नई सामाजिक पहचानों को महत्व देना आवश्यक है
यह हिन्दू वह मुसलमान यह पंडित , वह ठाकुर , यह यादव , वह हरिजन आदि जैसे संबोधन अभी आम समाज में जनसाधारण की एक प्रमुख पहचान बने हुए हैं | एक दूसरे को इन्हीं पहचानों , खासकर जातीय पहचानों के आधार पर ही संबोधित करने , बातचीत करने और हँसी — मजाक करने का चलन गाँव से लेकर कस्बो तक में भी बना हुआ है |
बताने की जरूरत नहीं है कि ऐसे संबोधनों , पहचानों के साथ एक दूसरे के प्रति सदियों से बैठी उच्च व निम्न भावनाओं , लगावों के एकता व अलगावों के तथा दूरियों व नजदीकियों के दृष्टि कोणों का भी परिलक्षण , प्रसफुटन होता रहता है |
नि:सन्देह ऐसे प्रस्फुटन आधुनिक समाज में मौजूद पिछड़ेपन के पिछड़े संबंधों के प्रस्फुटन व परिलक्षण है ! इसमें भी कोई दो राय नहीं कि आज के समाज में खासकर भारत , पाक ,लंका , जैसे तमाम पिछड़े देशो में आधुनिक युग के साथ — साथ भारी पिछडापन अभी भी मौजूद है |
जनसाधारण में पुराने युगों के आर्थिक — सामाजिक आधार व सम्बन्ध अपने टूटते बदलते रूप व गुण के वावजूद खासी हद तक मौजूद है | उदाहरण — इस देश में विभिन्न जातीय , पेशो व जातीय संबंधो ( खासकर शादी — व्याह के संबंधो )
जातीय छोटे — बड़ाई अलगाव — दुराव आदि के रूप में तथा हिन्दू — मुस्लिम , धार्मिक , साम्प्रदायिक अलगाव — दुराव के रूप में |
लेकिन आम समाज में आधुनिक युग के नए — नए कामों — पेशों के पहचानों को तथा उनसे बने व बन रहे नए सामाजिक संबंधो को वैसी प्रमुखता न मिल पाने और उनमे पुराने युगों की पहचानो , संबंधों को ही ज्यादा प्रमुखता मिलने का प्रमुख कारण क्या है ? क्या उसका कारण समाज में विद्यमान पिछडापन ही है ? नही ! इसके अलावा इसका एक दूसरा सर्वप्रमुख कारण आधुनिक युग के उन राजनीतिक व प्रचार माध्यमी प्रयासों में निहित है , जो लोगों में इन्हीं पहचानों को प्रमुखता से बैठाने का काम करता रहता है | आधुनिक युग के पेशों , पहचानों व संबंधो समस्याओं को प्रमुखता नहीं देता है |
कहा जा सकता है कि इसमें वर्तमान दौर के राजनितिक व प्रचार माध्यमी हिस्सों की भूमिका कहीं ज्यादा है | हालांकि यह उन्हीं की जिम्मेदारी थी कि वे समाज के शासकीय व प्रभावकारी हिस्से होने के नाते पिछड़ी स्थितियों , पहचानों व संबंधो को प्रमुखता से खड़ा करते | राष्ट्र व समाज के पिछड़ेपन को खत्म करते | पुराने युग की पहचानों को हटाने — मिटाने के साथ नए युग की पहचानों को पनपाते बढाते | लेकिन उन्होंने अपने इस ऐतिहासिक
राजनितिक , सामाजिक एवं प्रगतिशील दायित्व को नहीं निभाया | उल्टे उन्होंने अपने धनाढ्य वर्गीय एवं परम स्वार्थी अर्थनीति तथा सत्ता स्वार्थी राजनीति के तहत आम जनता में उन्हीं पुरानी पहचानों को ही बढावा देने का काम करते रहे | खासकर पिछले 30 — 35 सालो से तो धर्म , जाति , इलाका भाषा के नए पुराने मुद्दों को उठाकर सत्ता स्वार्थी राजनीति को खड़ा करने का काम होता रहा है | उसके जरिये जनसाधारण को धर्म , सम्प्रदाय जाति — उपजाति तथा इलाका — भाषा आदि की गोलबंदी में बाटने — तोड़ने का काम करते रहे हैं और करते भी जा रहे हैं |
वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में विश्व कूटनीति के अमेरिकी व यूरोपीय विशेषज्ञ इसी राजनीति को विश्व पैमाने पर बढावा देने में दशको से लगे हुए है | वे इस कूटनीति को उसी तरह से बढाने और फैलाने में लगे हुए है जिस तरह वे नई आर्थिक नीतियों को साम्राज्यी पूंजी और साम्राज्यी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितो , स्वार्थो अनुसार पूरे विश्व में फैलाने बढाने में लगे हुए है | इसका सबूत यह भी है कि अमेरिका ने उदारीकरणवादी , वैविक्रानवादी तथा निजीकरणवादी आर्थिक नीतियों को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर बढावा देने के साथ 80 के दशक से ही धर्म , सम्प्रदाय , नस्ल , इलाका जाति , भाषा ,लिग के पहचानो की कूटनीति को भी फैलाना — बढाना तेज किया गया |
90 के दशक के एकदम शरुआत में ही अमेरिकी विद्वान् व कूटनीतज्ञ सैम्युअल हटीगटन ने बहुचर्चित पुस्तक ” सभ्यताओं का संघर्ष ” के जरिये इसे और ज्यादा फैलाने तथा औचित्यपूर्ण साबित करने का काम किया | पिछले 30 — 40 सालो से अमेरिका व उसके सहयोगियों द्वारा इसी कूटनीति को अर्थनीति के साथ चरण — दर — चरण आगे बढाया जाता रहा है |
स्वाभाविक बात है कि तब से आज तक देश की विभिन्न राजनितिक पार्टिया एवं प्रचार माध्यमी स्तम्भ अन्तराष्ट्रीय अर्थनीति व कूटनीति के सहयोगी बनकर नई आर्थिक नीतियों को निरंतर आगे बढाने का काम कर रहे है | धर्म सम्प्रदाय , जाति — उपजाति तथा इलाका — भाषा की पहचानो को उभारने के साथ — साथ आधुनिक युग की पहचानो को मजदूरों — किसानो तथा विभिन्न कामो ,, पेशो की पहचानो व संबंधो तथा समस्याओं को उपेक्षित करते रहे हैं | उसे दबाते रहे हैं |
इसीलिए हिन्दू धर्मवादी , मुस्लिम धर्मवादी या फिर विभिन्न जातियों की जातिवादी , अगड़ावादी , पिछड़ावादी , और दलितवादी राजनीत करने में लगी पार्टियों और उनके नेताओं से जनसाधारण में आधुनिक युग की नई पहचानों को प्रमुखता देने की अब कोई उम्मीद नहीं की जा सकती | फिर उनसे इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे अब जनसाधारण में एकता , बराबरी और भाईचारगी को स्थापित करने का कोई प्रयास भी कर सकते हैं |
इन स्थितियों में जनसाधारण के बीच जनतांत्रिक दृष्टिकोण व व्यवहार खड़ा करने की जिम्मेदारी स्वंय जनसाधारण तथा उसके उन प्रबुद्ध व ईमानदार लोगो पर आ गयी है | जिन्हें इस कूटनीति ने भ्रष्ट न किया हो | यह कार्यभार जनसाधारण के उन हिस्सों पर आ गया है , जो आधुनिक समाज में किसी व्यक्ति या समुदाय को प्रमुखत: उसके धार्मिक , जातीय व इलाकाई दृष्टि से न देखते हो |
बल्कि उसकी जगह वे उसे प्रमुखत: आधुनिक युग के तथा इस राष्ट्र के एक सदस्य के रूप में देखते हो | पुराने युगों की पहचानों व संबंधो के आधार पर नहीं बल्कि आधुनिक युग के बन रहे व बढ़ रहे सम्बन्धों के आधार पर देखते है |
