देश की जनता ही तय करे कि असली नक्सली कौन है
अखिलेश अखिल, नई दिल्ली
‘नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए।ऐसा काम ढूंढना जहां कुछ ऊपरी आय हो । मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है । ऊपरी आय बहता हुआ स्त्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है । वेतन मनुष्य देता है इसी से उसमे वृद्धि नहीं होती,ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है इसी से उसमें बरकत होती है’।
ये शब्द प्रख्यात साहित्यकार प्रेमचंद की चर्चित कहानी नमक का दारोगा के हैं। युवा मुंशी बंशीधर काम की तलाश में जब घर से बाहर निकल रहा है तब उसके बूढे पिता अपने जीवन भर के संचित अनुभव को उसके सामने रख रहा है। यह केवल मुंशी बंशीधर के पिता के भ्रष्टाचार की दास्तान नहीं हैं, यह उस भ्रस्ट समाज की ओर इशारा है जहां के अधिकतर लोग एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में हर कुकर्म करने को तैयार हैं। बंशीधर घर से निकलता है और उसे नमक के दारोगा की नौकरी मिल जाती हैं । उसके पिता के लायक नौकरी यानि लूट और भ्रष्टाचार करने वाली नौकरी । उसका सामना पंडित अलोपीदीन से होता है जो व्यापारी है और भ्रष्टाचार का प्रतीक है। पं0 अलोपीदीन, नमक की तस्करी करते बंशीधर के हाथों पकड़े जाते हैं। बंशीधर को नोटों से खरीदने की पूरी कोशिश अलोपीदीन करते हैं लेकिन ईमानदारी के सामने अलोपीदीन का धमंड चुर हो जाता हैं । लेकिन उसे सजा नहीं मिलती उसके टुकड़ों पर पलने वाले भ्रष्ट पुलिस से लेकर वकील तक उसे छुड़ा लाते हैं। और सजा बंशीधर को नौकरी गंवाने के रूप में मिलती है। लेकिन बंशीधर की इमानदारी के सामने एक दिन अलोपीदीन को घुटने टेकने पड़ते हैं ।
अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद देश में यह बहस छिड़ गई है कि हर क्षेत्र में नाग की तरह फन उठाए लाखों पं0 अलोपीदीनों के बीच क्या सैकड़ों बंशीधर जनता को भ्रष्टाचार मुक्त समाज दे सकेंगे? इस सवाल के उत्तर से हम आपका परिचय कराऐंगे और मिलाऐंगे आज के दर्जन भर उन आधुनिक बंशीधरों से भी, जो जान को जोखिम में डालकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग कर रहे हैं। हम उन बंशीधरों से भी आपका परिचय कराऐंगे जिनकी जान आधुनिक पं0 अलोपीदीनों ने ले ली । ये हैं मंजुनाथ षणमुगम। लखनउ से बिजनेस की पढ़ाई करने के बाद मंजुनाथ की तैनाती इंडियन आयल कारपोरेशन में सेल्स मैनेजर के पद पर हुई । 2005 में उसने पेट्रोल में मिलावट का भंडाफोड़ किया । माफियाओं ने उसे हर तरह से तोड़ने की कोशिश की और न झुकने वाले मंजुनाथ की हत्या कर कर दी गई। ठीक इसी तरह की मौत ईमानदार अमित जेठवा की हुई । जेठवा गुजरात के गिर वन में अवैध खनन को उजागर कर कई सफेद पोश की पोल खोली थी । कई भाजपा नेता इसमें फंसे थे। नेताओं ने उसकी हत्या करवा दी। बिहार के सत्येंद्र दुबे को तो आप जानते ही है। हाईवे में घांधली उसनें क्या उजागर की उसे जान से हाथ धोना पड़ा। अन्ना के सहयोगी सतीश सेठ्ठी की हत्या इसलिए कर दी गई कि उसने ताले गांव जमीन घोटाले की पोल खोली थी। और बिहार बेगुसराय के शशिधर मिश्र सरकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार का खुलासा कर अपनी जान गांव बैठे। हम आपको यह भी बताते चले कि देश के कई सपूतों ने इसी जमाने में बंशीधर की भूमिका निभाते हुए जान गवांई है तो तो दर्जनो बंशीधर आज भी भ्रष्टाचारियों के लिए खौफ बने हुए हैं। मुजफ्फरपुर के डा0 सतीश पटेल भ्रष्ट नौरशाहों से आज भी लोहा लेते नजर आ रहे हैं। धर झारखंड के दुर्गा उरांव से पूरा प्रशासन सहम रहा है । दुर्गा ने ही मधु कोडा समेत 6 मंत्रियों को जेल भेजवाने में अहम भूमिका निभाई थी । इलाहाबाद के कमलेश सिंह ,रांची के रंजीत राय, लखनउ के सिपाही ब्रजेन्द्र सिंह यादव, भागलपुर के अनिल कुमार सिंह, और इलाहाबाद के आनंद मोहन ने सरकारी धन लूटेरों की सांसे थमा रखी है।
हम आपको संसदीय प्रणाली में आई गिरावट से भी रूबरू कराऐंगे और बताऐंगे कि कैसे एक के बाद हर दूसरी संसद घटिया,बेकार और जनता से बेजार होती चली गई । कैसे लोकतंत्र कुर्सीतंत्र में बदला और कैसे कुर्सी के लिए अपराध और घोंटालों को अंजाम दिया गया?
आगे बढें, इसके पहले संसदीय इतिहास पर एक नजर डालते हैं। चूकि भ्रष्टाचार की शुरूआत यही से शुरू होती है और जाहिर है कि इसका खात्मा भी यहीं से होगा। तरह तरह के कानून बना देने से कुछ नहीं होगा क्योंकि हमारे संविधान और कानून में जो व्यवस्था की गई है अगर उस पर कड़ाई से पालन हो जाए तो फिर किसी लोकपाल जैसी संस्था की जरूरत नहीं होगी । संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप मानते हैं कि ‘कानून पर अमल नहीं होना ही हमारी सबसे बड़ी समस्या रही है। मौजूदा कानून को सही तरीके से अमल में लाया जाए तो एक भी भ्रष्टाचारी बच नहीं सकता और न हीं कोई गलत काम करने कों सोंचेगा। अगर कानून के हिसाब से काम नहीं होता है तो जाहिर है कि हम कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं’। संसद कैसे जनता से दूर होती गई इसकी बानगी देखिए-
प्रथम से तीसरी लोकसभा में कांग्रेस मजबूत थी और विपक्ष लगभग न के बराबर। लेकिन विपक्ष में जो लोग थे, जनता के मुद्दों पर सरकार को घेरने से बाज नहीं आते थे। कांग्रेस में प्रखर वक्ता के रूप में जहां नेहरू, पुरूषोत्तम दास टंडन , हरेकृष्ण मेहताव, एस के पाटिल , एन वी गाडगिल, स्वर्ण सिंह, एन जी रंगा और सेठ गोबिंद दास जैसे लोग थे तो विपक्ष में कृपलानी, अशोक मेहता, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, ए के गोपालन, एच वी कामथ सरदार हुकुम सिंह और लोहिया जैसे कद्दावर नेता । विपक्ष के विरोध के कारण ही 1956 में टी टी कृष्णाचारी को भ्रष्टाचार के मामले में मंत्री का पद छोड़ना पड़ा था । दूसरी लोकसभा में अनेक सामाजिक सुधार अधिनियम पास हुए और संविधान में चार संशोधन भी हुए । संख्या में विपक्ष कमजोर था, लेकिन उच्च कोटि के आचरण और बेहतर वक्ता होने के कारण वे सरकार की गलत नीतियों के विरोध में खड़े हो जाते थे। यह संसदीय गरिमा की ही बात है कि दूसरी लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों ने ही मुंदरा कांड को उजागर किया और एक मंत्री को पद छोड़ना पड़ा। उसी समय कृपलानी के बारे में ब्लिट्ज अखवार में एक खबर छपी -कृपलानी महाभियोग- बूढे, काले- नंगे झूठ। सभी दलों ने इसका विरोध किया और अंत में संपादक को सदन के सामने जबाव देना पड़ा।
तीसरी लोकसभा में एक नई बात सामने आई। बड़ी संख्या में कृषक लोग चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। इनमें कई ऐसे लोग थे जो सरकार की आलोचना करने में पीछे नहीं हटते। इसी लोकसभा के दौरान चीन युद्ध और नेहरू व शास्त्री की मृत्यु हुई, लेकिन विपक्ष एकजुट होकर सरकार के साथ खड़ा रहा। तीसरी लोकसभा में मधु लिमये और लोहिया जनता की आवाज थे। जब ये संसद में बोलते थे तो सरकार भी चुप होकर सुनती थी। लाहिया के तर्क के सामने नेहरू भी चुप हो जाते थे। इसी सभा में लोहिया ने आम आदमी की दैनिक आय तीन आने, प्रधानमंत्री के कुत्ते का खर्च 25 रूपए, और निजी सुरक्षा खर्च का हवाला देकर सरकार को कटघरें में खड़ा कर दिया था। इस दौरान नेहरू चुपचाप मुस्कुराते रहे। इसी सभा में जनता के मुद्दों पर कांग्रेस के भीतर भी एक विरोधी वर्ग खड़ा हो रहा था। भ्रष्टाचार के मसले पर कई मंत्रियों को हटना पड़ा था। रक्षामंत्री मेनन और गृहमंत्री नंदा को पद से हटना पड़ा था। केशवदेव मालवीय के विरूद्ध जांच कराई गई।
