कामयाब हो गये लेकिन जनता दल के अंदरुनी सियासत के दबाव में वह मंडल कमिशन को लागू करने के लिए बाध्य हो गये। इसके साथ ही पूरा देश धूं-धूकर चल उठा। इस अवसर का भी लालू यादव ने भरपूर फायदा उठाया और मंडल कमिशन के समर्थन में खुलकर खड़े होकर बिहार में अपने जनाधार और मजबूत करने में जुट गये।
बिहार में मंडल कमिशन के खिलाफ मोर्चा खासतौर से भूमिहारों ने संभाला। भूमिहारों के लड़के सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने लगे। इन प्रदर्शनों में राजपूत और लाला के बच्चे भी शामिल होते थे लेकिन इस स्वस्फूर्त काफिले का हरावल दस्ता भूमिहारों के लड़के ही बने। ये लोग सड़कों पर उतर कर वीपी सिंह के साथ- साथ लालू यादव के खिलाफ खूब नारेबाजी करते थे और लालू यादव भी एक सधे और मजे हुये नेता की तरह इनके खिलाफ रोज रोज कुछ न कुछ बयान देकर उनको खुद के खिलाफ लगातार मुहिम चलाने के लिए उकसाते रहते थे। जितनी उग्रता से लालू यादव का विरोध हो रहा था उतनी तीव्रता से समाज का एक वर्ग लालू यादव के इर्दगिर्द मजबूती से गोलबंद होता जा रहा था।
इस बीच अयोध्या में राममंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद की वजह से मुसलमानों का खेमा भी महफूज पनाहगाह की तलाश में लालू यादव के साथ हो लिया और देखते देखते लालू यादव एक अपराजेय सियासी ताकत की तरह प्रतीत होने लगे। बिहार की राजनीति उस वक्त पूरी तरह से लालू यादव के इर्दगिर्द घूम रही थी। लालू यादव बिहार की राजनीति की धुरी बने हुये थे। बिहार की सियासत में लालू यादव और अहीरो को केंद्र में रखकर तमाम जातीय जमातों के बीच संघर्ष और सामंजस्य के नये समीकरण बुने जा रहे थे। राजपूतों ने सियासी तौर पर यादवों के साथ गलबहियां कर ली थी, जबकि भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ विपरित दिशा में बह रहे थे। फ्रांस के क्रांतिपुत्र नेपोलियन बोनापार्ट की तरह बिहार के अपारेजय नेता लालू यादव को यह अहसास हो चुका था कि समाज को अपने हक में गोलबंद करना है तो विरोधी पैदा करो। इस काम को लालू यादव बखूबी अंजाम दे रहे थे और दूसरी ओर उनको उखाड़ फेंकने की कवायद भी अपने चरम पर थी।