पहले आई. ए. एस. बनो (कहानी)

कमरा सिगरेट के धुएँ से भरा था। सुमित की आँखो से आँसू निकल रहे थे। सिगरेट को होंठों से लगाए वह हजार भावों को सिगरेट के धुएँ के रूप में बाहर निकाल रहा था। समय का यह पल उसे एक महान विजेता के रुप में पेश कर रहा था। उसे अभी – अभी सूचना मिली थी कि उसका आई.ए.एस. में सेलेक्सन हो गया है। इस खबर को पाकर सुमित का पूरा शरीर सुन्न हो गया। उसकी जिंदगी में यह पल एक बङी क्रांति की घोषणा कर रहा था।  वह खुद को इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि वह अब एक आई .ए.एस है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर से सटा यह स्टुडेण्ट एरिया सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों से भरा है। बड़ी-बड़ी इमारतों में सिंगल – सिंगल कमरे हैं। खाने के लिए टिफिन की व्यवस्था है। सुबह शाम दो टाईम मेस वाला टिफिन दरवाजे पर रख कर चला जाता है। महीने का बारह सौ दिया और खाने के प्रॅाबलम से छुट्टी। जब भी आईएएस के पीटी या मेन्स का रिजल्ट आता तो सारे एरिया में हंगामा सा मचा होता। किसका हुआ, किसका नहीं। ये रिजल्ट वास्तव में एक साल की मेहनत का लेखा-जोखा होता। ये अपने साथ हताशा-निराशा और उत्साह साथ लाता। रिजल्ट आने के दिन तो इस एरिया की गतिविधि ही बदल जाती है। हर जुबान पर सिर्फ इसी के चर्चे होते हैं। देश के दूर-दराज के इलाकों से आए विद्यार्थी ज्यादातर मध्यम वर्ग के ही होते हैं।

सुमित सोच रहा था कि पिछले साल इसी तरह अपने कमरे में सिगरेट को होंठो से लगाए वह रो रहा था। उसका फाइनल सेलेक्सन नहीं हो सका था, जबकि उसके इंटरव्यु बहुत ही अच्छे हुए थे। उस समय भी उसकी आँखें से आँसू निकल रहे थे और आज भी उसकी आँखें में आँसू हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वो गम के आँसू थे और ये खुशी के आँसू हैं। आँसू भी बङी अजीब चीज है, इसने गम और खुशी दोनो से अपना संबंध जोड़ रखा है।

सुमित को उस दिन की याद आ रही थी, जब उसके पिताजी का वेतन रुका हुआ था क्योंकि राज्य में शिक्षकों की लम्बी हड़ताल चल रही थी। उस समय वह जी-जान से अपने मेन्स की तयारी में लगा था। उसके पिता ने उसे फोन पर भर्राई हुई आवाज में कहा था – ‘ बेटा! तुम्हें इस महीने का ‘ड्राफ्ट’ मैं नहीं भेज पाऊंगा। किसी तरह काम चला लेना ’। खुद उसके पिता जी यह नहीं समझ पा रहे थे कि यह किसी तरह काम चलाने का अर्थ क्या है। वास्तव में यह एक महीना नहीं बल्कि हड़ताल की पूरी प्रक्रिया तक का संकेत था। सुमित को पहली बार अहसास हुआ कि एक गरीब का बेटा कभी आई.ए.एस. नहीं बन सकता। उसने कभी पैसे को महत्व नही दिया , पर आज उसे अहसास हो रहा था कि दुनिया को अर्थ के आधार पर खड़ा बताने वाला ‘कार्ल मार्क्स’ बहुत हद तक सही था।

सुमित को ‘चारु’ की याद आने लगी। एम. ए. फाईनल ईयर में उसने चारु से कहा था – ‘चारु , आई लव यू’। इस पर  चारु ने सिर्फ इतना ही बोला था – ‘यह तो बचपना है’। ‘सुमित’ इसके जवाब में बोल पड़ा – ‘यह मैं नहीं जानता कि यह बचपना है या कुछ और , पर यह सच है’। सच्चाई यही है कि सुमित का यह बचपना चारु को अच्छा लगा था। सुमित’ को वह एक साल से जान रही थी, पर ऐसा लगता था मानों वे एक दूसरे को वर्षों से जानते हो। चारु, सुमित को बड़ी गहराई से समझने लगी थी। उसकी हर भावना और मनोदशा को वह जान लेती  थी।