चौथी लोकसभा में विपक्ष भारी और प्रभावशाली था। कृपलानी, लोहिया, हिरेन मुखर्जी, अटलविहारी वाजपेयी, पीलू मोदी, इंद्रजीत गुप्त, बलराज मधोक, और सुरेन्द्रनाथ जैसे दिग्गज थे, जिन्हें देश का घर- घर जानता था। कांग्रेस में भी त्रिगुण सेन,हुमायु कबीर, वी के आर वी राव, दिनेश सिंह, के एल राव, के सी पंत, नुरूल हसन, आई के गुजराल और एम सी छागला जैसे नेता थे, जो गरीबों की आवाज थे। इसी लोकसभा में पहली बार संसदीय कार्यवाही में बढ़ती अनुशासनहीनता और शोरगुल संस्कृति के प्रति चिंता जाहिर की गई। इसी दौरान कांग्रेस के 62 सदस्य अलग होकर कांग्रेस ‘अ’ नाम की पार्टी बनाई। पांचवीं लोकसभा में फिर कांग्रेस की जीत हुई और इंदिरा के नेतृत्व में सरकार बनी। इस दौरान देशी और विदेशी मसलों पर पक्ष और विपक्ष में खूब झड़पें होती थी। आलम ये था कि अघ्यक्ष ढिल्लो को एसपीरीन की गोली खानी पड़ती। नागरवाले कांड पर विपक्ष ने भारी हंगामा खड़ा किया था जिसके कारण जयोतिर्मय वसु को सदन से निलंबित किया गया। इसी लोकसभा के दौरान ताशकंद समझौता, सिक्किम का भारत में विलय, भारत- पाक युद्ध और शिमला समझौता हुआ। इसी काल में सबसे पहले सांसदों के लिए पेंशन योजना लागू हुई। 19 संविधान संशोधन हुए और 482 अन्य अधिनियम पास हुए। यह आज भी एक रिकार्ड है। 75 में आपातकाल की घोषणा की विपक्ष ने जमकर आलोचना की । जेपी आंदोलन के कारण कांग्रेस की स्थिति कमजोर हुई, और छठी लोकसभा में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। कांग्रेस की मदद से चरण सिंह की सरकार बनी और 80 में इंदिरा गांधी फिर बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। इस दौरान पंजाब की समस्या को लेकर पक्ष -विपक्ष लड़ता रहा। संसद में मंडल कमीशन के तहत पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देने की बात हुई।
आठवीं लोकसभा के दौरान ही इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। सहानुभूति लहर में एकबार फिर कांग्रेस सत्ता में आई और राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। इस लोकसभा के अधिकतर सदस्य नए थे। संसद में पोस्टल बिल लाया गया, लेकिन विपक्ष के भारी विरोध के बाद इसे वापस लेना पड़ा। मानहानि संबंधी विधेयक का भी यही हाल हुआ। इस दौरान पक्ष और विपक्ष पंजाब समस्या, गोरखालैंड आंदोलन, शाहबानों प्रकरण को लेकर आपस में लड़ते रहे। शाहबानों प्रकरण पर पौने तीन बजे तक संसद चली थी। यह भी एक रिकार्ड है। इसी सभा के दौरान बोफर्स का मामला सामने आया जिसपर 64 घंटे और 16 मिनट की बहस हुई। 1989 में अनुशासनहीनता और पीठासीन अधिकारी की अवज्ञा को लेकर 63 विपक्षी नेताओं को निलंबित किया गया। यह भी एक अभूतपूर्व घटना थी। 20 जुलाई 89 को बोफर्स मामले को लेकर एक दिन में आठ बार सदन स्थगित हुआ। इस सभा में चंदशेखर जनता की आवाज थे।
