नये रंगभाषा की तालाश में दलित-आदिवासी रंगमंच
रांची से लौटकर अनन्त,
देश के दलित व आदिवासी समाज के रंगकर्मी अब नये रंगभाषा की तालाश में जुट गये हैं। दरअसल इस समाज को तालाश है एक ऐसी रंगभाषा की जो उनकी जमीनी सवालों को उनके नजरिये से जनता के समक्ष पेश करे। इस समाज का मानना है कि वर्तमान परिपेक्ष्य में रंगभाषा का दृष्टिकोण अत्यंत ही सीमित है। जिससे देश की बहुजन आबादी देश के विभिन्न भू-भागों में उठने वाले सवालों से अनभिज्ञ है। रॉंची में आयोजित अखिल भारतीय तीन दिवसीय नाट्य समारोह व दो दिवसीय सेमिनार के बाद इस बहस को संबल मिला है। दलित आदिवासी रंगमंच को एकजुट कर नये रंगभाषा के सवाल पर बहस को नया मुकाम प्रदान करने वाले अखड़ा के सलाहकार अश्विनी कुमार पंकज सवाल उठाते हैं कि नयी रंगभाषा को आज के वैज्ञानिक युग में अत्यंत ही संवेदनशील होकर विचार करने की जरूरत है। क्योंकि भारत विविधताओं में एकता का देश है। विविध भाषा – भाषी समाज में सिर्फ हिन्दी रंगमंच को ही भारतीय रंगमंच की संज्ञा दी जाती रही है। हिन्दी रंगमंच में जब दलित आदिवासी समाज के सवालों को लेकर नाटको का मंचन किया जाता है तो हिन्दी रंगमंच का ब्राहम्णवादी नजरिया खुलकर सामने आ जाता है। इस विषय पर लंबे समय से बहस हो रही है और आज भी बहस की गुजाईश है।
दरअसल इसी बहस को आगे बढ़ाने के उदेश्य से झारखंड का सांस्कृतिक संगठन अखड़ा ने राष्टीय नाट्य महोत्सव व सेमिनार का आयोजन किया था। कहने को तो यह आयोजन राष्ट्रीय था लेकिन भारत के अलावे नेपाल थाईलैंड यू0 एस0 से आये प्रतिभागियों ने भी हिस्सा लिया। भारत विभिन्न राज्यों तामिलनाडु ,आंध्र प्रदेश ,पांडीचेरी ,दिल्ली ,मणीपुर ,गोवा, महाराष्ट्र ,बंगाल , असम , झारखंड , बिहार ,उतरप्रदेश और केरल से आये संस्कृतिकर्मियों ने न सिर्फ नाटको का मंचन किया अपितु बहस में हिस्सा भी लिया। विश्व रंगमंच दिवस के आयोजित इस कार्यक्रम में बामा लिखित एवं श्रीजीत सुन्दरम द्वारा निर्देशित मोलगापोडी , स्वदेश दीपक लिखित एवं अरविन्द गौड़ द्वारा निर्देशित कोर्ट मार्शल ,सुधा चिगथा लिखित और तोइजाम शीला देवी द्वारा निर्देशित बलैक अर्चिड ,राजेश कुमार लिखित और अरविंद गौड़ द्वारा निर्देशित अम्बेडकर और गांधी के अलावे अश्विनी कुमार पंकज द्वारा लिखित व राजेन्द्र सिंह द्वारा निर्देशित एक आदिवासी ब्यान तथा कोरियोग्राफी म्यूजिक एवं निर्देशन हर्टमैन डिसुजा की क्रियेचर्स ऑफ द अर्थ द लिजेण्ड ऑफ पैकाची जोर आदि नाटको का मंचन हुआ। विभिन्न भाषाओं में मंचित नाटको ने अत्यंत ही चौंकाने वाले परिदृश्य को उभारा। दरअसल हिन्दी के अलावे तेलगु मणीपुरी भाषा में मंचित नाटको पर दर्शकों ने ज्यादा तालियां बजायी। संवाद रहित नाटक भी दर्शकों को अपनी रंगभाषा के माध्यम से अपनी बात को समझाने में सफल हुए। भाषा की दीवारें टूटती हुयी नजर आयी। दरअसल रंगभाषा में भाषा से ज्यादा भाव-भंगिमा और जनता के सवाल महत्वपूर्ण होते हैं। शायद यही वजह है कि रांची की जनता 10 बजे रात्रि तक नाटक का आनंद लेती रही। दूसरी भाषाओं में हिन्दी भाषियों की रूची ही नयी रंगभाषा के तालाश को जन्म देता है। जे0 एन0 यू0 के प्रोफेसर डाक्टर बीर भारत कहते हैं कि यह झारखंड के लिए ऐतिहासिक क्षण है। दलित और आदिवासी दोनो समाज एक दूसरे की नाट्य परंपराओं से सीखे और स्वयं को शक्तिशाली बनाये। इस कार्यक्रम में औरंगाबाद महाराष्ट से प्रो0 दता भगत, डाक्टर वीर भारत तलवार जे0एन0 यू0 माता प्रसाद उतर प्रदेश कंवल भारती अनिल सतकाल महाराष्ट राजु दास कोलकाता, श्रीनिवास देन चाला आंध्रा प्रदेश पेलूमल एस श्रीनिवासन पांडिचेरी आशुतोष पोतदार बैलोर सहित कई अन्य लोगों ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया।