ब्लागरी

बहुत परेशान करती हैं मान्यताएं

एक किस्सा सुना रहा हूं। एक गांव के किनारे की सड़क से पति-पत्नी लड़ते हुए गुजर गए। उन दोनों को लड़ते हुए गांव के ही दो लोगों ने देखा। इनमें एक शादी-शुदा था और दूसरा कुंवारा। शादीशुदा ने कहा-जरूर औरत की गलती होगी। कुंवारा बोला नहीं, आदमी की ही गलती होगी। मेरा बाप भी बिना वजह मेरी मां से लड़ता रहता है। शादी-शुदा ने अपने अनुभव के आधार पर तर्क दिए। थोड़ी देर में विवाद बढ़ गया। तर्क की जगह गाली-गलौच ने ले ली। शोर बढ़ता देख गांव के और लोग भी आ गए। अपनी-अपनी वजहों से वे सभी उन दोनों के गुटों में लामबद्ध हो गए। गर्मी बढ़ने पर हाथापाई हुई और लाठियां चलने लगी। आधे से ज्यादा गांव घायल हुआ। आपस में दुश्मनियां बंध गईं।

जब ऊपर किस्सा पढ़ रहे थे तो आप भी गांववालों की मूर्खता पर हंस रहे होंगे। मान्यतावादियों के साथ यही दिक्कत होती हैं। वे हंसी का पात्र बनते हैं। तटस्थ लोगों को वे मूर्ख ही नजर आते हैं। मान्यताओं के आधारा पर जब आप सच झूठ का फैसला करने निकलते हैं और आपके पास तर्क नहीं होते तो आप उग्र हो जाते हैं। मान्यताएं समाज में बहुत खून खराबा कराती आई हैं। धर्म के नाम पर दंगे हों या नक्सलवाद, लोग अपनी मान्यताओं को बचाए रखने के लिए दूसरे की जान ले लेते हैं। वैसे आदमी अपने अनुभवों के आधार पर मान्यताओं से प्रभावित होता है। आम आदमी किसी मान्यता के लोकप्रियता के आधार पर भी उससे प्रभावित होता है। मन्यताओं की उम्र आदमी की उम्र से लंबी जरूर हो सकती है, मगर वह सामाज की उम्र से लंबी नहीं होती। समाज सदियों से बहुत सी मान्यताओं को बदलते हुए खत्म होते हुए देख चुका है। गैलीलियो से पहले पश्चिम में यह माना जाता था कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। मान्यता तोड़ने के लिए जहर पीने के लिए भी बाध्य होना पड़ सकता है, क्योंकि मान्यतावादी मूर्ख ही नहीं भीड़ बनकर खतरनाक भी हो जाते हैं। हरियाणा में खाप पंचायतों के फैसले इसका एक उदाहरण भर हैं।

सदियां गुजर चुकी हैं, बहुत सी मान्यताएं टूटीं मगर समाज में अब भी मान्यतावादियों का ही बाहुल्य है। कुछ मुट्ठीभर लोग हैं जो मान्यताओं से खेलकर फायदा भी उठाते हैं। ऐसे में मीडियाकर्मियों का कम से कम फर्ज बनता है कि वे मान्यतावादी न बनते हुए व्याख्यावादी बनें। वे समस्याओं को मान्यताओं की नजर से नहीं, बल्कि मान्यताओं की सीमाएं बताते हुए वास्तु स्थिति रखें। मान्यतावदियों के झगड़े कभी सुलझाए नहीं जा सकते। दो लोगों के झगड़े पूरे समूह और समुदायों में तबदील हो जाते हैं। इसमें पिसता है आम आदमी। मेहनतकश। जो बंद का आह्वान करता है, उसे सोचना चाहिए कि एक सींग-मूंगफली बेचने वाले के घर उस दिन रोटी कैसे पकेगी। वह तो रोज दिहाड़ी करके गुजारा करता है।