नौवीं लोकसभा में कांग्रेस की हार हुई, उसे मात्र 197 सीटें ही मिली। भाजपा के समर्थन से वी पी सिंह की सरकार बनी। प्रधानमंत्री बनते ही विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया। छात्र सड़क पर उतर आए। बाद में भाजपा के समर्थन वापस ले लेने के कारण वी पी सिंह की सरकार गिर गई।किसी सरकार के खिलाफ यह पहला अविश्वास प्रस्ताव था। वी पी सिंह के काल की एक खास बात ये रही कि जनता, किसान और आमलोगों की दशा पर खूब शोर शराबे हुए। फिर कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। इस दौरान तक लोकसभा का रंग बदल चुका था। भारी शोरगुल, वाकआउट और नारेबाजी के कारण कोई भी सत्र ठीक से नहीं चल पाया। गिर चुकी संसदीय परंपरा को देखते हुए अंतिम सत्र के अंतिम दिन को मधु लिमये ने राष्ट्रीय लज्जा दिवस बताया।कांगेस नें अपना समर्थन वापस लेकर चंद्रशेखर की सरकार गिरा दी। दसवीं लोकसभा चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई। यह लोकसभा चुनाव हिंसा प्रधान रही और काफी संख्या में अपराधी चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। कांग्रेस की सरकार बनी, और प्रधानमंत्री हुए नरसिम्हा राव। जोड़ तोड़ के बल पर यह सरकार पांच साल तो चल गई, लेकिन इस दौरान सबसे ज्यादा घोटाले हुए। सांसदों को खरीदने से लेकर जमीन, घर बेचने वाले नेताओं के नाम सामने आए।
11वीं लोकसभा में 13 दिनों के लिए कई दलों को मिलाकर वाजपेयी की सरकार बनी। बाद में देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल, मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री बने । इस सभा में कई बार मारपीट की नौबत आई । अपराधियों के जमघट से कोई भी सत्र ठीक से नहीं चल सका। जनता के हित गौण होते चले गए और क्षेत्रीय मसले संसद में उठने लगे। 12वीं और 13वीं लोकसभा में भाजपा की सरकार बनी और घूस भ्रष्टाचार , शोरगुल ,नारेबाजी के कारण यह सभा भी पिछली सभा से और खराब साबित हुई।
14वीं लोक सभा की शुरूआत फिर साझा सरकार से शुरू हुई। यूपीए नाम से एक गठबंधन तैयार किया गया और कांग्रेस के नेतृत्व में बाम दलों के बाहरी सहयोग से केन्द्र में सरकार बना दी गई।प्रख्यात अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और लोकसभा अध्यक्ष के रूप में कामरेड सोमनाथ चटर्जी कुर्सी पर आसीन हुए। उधर बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा के नेतृत्व का बागडोर संसद में लालकृष्ण आडवाणी को मिला। 14वीं लाकसभा के गठन के बाद यूपीए की सरकार तो बन गई, लेकिन जितनी राजनीतिक पार्टियों और उन पार्टियों के चतुर सुजान नेताओं को सरकार में शामिल किया गया, इसको लेकर इस गठबंधन सरकार के अल्प भविष्य को लेकर शुरू से ही कयास लगाए जाने लगे थे। बार- बार और हर बार सरकार के गिरने की नौबत आई और यहां तक की सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से भी गुजरना पड़ा, लेकिन हर बार लूट खसोट, खरीद बिक्री, जोड़ तोड़ और समझौतों के दम पर सरकार बचती रही। और इस पूरी प्रक्रिया में जनता के हितों की आहुती दी गई।
राजनीति से मर्माहित एक विद्वान ने कहा है कि पोलिटिक्स इज द गेम आफ स्काउंडरल्स अर्थात राजनीति गुंडों का खेल है। 14वीं लोकसभा पर यह कहावत ठीक बैठती है। हांलाकि 77 के बाद से ही हर लोकसभा पिछली लोकसभा से बदतर और असामाजिक तत्वों का अखाड़ा होती गई लेकिन 14वीं लोकसभा पिछली सारी सीमाऐं पार कर गई। यह पहली लोकसभा है जिसमें अमीर और करोड़पतियों की संख्या सबसे ज्यादा है।भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में इससे पहले ऐसा नजारा कभी देखने को नहीं मिला।