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बाल शिक्षा की उदासीन शैक्षणिक पद्धति

आधुनिक संसार में शिक्षा व्यक्ति के विकास का पर्याय बन कर सामने आई है। यह पोलियों की दो बूंदों की तरह इतनी सशक्त हो चुकी है कि भावी पीढ़ी को अपंग होने से बचाती है। प्राचीन काल में गुरूकुल परम्परा भी इसी अधर पर कार्य करती थी। जिसमें बालक को उसके सम्पूर्ण व सर्वांगीण विकास के लिए एक ऐसा वातावरण, दिनचर्या व अनुशासन तैयार करना होता था, जहाँ विद्यार्थी सामाजिक, राजनैतिक व अन्य घटनाओं से मन विभाजित न करते हुए केवल अपनी प्राथमिक व बुनियादी शिक्षा पर विशेष ध्यान दे सकें। इसका उन विद्यार्थियों पर सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा। वे विद्यार्थी बौध्दिक, मानसिक व शारीरिक क्षमताओं में पारंगत हो गए। इसी आधार पर यदि हम बच्चों को अनुशासित करें और उन्हें शिक्षा अर्थात् स्वंय से सीखने के लिए स्वतंत्रता दे तो जाहिर है उनकी प्रतिभा को निखरता हुआ देखा जा सकता है। मगर अब बदलती शिक्षा पद्धति के कारण यह प्रश्न उठते है कि बल शिक्षा का स्तर कैसा हो? इसमें किन बातों को महत्व दिया जाये ताकि शिक्षा के साथ बालक का भी सर्वागीय विकास हो सकें? क्योंकि व्यक्ति की प्राथमिक शिक्षा उसकी पूरी जिन्दगी के लिए बुनियादी कार्य करती है। तो यह जरुरी है कि बालक की प्राथमिक शिक्षा भावनात्मक, अन्वेषण और अनुभूति पर आधारित हो। जिसके लिए अध्यापक व अभिभावक को एक विशेष प्रकार का वातावरण बनाना होगा। जिसमें बच्चों को स्वछंदता और आनंद की प्राप्ति हो सकें और वे जो चाहे कर सकें और सीख सकें।

आजादी से पहले तक भारत में शिक्षा का स्तर निम्न व दयनीय था। अमीरों व पूँजीपतियों के बच्चे ही पढ़ पा रहे थे। उस समय माहौल ही कुछ ऐसा था जिससे शिक्षा पर केवल इन्हीं लोगों का अधिपत्य हो। मगर आजादी के बाद भारत सरकार ने शिक्षा के लिए अनुच्छेद 45 को पारित किया और देश के 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी। शुरूआती दिनों में यह रणनीति काफी दुखदायी रही मगर धीरे-धीरे स्थति सँभलने लगी। इसके बाद संविधान में 86 वें संविधान एक्ट 2002 पारित हुआ। जिसमें बच्चों में शिक्षा को मूलभूत अधिकार के रूप में अनिवार्य करने की स्वीकृति दी गयी। जिससे एक बहुत बड़ा फायदा यह हुआ की जहाँ पढ़े-लिखे लोगों का प्रतिशत 1951 में 18.33% था,वो 2001 में बढ़कर 64.84% हो गया। और 2011 में यही स्तर बढ़कर 74.04% हो गया। इसके बाद भी शिक्षा को मजबूत करने शिक्षा सुधार नीतियाँ बनाई गयी और देश भर में अनेक कार्यक्रम चलाये गए। जैसे 1986 की नै शिक्षा नीति, 1990 में डिस्ट्रिक्ट प्राइमरी शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी),1994-2005 तक देश भर में करीब 1 लाख 8 हजार स्कूल खोले जाने के पुरजोर प्रयास किये गए। 1995 में बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करने मिड-डे मील यानी मध्यान भोजन के प्रावधान पर विचार किया गया। 2001 में भारत सरकार ने सफल सर्वशिक्षा अभियान चलाया तथा जिसका साथ 7000 गैर सरकारी संस्थाओं ने दिया। शिक्षा के लिए एक महत्व पूर्ण बात यह भी रही है कि भारत सरकार को विश्वबैंक ने 6 हजार लाख डालर की मदद शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए दी,मगर अफ़सोस है, हम अनियमितताएं घटा नहीं सके। जिसका परिणाम यह रहा कि आज एक तिहाई बच्चे स्कूल तक नहीं पहुच पा रहे है। तथा जिन बच्चों के स्कूलों में नाम लिखे हैं उनमे से 45 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ चुके हैं। और तो और रोजाना करीब 35 प्रतिशत बच्चे स्कूलों में गैरहाजिर रहते हैं।

