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नई दुनिया की सच्चाइयों ने मिथिला चित्रकला के कलाकारों को झकझोरा

स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और धर्म के सनातनी स्वरूप के कारण मिथिला चित्रकला की परंपरा मोटे तौर पर शुद्ध रूप में चलती रही। लेकिन स्थान और समय के असर से किसे इनकार हो सकता है। जब खिड़की खुली तो इसके स्वरूप में बहुत ही परिवर्तन आए। महज मातृभाषा बोलने वाली महिलाएं जब घर से बाहर निकली तो नई दुनिया की सच्चाई ने उनकी कल्पनाशीलता को झक-झोड़ा। विदेशी धरती में घूंघट और संस्कार अपनी जगह रहे लेकिन थीम के विकल्प बढ़े साथ ही चित्रकला के मानदंडों के दायरे में ही प्रयोग आकार लेने लगी।

इधर अपने देश में भी नई प्रवृतियाँ उभरी। रोजी के अवसर की जरूरत महिलाओं के संग पुरूषों को भी थी। सो पहली बार यहाँ के पुरूष भी मिथिला चित्रकला की बारीकियों को समझने लगे। उनके लिए ये पाठ आह्लादकारी अनुभव रहे। इरादा महिलाओं के गढ़ को तोड़ना नहीं था। सब विपत्ति के मारे जो ठहरे ।

महिलाओं में जातिगत बंधन उतना कठोर न था। ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ महिलाओं की रुचि का असर उन्हीं के साथ गुजर कर रही वंचित समाज की स्त्रियों पर भी था। इनके घरों की भीत भी अपने परिवेश के छिट-पुट अंशों से सजी होती। लिहाजा विधि-विधान के बहाने चित्रकला की एक समानांतर छटा मौजूद रही। जब मिथिला स्कूल की चित्रकलाओं को नया आयाम मिला तो वंचित समाज को भी अवसर मिले। इनकी कल्पना जब कागज़ पर उतरी तो कला-पारखियों ने इसे — हरिजन शैली — कहा। इस तरह की चित्रकला में रंग के रूप में गोबर के घोल का इस्तेमाल होता है लिहाजा इसे कई लोग –गोबर पेंटिंग— के नाम से भी पुकारते हैं। बरहेता के कलाकारों ने –गोदना शैली—- को विकसित करने में अहम् भूमिका निभाई है।

सरकारी सहयोग की बदौलत मिथिला चित्रकला के कलाकार अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, रूस, जापान, इंग्लेंड,  स्विट्जर्लेंड,  डेनमार्क और चीन में अपनी कला का प्रदर्शन कर आए हैं। गंगा देवी अमेरिका गई और वहां की जीवन-शैली को अपनी पेंटिंग में स्थान दिया। उनके बनाये चित्रों में रोलर-कास्टर, बहुमंजिली इमारतें और अमेरिकी परिधानों को जगह मिली। रोचक है कि बसों के पहियों को उन्होंने कमल के फूल जैसा रखा। इस कला के समीक्षक मानते हैं कि गंगा देवी ने जीवन की सच्चाइयों को आध्यात्मिक रूप दिया।

बाद में वो शशिकला देवी और गोदावरी दत्ता के साथ जापान गई। इन्होंने जापानी परंपरा को अपनी कृतियों में समावेश किया। जापान में इनके बनाए चित्रों का एक म्यूजियम भी बनाया गया। उधर शांति देवी और शिवन पासवान ने डेनमार्क और जर्मनी में लोगों को गोबर पेंटिंग से परिचित कराया। जगदम्बा देवी भी कई देश हो आयी। उनके नाम पर मधुबनी में एक सड़क का नामकरण किया गया। ये कलाकार अनपढ़ थीं पर प्रयोग करते समय मिथिला चित्रकला के मर्म का ख़याल रखा।

विदेश जाने वालों का सिलसिला जारी है। इधर पढ़े-लिखे कलाकारों ने बहुत ही प्रयोग किये हैं। सीतामढी के कलाकारों ने कारगिल युद्ध को ही चित्रित कर दिया। तो मधेपुरा की नीलू यादव के चित्रों में बुध का जीवन चरित , सौर-मंडल और डिज्नी-लैंड जैसे थीम आपको दिख जाएंगे। सुनीता झा ने कला समीक्षकों को चौका दिया जब उन्होंने –घसल अठन्नी — नामक लंबी कविता को ही चित्रित कर डाला। आपको बता दें कि काशी कान्त मिश्र लिखित इस मैथिली कविता में वंचित तबके की एक मजदूर स्त्री के दर्द को दिखाया गया है। ये कविता मिथिला के गाँव में बहुत ही मशहूर हुई और समाजवादी राजनीतिक नेताओं ने भी अपनी नीतियां फैलाने में इस कविता का सहारा लिया। दरभंगा की अनीता मिश्र ने तो ईशा-मसीह के जीवन को ही अपनी कृति में जगह दे दी। इधर कृष्ण कुमार कश्यप ने शशिबाला के साथ मिलकर –गीत-गोविन्द — और –मेघदूत– को चित्रित किया है। ये इस श्रृंखला की अगली कड़ी में विद्यापति के जीवन को चित्रित कर रहे हैं। मधुबनी के एक कलाकार ने मखाना उत्पादन को ही अपना थीम बना दिया।

प्रयोगों की फेहरिस्त लम्बी है। इसने उम्मीदें बधाई., दायरे बढ़ाए, लेकिन मिथिला चित्रकला लिखने वाले पुराने लोग इस बात पर चिंता जता रहे हैं कि इस चित्रकला का लोक-स्वरूप टूटता जा रहा है।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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