गरीब जनता के अमीर एजेंटों से भरी इस लोकसभा का नजारा देखते ही बना। केवल कांग्रेस और भाजपा के ही करोड़पति यहां नहीं पहुंचे बल्कि सपा, बसपा, राजद, जदयू, राकांपा, शिवसेना, अन्ना द्रमुक, तेदेपा, वामदल,और अन्य पार्टियां भी यहां पूंजीपतियों को यहां भेजकर कृतार्थ हो गई। गरीब जनता के चुने गए अमीर नुमाइंदे तो अपनी रंगीन चश्मा से समाज और लोंगों को देखतें हैं। जनता कभी पानी, कभी बिजली, कभी खाने को अनाज के लिए ,कभी आतंकवाद तो कभी नक्सलवाद की समस्या से, तो कभी बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदा से जुझती रही और देश की महापंचायत मूक दर्शक बनी रही और केवल सरकार बचाने और गिराने के नाम पर यहां नौटंकी चलता रहा। यही वो महासभा है जहां से पहली बार घूस लेते दर्जन भर से ज्यादा लोग पकड़े गए। घूस लेने और देने के मामले में कानून में सजा दर्ज है लेकिन सांसदों को कोई शारीरिक सजा नहीं हुई।यही वो लोकसभा है जहां मनमोहन सरकार के विरूद्ध लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के समय करोड़ो रूपये लोकसभा अध्यक्ष के सामने रखे गए । संसद का यह नजारा देखकर पूरा देश हतप्रभ था । आम जनता सोच रही थी कि जब उनके आका ही घूस देने और घूस लेने में निडर और साहसी हैं तो उनकी क्या बिसात है? यह नजारा देखकर लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की हालत काटो तो खून नहीं वाली हो गई थी। बेहतर वक्ता, बेहतर सांसद और निष्कलंक होने के जितने तमगे सोमनाथ दा को मिले थे उस पर दाग उन्हें दिखने लगा। नरसिम्हा राव के समय में भी सांसद रिश्वत कांड हुआ था , उसमें सोमनाथ दा खूब चिल्लाए थे। लेकिन इस बार उन्हीं की सभा ने उन्हें कलंकित कर दिया। इतिहास याद रखेगा कि सोमनाथ दा की अध्यक्षता वाली लोकसभा में नोट के बंडल उछले थे। संसद में बैठे इन बेईमान नेताओं को देखकर नेहरू काल की याद आ जाती है जब एक तरफ पंडित नेहरू, मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम,महाबीर त्यागीऔर स्वर्ण सिंह जैसे लोग होते थे तो दूसरी तरफ लोहिया ,जे बी कृपलानी, हुकुम सिंह ज्योतिर्मय बसु, प्रो डांगे और पीलू मोदी होते थे। उस जमाने की कार्यवाही देखी जाए तो लगता है कि सही मायने में संसद देश का आइना है। कुछ बहसें तो आजतक नजीर बनी हुई हैं। तीन आना बनाम तेरह आने ,भारत-चीन सीमा विवाद , भाषा आंदोलन, और बेरोजगारी को लेकर जो बहस होती थी , उसमें लगता था कि नेता, देश और जनता के लिए लड़ रहे हैं। उसी समय पूर्वी उत्तर प्रदेश की गरीबी पर विश्वनाथ गहमरी ने संसद में भाषण दिया था।उन्होंने संसद को सुनाया था कि किस तरह किसान के बच्चे गोबर से अनाज निकाल कर खाना खाते हैं। पं नेहरू रोने लगे थे। 14 वीं लोकसभा से आशा बंधी थी कि आम जनता के मुद्दों को लेकर बहस होगी, जनता की बेहतरी के लिए कानून बनेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। और संसदीय कार्यवाही के नाम पर करोड़ो रूपए बर्बाद हाते रहे। पूर्व सीवीसी एन विट्ठल की सोंच थोड़ी अलग है। उनका मानना है कि ‘जनता से लेकर सरकारी तंत्र तक को सजग रहने की जरूरत हैं । चूंकि सरकार पर जिम्मेदारी ज्यादा होती है इसलिए जरूरी है कि सरकारी तंत्र नियंत्रण में रहे और साफ छवि के हों। व्यक्ति विशेष की प्रवृति, समाज की प्रवृति और शासन का तंत्र ठीक नहीं है तो इसे मिटाना संभव नहीं है।’