मान्यतावाद क्या है

असल में मान्यताएं वे अर्धसत्य हैं, जिनके सत्य को हम बिना जाने ही सत्य मानकर ढोते हैं। असल में मान्यताएं हमें तत्काल फैसला लेने में मदद करती हैं। हम तत्काल फैसला कर लेते हैं कि फलां धर्म, जाति या समुदाय के लोग वैसे होते हैं। मान्यताएं युगों से भी चली आ रही हैं और समय के साथ-साथ अनुभवों से नई बनती और संक्रामक रोग की तरह एक से दूसरे के बीच फैलती हैं और पुरानी धीरे-धीरे बदलती भी रहती हैं। एक व्यक्ति अपने अनुभव का बखान करता है और दूसरा उसे मान लेता है कि ऐसी परिस्थितियों में उसके साथ भी ऐसा हो सकता है। यही मान्यता है। असल में कुछ मान्यताएं ऐसी भी होती हैं, जिनका सत्य हम जानकर भी नहीं जानना चाहते। मान्यताएं चूंकि अर्ध सत्य होती हैं, इसलिए इन्हें विशेषणों से महिमा मंडित किया जाता है। मान्यता में क्रिया तो होती नहीं बस प्रतिक्रिया होती है। अर्ध सत्य सबका साझा नहीं होता, इसलिए समाज के अलग-अलग वर्गों में एक ही विषय पर दो या दस तरह की मान्यताएं देखने को मिलती हैं। सब अपने अर्ध सत्य को स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए समाज में संघर्ष होते हैं। विजेता कुछ समय के लिए अपनी मान्यता को स्थापित करते हैं। उसे चुनौती देने वाले आते रहते हैं। इस तरह मान्यतावादी आपस में लड़ते रहते हैं। उनके पास विशेषणों से भरे प्रवचन होते हैं। तर्क नहीं होते। भ्रम होते हैं। इसलिए झगड़े होते हैं। वैसे भी जब आदमी के पास तर्क नहीं रहता तो वह गुंडा हो जाता है। वह लाठी से जवाब देता है। तर्क के लिए बुद्धि चाहिए और मान्यता बुद्धि के श्रम से बचाती है। इसलिए आलसी मस्तिष्क झट इससे चिपक कर अपनी समस्याएं सुलझा लेना चाहता है।

व्याख्यावाद क्या है

यह विज्ञान है। इसमें स्थिति होती है, क्रिया होती है, प्रतिक्रिया होती है और इति सिद्धम होता है। अपने सत्य बताने के लिए उसे कहना नहीं पड़ता कि यह सत्य है। व्याख्या विशेषण की मोहताज नहीं है। उसका सूत्र है इति सिद्धम। इति सिद्धम आसान नहीं है। इसके लिए बुद्धि को श्रम करना पड़ता है। समाज में मान्यतावादियों का ही बोलबाला है। व्याख्यावादी कहीं नहीं दिखते। यही वजह है कि व्याख्यावादियों के अविष्कारों के उपयोग जब मान्यतावादी अपने तरीके से करते हैं तो और घातक हो जाते हैं। परमाणु ऊर्जा का मंत्र महान आइंस्टाइन की व्याख्या थी, मगर अमेरिकी मान्यतावादियों के हाथ में यह परमाणु बम के रूप में तबाही मचाने वाला साबित हुआ। मान्यताएं समाज में दुश्मन पैदा करती हैं। अगर हमें मित्र बनना है तो व्याख्यावाद की ओर बढ़ना है। मान्यताएं छोड़कर कैसा लगेगा। अगर तालिबान अपनी मान्यताएं त्याग दें, जाति और धर्म से ऊंच-नीच जैसे विशेषण निकाल दें, समाज में आप किसी को छोटा और बड़ा मानकर फैसले न करें। क्षेत्र और नाम अगर हमारे फैसलों में आड़े न आएं तो देखिए समाज के कितने झगड़ खुद ही खत्म हो जाते हैं। समाज में ऐसी दो चार नहीं हजारों मान्यताएं हैं। हरियाणा की खाप पंचायतों की अपनी मान्यताएं हैं। समाज की करीब 80 फीसदी हिंसा हमारी मान्यताओं की वजह से ही होती है, बाकी 20 फीसदी रक्तपात की वजह हादसे होते हैं।

(सुधीर राघव के ब्लाग से साभार)
http://sudhirraghav.blogspot.com/

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