सुमित को उस दिन की याद आने लगी जब उसने चारु को फोन पर कहा था – ‘मैं तुमसे मिलना चाहता हूं’। सुमित के बोलने के अंदाज से वह समझ गई थी कि आज उस का मूड कुछ उखड़ा-उखड़ा सा है। उस दिन दोनों यूनिवर्सिटी की पार्क में बैठ कर घंटों बातें करते रहे। चारु , हम लोग क्यों जी रहे हैं? आखिर हमारी जिंदगी का मतलब क्या है? सुमित ने खोए हुए से अंदाज में यह प्रश्न किया। चारु कुछ पल सोचने लगी। वह अपने ढंग से जीवन को समझती थी। वह बड़े ही व्यवहारिक दृष्टि से जिंदगी को देखती थी। उसने बड़े ही सहज अंदाज में कहा था , ‘सभी की जिंदगी का सिर्फ एक ही मतलब है खाओ, पियो और ऐश करो’। सुमित ने पूछा – अगर जिंदगी का मतलब इतना सरल है तो फिर क्यों हमारे ऊपर समाज, राज्य. कानून और व्यवस्था के इतने सारे बन्धन डाल दिए गए हैं? क्यों इंसान अर्थचक्र में पिस रहा है? क्यों प्रेस , पुलिस और पॉलिटिक्स इंसानी जीवन को घेरे हुए है? क्यों? आखिर क्यों? चारु ने कहा  – तुम इतना सोचते हो , इसलिए तुम्हें लगता है कि हमारा जीवन बहुत कुछ से घिरा हुआ है , वास्तव में कुछ मत सोचो , तब तुम्हें अहसास होगा कि जिंदगी पूरी तरह स्वतंत्र है, उन्मुक्त है।

सुमित ने कहा – अगर ऐसा है तो क्या कुछ न सोचने वाला मजदूर इस स्वतंत्रता को महसूस करता है? नहीं, नहीं, नहीं। चारु हंसने लगी , बोली – मैंने इसी लिए मार्क्सवादी सिद्धांत के पेपर को नहीं चुना। शायद उसी का तुम पर असर दिख रहा है। सुमित मुस्करा दिया। उसने कहा- मेरा सवाल मार्क्सवाद और पूंजीवाद का नहीं, बल्कि जिंदगी का है। सुमित का दिल आज बहुत कुछ कहने को कर रहा था। वह हर चीज को विश्लेषित करना चहता था। उसके जीवन में बेचैनी के ये पल अक्सर आते थे परंतु इससे बाहर निकलने का उसके पास कोई रास्ता न होता। जब से इसकी जिंदगी में चारु आई थी, उसे अपनी भावना को शब्द देने का रास्ता मिल गया था। चारु ने कहा– देखो, सुमित , वास्तव में आम जिंदगी का कोई मतलब नहीं होता। जिंदगी का मतलब वहीं से शुरु होता है, जहां से जीवन एक उंचाई को छूता है। तुम पहले आईएएस बनो, फिर तुम्हारी जिंदगी का कोई अर्थ होगा ,कोई मतलब होगा। सुमित बिना कुछ बोले चारु की आंखों में देखता रहा। वास्तव में पुरुष प्रतीक है दार्शनिक उलझन , बेचैन आत्मा और अव्यवस्थित मस्तिष्क का। स्त्री सूचक है व्यवहारिकता, शांति और व्यवस्था की।