ढहते संसदीय प्रणाली, घोटाले, बढ़ते भ्रष्टाचार, समस्याओं से जूझती जनता और संविधान पर उठ रही उंगलियों को लेकर अगस्त 1997 में तत्कालीन लोकसभा अघ्यक्ष पी ए संगमा ने संसद का विशेष सत्र बुलाया और इसे आजादी की दूसरी लड़ाई कहा । लोकसभा में देश की तमाम समस्याओं पर 65 घंटे और राज्य सभा में 50 घंटे तक बहस चली और सभी नेताओं ने अपनी बातें रखी । लेकिन इस पूरे खेल में निकला कुछ नहीं । अगर कुछ निकलता तो आज अनना को आंदोलन करने पर विवश नहीं होना पड़ता। इसके बाद जनवरी 200 के आखिरी हफ्ते में तत्कालीन राष्ट्पति के आर नारायणन ने देश के बिगड़ते हालात, लंपट राजनीति, तार- तार होता कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार की भेंट चढते गरीब, आदिवासी को लेकर अपने तीन अभिभाषण दिए । अपने 28 जनवरी 2000 के अभिभाषण में नारायणन ने कहा कि ‘अदालते इबादतगाह नहीं, जुआघर है’ । फिर 27 जनवरी को संसद के केंद्रीय कक्ष के अभिभाषण में नारायणन ने कहा कि ‘संविधान को हमने विफल कर दिया है’ ।फिर इसी सील 26 जनवरी को राष्ट्पति ने कहा कि ‘गरीबों के बारे में सोंचिए वरना किसी क्रांति के लिए तैयार रहिए । दलित, आदिवासी और गरीबों को आज तक न्याय नहीं मिल रहा है जो कहीं से भी ठीक नहीं है’। लेकिन हमारे नेताओं और नौकरशाहों को इससे कोई मतलब नहीं रहा । थोड़ा और पीछे आपको ले चलते हैं। वीपी सिंह के समय में सर्वदलीय बैठक में प्रस्ताव आया कि राजनीतिक दलों की सदस्यता खुली हो जिसकी जांच की जा सके ।सभी दल अपने संविधान के आधार पर नियमित चुनाव कराए जिसकी देख रेख एक निष्पक्ष न्यायिक पंच करे और सभी दलों के आय व्यय व संपत्ति की जांच भी किसी निष्पक्ष सार्वजनिक आयोग द्वारा की जाए । लेकिन आपको बता दें कि सभी दलों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया । जब कोई भी दल और नेता कानून मानने को तैयार ही नही हैं तो ईमानदारी की बात बेमानी ही है। जदयू नेता कैप्टन जयनारायण निषाद कहते हैं कि‘ भ्रष्टाचार जब लोबों के आचरण में आ जाए तो इसे दूर करना कठिन है लेकिन असंभव नहीं । सरकारी तंत्र के साथ ही नेताओं को भी इस बारे में सोचने की जरूरत है और अगर देश को चलाने वाले लोग ठीक हो जाए तो न सिर्फ संसद की गरिमा लौट सकती है बल्कि भ्रष्टाचार पर भी लगाम लग सकता है।’
तो फिर भ्रष्टाचार पर हाय तौबा क्यो? कहते हैं कि भ्रष्टाचार का रोग हमारे खून में है। कुछ आंकड़ों से आपको दर्शन करा दूं। देश में करीब साढे पांच हजार आईएएस अधिकारी हैं । यही लोग नौकरशाहों के शीर्ष अंग हैं। नेताओं के बाद यही देश के रहनुमा हैं। इनके नीचे की सेवाओं को पुलिस, राजस्व,वन और राज्य सेवाओं के अफसरों को भी जोड़ लिया जाए तो करीब 15 हजार अफसर हैं जों सरकार को चला रहे हैं और लोकतंत्र को अपने तरीके से हांक रहे हैं । ट्रांसपैरेसी इंटरनेशनल के अनुसार 80फीसदी नौकरशाह भ्रष्ट हैं जो अपनी जिममेदारी का वहन नहीं कर रहे ।जब ऊपर के अफसरों का ये हाल हैं तो नीचे के कर्मचारी क्या करते हैं आप जानते हैं। केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों की कुल संख्या को जोड़ ले तो कोई 2 करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं जो अपने तरीके से देश को चलाने की तरकीब निकाल चुके हैं। सीबीआई कहती है कि हर साल देश का 315 अरब रूपये भ्रष्टाचार की भेट चढ़ते हैं। 