दूसरे भोपाल गैस त्रासदी की जमीन हो रही तैयार
शिवदास
भोपाल गैस त्रासदी में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की कार्यवाही, मुंबई पोर्ट ट्रस्ट पर रखे सिलेंडर से क्लोरीन गैस का रिसाव। फिर वर्धमान (पश्चिम बंगाल) में दुर्गापुर स्टील प्लांट में गैस रिसाव से दर्जनों लोगों का झुलस जाना। ये सभी घटनाएं आम नागरिकों की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों की कार्यकुशता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं। भोपाल गैस त्रासदी की घटना में पीड़ित आज भी न्याय के लिए दर दर ठोकरे खा रहे हैं। इस मामले में देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका ने पीड़ितों को निराश ही किया है। इसके साथ ही इन तीनों स्तंभों ने देश के करोड़ों नागिरकों की भावनाओं को भी आहत किया है जो अपनी सुरक्षा के लिए राजनीतिक पार्टियों को देश की सत्ता चलाने के लिए बागडौर सौंपते हैं। गौर करने वाली बात है कि पूंजीपतियों के मानकविहीन औद्योगिक इकाइयों की कीमत आम नागरिकों को चुकानी पड़ती है। पीड़ित न्याय के लिए ठोकरे खाता है और घटना के जिम्मेदार व्यक्ति को कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका मिलकर देश से बाहर कर देते हैं। भोपाल गैस त्रासदी में करीब 26 साल बाद आए निचली अदालत के फैसले ने यहीं साबित किया है। आम नागिरकों की आशाओं पर देश का लोकतांत्रिक तंत्र खरा नहीं उतरा है। लोगों के दिल में आज भी अपनी सुरक्षा को लेकर भय बना हुआ है। मुंबई पोर्ट ट्रस्ट और दुर्गापुर स्टील प्लांट में गैस रिसाव की घटना ने इसे प्रबल कर दिया है। दोनों ही घटनाओं में घायल व्यक्तियों को कबतक न्याय मिलेगा यह कहना मुश्किल है, क्योंकि देश के सबसे विभत्स भोपाल गैस त्रासदी की घटना में निचली अदालत से फैसला आने में ही 26 साल लग गए। इसके बावजूद, मामले का मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन देश की कानून व्यवस्था से बाहर है।
देश की इस लचर कानून व्यवस्था का फायदा सिर्फ विदेशी पूंजीपति ही नहीं उठा रहे, बल्कि देश के वे सभी पूंजीपती उठा रहे हैं जो अधिकाधिक लाभ कमाने के चक्कर में नौकरशाहों की मिलीभगत से मानकविहीन औद्योगिक इकाइयों की स्थापना और संचालन करते हैं। ठेकेदारी प्रथा और भ्रष्ट नौकरशाही के कारण सार्वजिनक क्षेत्रों की औद्योगिक इकाइयों में भी सुरक्षा मानकों की अनदेखी बड़े पैमाने पर मिल रही है। मुंबई पोर्ट ट्रस्ट और दुर्गापुर स्टील प्लांट की घटना इसकी बानगी मात्र है जहां आम आदमी के हितों के साथ खिलवाड़ किया गया था। निजी कंपनियों के मामले में सुरक्षा मानकों की अनदेखी और भी बड़े पैमाने पर है। आदिवासी बहुल पिछड़े एवं नक्सल प्रभावित इलाकों में कारपोरेट घरानों की औद्योगिक इकाइयों की स्थापना और संचालन में सुरक्षा मानकों की अनदेखी और भी बड़े पैमाने पर देखने को मिल रही है। भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से औद्योगिक इकाइयों को पर्यावरणीय सहमति अथवा अनापत्ति प्रमाण पत्र दिलाने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जिला प्रशासन जनसुनवाई करता है लेकिन जन सुनवाई के दौरान शासनादेशों की जमकर धज्जियां उड़ाई जाती हैं। इसका विरोध करने पूंजीपति और जिला प्रशासन आम जनता की आवाज को कानून के शिकंजे में जकड़कर दबा देते हैं। पूंजिपतियों के खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाने के लिए पूंजीपतियों की शह पर शासन के नुमाइंदों ने एक नई तरकीब इजात की है। आदिवासी बहुल इलाकों, जहां पर कारपोरेट घरानों की औद्योगिक इकाइयां स्थापित हो रही हैं या होने वाली हैं, को नक्लप्रभावित घोषित कर दिया है,जिसके कारण प्रशासन के नुमाइंदों को पूंजीघरानों के खिलाफ उठाने वाली आवाज को दबाने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती। अपने को सभ्य समाज का प्रतिनिधि बताने वाले भी शासन-प्रशासन के इस करतूत को ठीक बताते हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल इलाके इसका ज्वलंत उदाहरण हैं, जहां सैकड़ों गरीब आदिवासियों को फर्जी पुलिस मुठभेड़ों में मार दिया गया। सैकड़ों को फर्जी मुकदमों में फंसाकर जेलों में ठूंस दिया गया। इन इलाकों की सच्ची तस्वीर जानने के लिए सबसे कम नक्सल प्रभावित राज्य उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल जनपद सोनभद्र पर गौर करते हैं। सोनभद्र उत्तर प्रदेश शासन की ओर से सबसे नक्सल प्रभावित जनपद घोषित है। सोनभद्र (4 मार्च 1989 से पहले मिर्जापुर )में औद्योगिक कल-कारखानों की शुरूआत 1950 के दशक में चुर्क सीमेंट फैक्ट्री की स्थापना के साथ हुई। 12 जुलाई 1954 को चुर्क सीमेंट फैक्ट्री के उद्घाटन अवसर पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि यह स्थान भारत का स्वीटजरलैंड बनेगा। नेहरू की घोषणा समय के साथ झूठी साबित होती गयी। यह स्थान स्वीटजरलैंड तो नहीं बन सका लेकिन मानकविहीन औद्योगिक इकाइयों की स्थापना से भोपाल बनने की ओर अग्रसर जरूर हो गया है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की मानें तो यह क्षेत्र देश के 42 सबसे अधिक प्रदूषित औद्योगिक इकाइयों में नौवें स्थान पर हैं। वहीं, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पर्यावरण की दृष्टि से देश का पांचवा समस्याग्रस्त औद्योगिक क्षेत्र है।
सोनभद्र में औद्योगिक इकाइयों की बात करें तो वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र की एनटीपीसी, एनसीएल, ओबरा थर्मल पॉवर, रिहंद सुपर थर्मल पॉवर, निजी क्षेत्र की हिण्डालको एल्यूमिनियम,प्लांट, कानोरिया केमिकल्स एम्ड इंडस्ट्रीज लिमिटेड, रेणुसागर पॉवर प्लांट, जेपी सीमेंट फैक्ट्री, डाला एवं चुर्क आदि औद्योगिक इकाइयां संचालित हो रही हैं। इनके अलावा हजारों मानक विहीन स्टोन क्रशर प्लांट्स कैमूर की वादियों में जहर उगल रहे हैं। सोनभद्र के मूल वाशिंदों की विडंबना है कि इतनी औद्योगिक इकाइयों के बाद भी इनको दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं हो रही है। हर साल सैकड़ों लोग भूखमरी, कुपोषण और बीमारी की चपेट में आकर दम तोड़ रहे हैं। यहां के खनन क्षेत्र में हर दिन दो व्यक्ति की औसत दर से दम तोड़ रहे हैं। मरने वालों में अधिकतर आदिवासी एवं दलित मजदूर होते हैं। कैमूर की वादियों को जहरीली बना चुकी औद्योगिक इकाइयों में सोनभद्र के मूल बाशिंदों के रोजगार की बात करें तो अधिकतर लोग दिहाड़ी मजदूर हैं जिन्हें महीना में 20 दिन से ज्यादा का रोजगार मुहैया नहीं हो पाता है। शेष मौतका कुंआं बन चुकी पत्थर की खदानों में दम तोड़ने को मजबूर हैं। किसान पिछले छह सालसे पड़ रहे सूखे से बेहाल हैं और खेत बेचकर पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं। औद्योगिक