इसका यह मतलब कदापि नहीं कि पुराने युग की पहचान या सम्बन्ध खत्म हो गये हैं | नही ! ऐसी बात एकदम नहीं है | पुराने युग के संबंधों , पहचानों के अंतरविरोधो को जानना , समझना और उसका यथासंभव समाधान करना भी नितांत आवश्यक है | लेकिन क्या उन्हीं पिछड़ी पहचानों व दृष्टिकोणों के साथ यह काम किया जा सकता है ? एकदम नहीं ! उन आधारों पर तो आपसी भाईचारे का थोथा नारा लगाया जा सकता है , लेकिन दरअसल उसे स्थापित नहीं किया जा सकता | कोई भी व्यक्ति या संगठन यह काम आधुनिक युग की पहचानों दृष्टिकोणों को अपनाने तथा आत्मसात करने के साथ ही कर सकता है | उसी के जरिये ही कर सकता है , जन साधारण समाज में एकता , भाईचारगी व बराबरी का बिदा उठाने वाले किसी भी व्यक्ति या संगठन को यह जरुर समझना होगा कि एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य की प्रमुख व बुनियादी पहचान आखिर क्या है ? एक धार्मिक , जातीय या इलाकाई समुदाय के रूप में लोगों के जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती | उनकी पूर्ति समाज में मौजूद कामों के बटवारे और उन पर एक दूसरे की निर्भरता के जरिये ही हो सकती है और हो रही है | यह आपूर्ति हिन्दू — हिन्दू , मुस्लिम — मुस्लिम या ऐसे ही विभिन्न जातियों , इलाको के लोगों के जुडावो से नहीं बल्कि एक किसान , मजदूर , व्यापारी , अध्यापक , डाक्टर , वकील , उद्योगपति आदि के जुड़ाव में हो रही है | मतलब साफ़ है कि व्यक्ति या समुदाय का जीवन उसके हिन्दू या मुस्लिम होने से नहीं चल रहा है , बल्कि उसके किसान , मजदूर , दुकानदार , अध्यापक आदि होने के नाते चल रहा है | इन्हीं कामों व पेशो से इनके बुनियादी जीवन की बुनियाद टिकी हुई है |
अत: सामाजिक जनतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि जनसाधारण के विभिन्न सामाजिक समुदायों में एक दूसरे के प्रति बैठे सदियों से पुराने दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है |
साथ ही उनके बीच मौजूद अन्तर्विरोध को जानने और पाटने — घटाने का भी प्रयास किया जाए |
इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि वर्तमान समाज में विभिन्न सामाजिक समुदायों के जनसाधारण का आर्थिक आधार कमोवेश एक जैसा होता जा रहा है |
साथ ही टूटता भी जा रहा है | उन्हें महगाई , रोजी – रोजगार के संकटों में धकेलता जा रहा है | छोटी — मोटी सम्पत्तियों के मालिकों को भी सम्पत्तिहीन करता जा रहा है |
टूटते आर्थिक आधारों के साथ उन्हें एक ही प्लेटफार्म पर जमा करता जा रहा है | आधुनिक युग की अपनी बुनियादी समस्याओं के लिए एकजुट होने के आधार मुहैया कराता जा रहा है | लेकिन बिडम्बना यह है कि उनमे सदियों पुरानी धार्मिक , जातीय व अन्य सामाजिक अन्तर्भेद मौजूद है और अब उसका धन — पूंजी सत्ता — सरकार के लिए किया जा रहा स्वार्थी व विखंडनवादी इस्तेमाल उनके इस प्लेटफार्म के बीच भारी दीवार खड़ी करता जा रहा है | लोगों में पुरानी सामाजिक पहचानों व संबंधो को नए रूपों में और नए — नए हथकंडो से जगाता और उन्हें बाटता जा रहा है | इसीलिए भी आज जनसाधारण समाज के लिए नई पहचानों व संबंधो को जानना व समझना और उन्हें आत्मसात करना आवश्यक एवं अपरिहार्य हो गया है |
–सुनील दत्ता
.पत्रकार