2010 में 110 आईए एस,105 आईपीएस पर आपराधिक और आर्थिक मामले दर्ज हैं और ये सारे लोग काम भी कर रहे हैं। कुर्सी तंत्र का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। सतर्कता विभाग के मुताबिक 2006 से 2010 तक बिहार में करीब 365 सरकारी कर्मचारियों के यहां छापे मारे गए जिनमें 300 कर्मचारी करोड़पति पाए गए हैं। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह कहते हैं कि -‘देश में करीब 2 करोड़ सरकारी कर्मचारी और 5300 नेता हैं। इनमें सबसे ज्यादा भ्रष्ट नौकरशाह होते हैं ।नौकरशाह उनके लिए कमाऊ पूत की तरह हैं जो उन्हें बताते हैं कि कहां और किस तरह पैसे आ सकते हैं। सरकारे बदलती हैं, मंत्री बदलते हैं लेकिन नौरशाह वहीं रहते हैं। यही लोग हैं जो कानून को तोड़ मरोड़ कर गलत काम करते हैं । और नेता भ्रष्ट निकल गए तो ये लोग इनके काम को और आसान बना देते हैं ।’
और जिस पुलिस के उपर कानून व्यवस्था लागू करने की जिममेदारी है,वह खुद भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी है । पैसा पुलिस के लिए सब कुछ हो गया है । आंकड़े बता रहे हैं कि हर साल पुलिस वाले देश भर में 22200 करोड़ की वसूली करते हैं और इनमें से 214 करोड़ गरीबी रेखा से नीचे वालों से वसूला जाता हैं । पुलिस की लूट और इस महकमें में जारी भ्रष्टाचार को देखते हुए ही इसे लाइसेंसधारी गुंडा कहा जाता हैं 1967 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस आनंद नारायण भल्ला ने कहा था कि – ‘उत्तर प्रदेश पुलिस के दामन पर दाग ही दाग है।आमतौर पर उसकी छवि जनता के खिलाफ बर्बर गिरोह के रूप में उभरती है, जिसे वर्दी की आड़ में कुछ भी करने की आजादी है।’ विकास और कल्याण के कई क्षे़त्रों में एनजीओ की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वाकई में कई एनजीओं ने उदाहरण पेश किए हैं । लेकिन इसके कुल खेल को देखा जाए तो पता चलता है कि समाज सेवा के नाम पर लूट का सबसे बड़ा माध्यम है। अभी देश में 33 लाख से ज्यादा एनजीओ हैं यानि की 400 लोगों पर एक एनजीओ ।2003 में हुए एक सर्वे से पता चला कि 85 फीसदी एनजीओ काम नहीं करते और सिर्फ सरकारी धन को लूटते हैं। अपने से 80 फीसदी एनजीओ तो सिर्फ 10 राज्यों में फैले हुए हैं। महाराष्ट्, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश और केरल में सबसे ज्यादा एनजीओं चल रहे हैं । 11वी पंचवर्षीय योजन में सरकार ने सामाजिक क्षेत्र के विकास के लिए 18 हजार करोड़ की राशि तय की थी। इस राशि का कितना उपयोग सही तरीके से हुआ है जांच का विषय बना हुआ है। भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन का मानना है कि -‘भ्रष्टाचार खुद एक बड़ी बीमारी है जिसे सिर्फ एक कदम उठाकर दूर नहीं किया जा सकता । इससे निपटने के लिए जरूरी है कि सरकार उच्च सुरक्षा से जुड़े कुछ मामलों को छोड़कर अपने बाकी काम पारदर्शी बनाए।’