सुमित को उस दिन की याद आने लगी जब उसका शरीर बुखार से तप रहा था। उसकी किताबें और नोट्स टेबल और बेड पर हर तरफ बिखरे हुए थे। वह खुद से बातें कर रहा था। कभी – कभी उसके मुंह से गाने के स्वर भी निकलने लगते। छः महीने से उसकी जिन्दगी एक गति से चल रही थी। दिन रात पढ़ना । पढ़ते – पढ़ते कब वह थक जाता और उसे नींद आ जाती, उसे पता भी न चलता। आज बुखार ने उसे एक दूसरी दुनिया में पहुँचा दिया था। कभी उसकी आंखो के आगे सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर होती तो कभी किसी और महान व्यक्ति की। सुभाष चन्द्र बोस भी तो आई. सी. एस. की परीक्षा में सफल हुए थे। तब जाकर वह भारत की स्वतंत्रता की लङाई में लग गए। दुनिया में कुछ सार्थक करने के लिए एक ऊँचाई तो छूनी ही होगी। चारु ने दरवाजे को खटखटाया सुमित ने बुखार में ही बिना किसी सोच के दरवाजे खोल दिए। चारु को देखकर दो मिनट तक वह पहचानने लगा कि आखिर यह है कौन? चारु ने धीरे से कहा – सुमित! क्या हुआ ? जब वह करीब आई तो उसे अहसास हुआ कि सुमित का सारा बदन बुखार से जल रहा है। सुमित को उसने बेड पर लिटा दिया और उसके लिए स्टोव पर पानी  गर्म करने लगी। सुमित बुदबुदा रहा था – चारु मैं अपनी जिन्दगी में एक ऊँचाई को छूना चाहता हूँ ताकि इस दुनिया के लिए मैं कुछ कर सकूँ। मैं उनके लिए कुछ करना चाहता हूँ जिनको जरूरत है। चारु झल्लाकर बोली –  सुमित इस दुनिया में किसी को किसी की जरूरत नहीं है। सभी स्वार्थी हैं। सभी जानते हैं की कैसे अपने लिए जीना चाहिए। तुम बेकार अपने सर पर बोझ लिए हुए हो। सुमित की आंखो से आंसू निकलने लगे। चारु उठकर उसके होठों को चूमने लगी।

चारु ने सुमित से कहा – सुमित तुम थोङी देर के लिए सब कुछ भूलकर मुझमें खो क्यों नही जाते? सुमित ने इसके जवाब में डबडबाई आंखो से लेकिन दृढ. शब्दों में कहा था – नहीं चारु, अगर मैं तुममें खो गया तो सदा के लिए मेरे आदर्श खो जाएंगे, मेरा विचार खो जाएगा, मेरा विश्वास खो जाएगा और मेरा उद्देश्य खो जाएगा। चारु की आंखो से भी आंसू निकल आए।

आज सुमित अपने आदर्श, विचार और उद्देश्य के साथ आई.ए.एस. था और टी.वी. के रिपोर्टर उसके कमरे पर आए हुए थे। ‘सर , क्या आपने इसी कमरे में रहकर तैयारी की? क्या आप दो समय यह टिफिन खाया करते थे’? एक रिपोर्टर ने पत्रकारिता के अंदाज में पूछा। सुमित इन प्रश्नों का निर्दोष मुस्कराहट के साथ जवाब देता रहा। अपनी सफलता के पीछे उसने अपने माता – पिता और दोस्तों का सहयोग बताया। चारु का उसने नाम भी नहीं लिया, क्योंकि वह किसी की पत्नी और किसी की माँ थी।

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4 COMMENTS

  1. Excellent ! I was totally consumed in your writing.
    But I strongly object to a kind of ‘typification’ done in your story as regards how genders behave. I read you your words first….
    वास्तव में पुरुष प्रतीक है दार्शनिक उलझन , बेचैन आत्मा और अव्यवस्थित मस्तिष्क का। स्त्री सूचक है व्यवहारिकता, शांति और व्यवस्था की।
    We, as my thinking goes, can’t define the thought process of a particular gender in such a strict manner. I find no clue, either in historical or contemporary studies, to justify your categorisation. Such restrictive definitions may come as in your story but this may be (I think) because of the soceity we have. Your categorisation is no global.
    If I go by your words, I will offend millions of Peacemakers in history who were men or for matter many women who die fighting for justice.There may be thousands incidents events and revolutions every second which will thwart such inferences.
    Here, if writer is speaking Sumit’s words…well! No excuses! It becomes an individual affair.
    But if Sumit is speaking writer’s word, I dont see a reason why a writer should be so reserved and restricted.
    My comments are purely incidental. You have a good story telling abilities but such comparisions/divisive thinking will not be appreciated by readers.

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