प्रकृति में विज्ञान की घुसपैठ… (कविता)
सुमन सिन्हा //
सुबह सवेरे:
पंछियों का कलरव , पत्तियों की सरसराहट ,
सूरज की पहली किरण का स्पर्श..
कलियों का जागना और मुस्कुराना
मंदिर की घंटियाँ , पुजारी के श्लोक ..
भजन की आवाज़ .
……दूर कहीं ट्रकों का बजता कर्कश होर्न ,
फेरी लगाता रद्दी कागज़ वाला..,
सब्ज़ी बेचती ..टेरती वह एक औरत..,
दूध के लिए रोता वो एक बच्चा..,
अस्त-व्यस्त सी उठती..झुंझलाती माँ..
……………..इन सबसे बेख़बर ,
यंत्रवत ,
चाय के ग्लास घर-घर पहुंचता बेचारा चंदू
..उधर प्रातः भ्रमण करते ,वर्जिश करते अधिकारी गण ..
………. और कालोनी के अंतिम मकान के सामने बैठी मैं..
देख रही हूँ ,सुन रही हूँ , पढ़ रही हूँ यह सब…
आकाश को इंगित करता ,घना ये वृक्ष.
उसके ऊपर निःसीम नीला आसमान ,
नीचे फिर एक रिक्त स्थान..
और ज़मीन पैर बैठी मैं ;
देख रही हूँ , सुन रही हूँ , पढ़ रही हूँ यह सब….
सूखे पत्तों का टूट कर गिरना मेरे आसपास..
देख रही,हवाओं का अपने आगोश में लेकर उन्हें दूर ले जाना…
उनकी जड़ों से दूर जाने कहाँ….
सुन रही आम के झुरमुट में छुपी कोयल की कूक ,
पढ़ रही हवाओं में बिखरे – उलझे कुछ मौन शब्द…
सब कुछ शांत, अद्वितीय , अदभुत…
तभी एक विद्रूप ध्वनि ने कर दिया
तहस -नहस सब कुछ..
क्यूंकि .. अचानक बिजली गयी..
और फिर….
जेनेरेटर का उठता हुआ शोर.. ,
हवाओं में ज़हर घोलता ये धुंआ ,
इस धुएं में आवृत होती हमारी ये दुनिया
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दब कर रह गयी पंछियों की आवाजें ,
मंदिर की घंटियाँ भी चुप सी लगीं..
बहुत कुछ सोचने लगी फिर मैं..
एक सपने से हकीकत में जीने लगी फिर मैं..
माना की विज्ञान ने काफी तरक्की की है..
मशीनी मानव भी बनने लगे हैं और कृत्रिम साँसें भी दी हैं..
पर मनुष्यता का अहसास नहीं दे सकते ये..
नहीं लौटा सकते ये आसमान का वो रंग..
वो अल्हड सी मस्त हवा..
वो बेदाग़ ,नूर सी बूँदें बारिश की..
हो गया है सब कुछ मिलावटी ..
क्यूंकि एक स्वार्थी बनिए की मानिंद..
प्रदुषण की मिलावट विज्ञान चुपके से कर गया है
हम खुश हैं की हमने बहुत प्रगति कर ली है..
पर खुली ..बिना ज़हर वाली हवा में
सांस लेने का ख्वाब शायद मर गया है..