हांलाकि आजादी के बाद से ही घोटाले और भ्रष्टाचार की शुरूआत हो गई थी लेकिन 1991 के बाद इस प्रवृति में तेजी आई। यही वह साल है जब प्रधानंत्री नरसिंम्हा राव और वित मंत्री मनमोहन सिंह ने डूबती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए नई आर्थिक नीति की शुरूआत की थी। फिर हर्षद मेहता कांड से जो घोटाले की जो लाइन लगी आज तक जारी है । यहां हम कुछ उन बड़े घोटालों की बात कर रहे हैं जिसने देश की राजनीति में उफान ला दिया था। नौरशाही के चार घोटालों ने दी देश पर 2 लाख 646 करोड़ की चोट की । इनमें 2 लाख करोड़ का यूपी अनाज घोटाला, 107 करोड़ के कर्नाटक आईएडीबी घेटाला, 225 करोड़ का सीआरपीएफ घोटाला और बिहार झारखंड का 314 करोड़ का फ्युचर ट्रेडिंग घोटाला। इसी के साथ पांच कारपोरेट घेटालों ने लगाई 50 हजार 700 करोड़ की चपत। इसमें 14 हजार करोड़ का सत्यम घोटाला, 4 हजार करोड़ का शेयर घोटाला, 1200 करोड़ का सीआरबी घोटाला, 1500 करोड़ का सिक्युरिटी घोटाला और 30 हजार करोड़ का स्टांप घोटाला । इसके अलावा 2010 में एक लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्कैम,1000 करोड़ का आदर्श घोटाला, 1000 करोड़ का सिकिकम में पीडीएस घोटाला, 600 करोड़ का कर्नाटक में जमीन घोटाला और 318 करोड़ का कामनवेल्थ घोटाला हुए। इसी 20 सालों में 950 करोड़ का लालू का चारा घोटाल, करीब 4 करोड़ का सुखराम से जुड़ा टेल्कम घोटाला, करोड़ों का जयललिता संपत्ति मामला 3 साढे तीन करोड़ का नरसिंम्हा राव घूस कांड, और एक लाख का बंगाय लक्षमण घूस कांउ सामने आया । जाहिर है इन नेताओं के दामन पर दाग लगे । इसी दौर में सेना भी दागदार हुई । सेना में भी कई तरह के घपले सामने आए और इस तरह से 4 हजार करोड़ की राशि की लूट हुई । दागदार न्यायपालिका से जुड़े लोग भी हुए ।जस्टिस बी रामा स्वामी, जस्टिस शमित मुखर्जी,जस्टिस शौमित्र सेन,जस्टिस पीडी दीनाकरन और जस्टिस निर्मल यादव पर पैसा कमाने का मामला दर्ज हुए । दिल्ली के लोकायुक्त जस्टिस मनमोहन सरीन कहते हैं कि ‘ समाज में लालच बढ गया है। लालची लोगों को कड़ी सजा देकर ही दंडित किया जा सकता है । ईमानदार लोगों की इस देश में कमी नही है लेकिन उसके सामने जब कोई रातों रात अमीर बनता दिखता है तो हैरान हो जाता है। सरकार ने गलत सरकारी तंत्र के लोगों के साथ ही गलत नेताओं को सजा देने की पहल कर दे तो बहुत हद तक लूट तंत्र से बचा जा सकता है ।’ सरीन की बातों में दम है। आज तक कई मामलों में दोषी होने के बावजूद भी कोई भी आदमी सजा नहीं पा सका। कुछ लोगों को जेल के भीतर कुछ समय के लिए भेजा भी गया तो अतिथि बनाकर । लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिन पैसों की लूट की गई क्या वे पैसे वापस सरकारी कोष में आए? किसी नेता ने वह धन लौटाया? किसी नौकरशाह ने लूटे धन को वापस किया? किसी कारपोरेट घराने ने घोटाले की राशि वापस की? अभी तक एक भी ऐया उदाहरण हमारे सामने नहीं है। और जब ऐसा नहीं हो सकता तब ये तमाम कायदे कानून बेकार है और जनता के धन की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं । फिर किस आधार पर सरकार कह रही है कि नक्सलियों ने देश को तबाह कर रखा है? नक्सली तो संसदीय व्यवस्था के विरोध में काम कर रहे हैं और ये लोग संसदीय व्यवस्था में रह कर लूट रहे हैं । अब तो जनता को ही निर्णय करना है कि देश का असनी नक्सली कौन हैं जो हमें तहस नहस कर रहे हैं।
बहुत सुन्दर। संसद की पुरानी हालत और बातों का पता चला। धन्यवाद इसके लिए।
bahut khoob sir