इकाइयों की सुरक्षा मानकों की बात करें तो अधिकतर औद्योगिक इकाइयां पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मानकों को पूरा नहीं करती हैं। खासकर खनन क्षेत्र में स्थापित स्टोन क्रशर प्लांट केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों को पूरा नहीं करते, लेकिन बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी की शह पर सभी मानकविहीन औद्योगिक इकाइयां धड़ल्ले से संचालित हो रही हैं।
उदाहरण के लिए निजी क्षेत्र की रेणुकूट स्थित कानोरिया केमिकल्स एंण्ड इंडस्ट्रीज लिमिटेड एवं सार्वजनिक क्षेत्र की ओबरा थर्मल पॉवर की “अ” और “ब” औद्योगिक इकाइयों को लेते हैं। दोनों ही इकाइयां केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की सूची में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मानकों को पूरा नहीं करती हैं। इसके बावजूद ये इकाइयां संचालित हो रही हैं। कानोरिया केमिकल्स एण्ड एंडस्ट्रीज लिमिटेड की भयावहता पर गौर करें तो यहकंपनी एसिटेलि्डहाइड, फार्मेल्डिहाइड, लिण्डेन, हेक्सामीन, इंडस्ट्रीयल एल्कोहल, एल्यूमिनियम क्लोराइड, एथिल एसिटेड, एसिटिक एसिड कॉमर्सियल हाइड्रोजन आदि घातक रसायनों का उत्पादन करती है। मानक विहीन सुरक्षा व्यवस्था के कारण कंपनीके प्रयोगशाला में आग भी लगती रहती है। आग की चपेट में आकर पूर्व में कई व्यक्ति झूलस भी चुके हैं। इसके बावजूद मानक विहीन यह कंपनी संचालित हो रही है। ओबरा थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन की अ एवं ब इकाई केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से डिफाल्टरघोषित हो चुकी है। दोनों इकाइयां संचालित हो रही हैं। उधर, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय केमानकों को धता बताते हुए जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड एवं हिण्डालकों ने भी इस औद्योगिक इलाका में अपने औद्योगिक इकाइयों का विस्तार कर दिया है। शासन के निर्देशों की धज्जियां उड़ाते हुए इन कारपोरेट घरानों की औद्योगिक इकाइयों को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाण-पत्र देने के लिए जनसुनवाइयां भी हो चुकी हैं। इन जन सुनवाइयों में करीब 60 फीसदी वक्ताओँ ने इन सुरक्षा मानक विहीन औद्योगिक इकाइयों को अनापत्ति प्रमाण-पत्र नहीं देने की वकालत की थी। इसके बावजूद जिला प्रशासन ने कारपोरेट घरानों के पक्ष में शासन को रिपोर्ट भेज दी। कुछ औद्योगिक इकाइयों को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र मिल भी गया है। कुछ का मामला पेंडिंग हैं। जेपी समूह की डाला इकाई तो अनापत्ति प्रमाण पत्र मिलने से पूर्व ही संचालित होने लगी थी।
नौकरशाहों द्वारा पूंजीपति एवं कारपोरेट घरानों के लिए आम आदमी के हितों की अनदेखी कर मानक विहीन औद्योगिक इकाइयों को दिया जा रहा अनापत्ति प्रमाण पत्र भोपाल गैस त्रासदी के दूसरे अध्याय की जमीन तैयार कर रहा है। नौकरशाहों के इस कारगुजारियों परअंकुश लगाने की शीघ्र आवश्यकता है। साथ ही ऐसी नीति की व्यवस्था करने की जरूरत है कि जिसमें औद्योगिक इकाइयों से प्रभावित होने वाले आम आदमियों की आवाज सुनी जा सके और उनके हितों की रक्षा हो सके। अन्यथा भोपाल गैस त्रासदी की घटना बार- बार घटित होती रहेगी।
शिवदास
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