भारत में लगभग 80 फीसदी प्राथमिक विद्यालय शासन द्वारा संचालित है। सन 2010 में शिक्षा के सुधार हेतु शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद 3 साल के भीतर देश के सभी स्कूलों कानून के मुताबिक न्यूनतम सुविधाएँ देनी होगी। यह कानून अनिवार्य बनता है की हर स्कूल में ठीक-ठाक इमारतें हो, खेल व पुस्तकालय की सुविधाएँ हो,हर कक्षा के लिए कमरा व पर्याप्त बैठने की व्यवस्था हो, शौचालय हो, पीने योग्य पानी की भी उत्तम व्यवस्था हो, 6 से 14 साल के प्रत्येक बच्चे को निशुल्क प्रवेश मिलें और शिक्षक अपना पूरा ध्यान शिक्षा पर लगायें। व स्कूलों में बच्चों के साथ भय व भेद का अंतर समाप्त हो। इस कानून के अंतर्गत प्रत्येक स्कूल का भारत सरकार ने 31 मार्च 2013 तक का समय दिया है, जो एक चुनौतीपूर्ण व परीक्षात्मक समय है। स्कूलों के लिए खुद सरकार के आकड़े बताते है कि देश के स्कूल न्यूनतम स्तर से भी नीचे हैं। कानून को बने 2 साल गुजरने के बाद भी यह कानून स्कूली शिक्षा के लिए सशक्त माध्यम न बन सका। देश के दो तिहाई स्कूलों में अपेक्षा से भी कम कमरे हैं। खेल के मैदान नहीं है। 30 फीसदी स्कूलों में शौचालय नहीं है व सबसे महत्वपूर्ण बात की शिक्षकों के पास न्यूनतम डिग्री भी नहीं है। इसी तरह यदि पढाई के आकड़ों पर भी ध्यान दिया जाये तो यह तथ्य सामने आते  हैं कि स्कूली शिक्षा साल भर में बच्चों में मानसिक स्तर में मामूली सा सुधार कर पा रही है। दरअसल इसमें स्कूली शिक्षा का भी कोई कसूर नहीं है। क्योंकि स्कूली शिक्षा का सरकारी ढाँचा ही चरमरा गया है। भैया जी-दद्दा जी और राजनीती की बदौलत का मनोबल और स्वाभिमान टूटा है। एक जमाना था जब शिक्षा ‘गुरूजी’ का सम्मान पाता था पर आज वह केवल ‘मास्टर’ बन कर रह गया है। और उसपर भी समाज की दुत्कार और अफसरों की फटकार हावी रहने लगी है। देश में वैसे ही ईमानदार शिक्षकों की कमी है पर जो है वो खुद को असुरक्षित व असहाय महसूस करते करते है। चुनावी रणनीति में भी शिक्षा जैसे अहम मुद्दे को दरकिनार किया जाता है।

यदि भारत में शिक्षा का स्तर सुधारना है तो शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया में सबसे पहले आरक्षण की अपेक्षा योग्यता पर ध्यान देना होगा व शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। बच्चों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने होगे और उन्हें स्वंय से सीखनें स्वतंत्रता देनी होगी। उनके साथ भावनात्मक व्यवहार करना होगा और सबसे जरूरी है कि शासन-प्रशासन को इसकी जबावदेही लेनी होगी। मंत्री-संत्री को कागजी झमेले में न पड़ प्रत्येक स्कूलों का अकस्मात् दौरा करना होगा और शिक्षकों की अनियमित्ताओ पर तुरंत कार्यवाही करनी होगी। तभी जाकर स्कूली शिक्षा को सुधारा जा सकता है। अन्यथा बिना जबावदेही कुछ भी संभव नहीं है।

अक्षय नेमा मेख
पत्रकार

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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