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बिहार चुनाव में छद्म रुप से पैर फैला रहा है बाहुबल

बिहार विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से एक बड़ा सवाल फन काढ़े बैठा है। यह सवाल है बाहुबलियों का, बाहुबलियों के परिवारों और रिश्तेदारों का। सवाल इसलिए भी प्रासांगिक है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार की जनता ने इन्हें नकार दिया था। चाहे बाहुबली खुद थे या उनकी पत्नी या कोई अन्य रिश्तेदार। महराजगंज से जीत हासिल करते रहने वाले प्रभुनाथ सिंह हो सीवान के डान शहाबुद्दीन की पत्नी हीना या ऐसे दर्जनों नेता या उनके रिश्तेदार सबको बिहार की जनता ने धूल चटाकर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी। लेकिन राजनीतिक पार्टियां इससे कोई सीख नहीं ले सकीं।

पिछले लोकसभा चुनाव में तकरीबन सभी पार्टियों ने जनता का यह निर्णय साफ-साफ देखा, सुना और महसूस किया। बावजूद इसके पार्टियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। लोकसभा चुनाव 2009 में जनता ने राजनीति में बाहुबल के बल पर घुस आये आपराधिक चरित्र वाले तमाम नेताओं और उनके रिश्तेदारों से सीधे-सीधे मुंह मोड़ लिया। लेकिन बिहार की राजनीतिक पार्टियां अब इन बाहुबलियों से चोंच लड़ा रही हैं। इसी संदर्भ में चुनाव निकट आते ही पार्टियों के प्रमुख नेता पिछले लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक रूप से हाशिये पर चले गये इन बाहुबली नेताओं के दर पर मत्था टेकते नजर आये। तब यह भी कयास लगाया जा रहा था कि सिर्फ समर्थन के लिए मत्था टेका गया था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। समर्थन के बदले में इन बाहुबलियों और पार्टियों के बीच सौदा हुआ टिकटों का । नतीजतन इस विधानसभा चुनाव में भी बाहुबल का जोर आजमाइश दिखेगा ही। तकरीबन बिहार की सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने टिकटों पर इनके रिश्तेदारों को चुनाव मैदान में उतार दिया है।

पिछले लोकसभा चुनाव में एक तरह से जनता ने जहां अपराधियों के राजनीतिकरण पर रोक लगा दी थी वहीं इस चुनाव में पार्टियां फिर से राजनीति का अपराधीकरण करने में जुट गई हैं। किसी की पत्नी, किसी के बेटे तो किसी के अन्य रिश्तेदारों के सहारे विजय अभियान में अपनी संख्या बढ़ाना चाहती है। हद तो यह है कि  सुशासन का नारा उछालने वाले तथाकथित विकास पुरुष

नीतीश कुमार की पार्टी जदयू भी बाहुबलियों के रिश्तेदारों को आंखों पर बिठा रखा है। खास बात यह है कि नीतीश कुमार के सुशासन और विकास की डंडा में ही बाहुबल को नकार दिया गया था, हालांकि इसमें जदयू को भी नुकसान उठाना पड़ा था। लेकिन तब की यह उपलब्धि नीतीश के खाते में ही गई थी। उनके हारे हुये बाहुबली नेताओं ने भी स्वीकार किया था कि यह हार उन्हें विपक्षियों से नहीं मिली है। ताज्जुब यह है कि उस चुनाव के अभी डेढ़ साल ही पूरे हुये हैं और तमाम पार्टियां सहित नीतीश कुमार का जदयू भी उसे भूल चुका है।

कभी अगड़ों के राबिन हुड का दम भरने वाले आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद हो या लालू यादव के समानांतर यादव नेता बनने की कोशिश करने वाले पप्पु यादव की पत्नी रंजीता रंजन हों, दोनों कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ रही हैं। आनंद मोहन और पप्पु यादव के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। इनकी कारगुजारियों से लोग भलिभांति परिचित हैं। लेकिन जो नहीं जानते हैं उनको इतना जरूर जान लेना चाहिये कि कोशी बेल्ट में उभरे दोनों नेता कभी एक दूसरे का धूर विरोधी रहे हैं और एक-एक हत्या कांड में दोनों सजायाफ्ता भी हैं। और भी कई आपराधिक मुकदमें इन दोनों पर चल रहे हैं, लेकिन दोनों की पत्नी आज कांग्रेस की शरण में हैं। कुंती देवी राजद से चुनाव मैदान में हैं। इनके पति राजेंद्र यादव भी हत्या के एक मामले में सजा काट रहे हैं। इसके अलावा कुख्यात अवधेश मंडल की पत्नी वीना भारती, खगड़िया के बाहुबली विधायक रहे रणवीर यादव की पत्नी पूनम देवी, राजेश चौधरी की पत्नी गुड्डी देवी एवं मुन्नी देवी का नाम बाहुबलियों के साथ जुड़ा रहा है। इसमें कांग्रेस, राजद, जदयू जैसी पार्टियों ने इन्हें अपना सिंबल दिया है।

इतना ही नहीं जीत हासिल करने के लिए जहां राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद ने शहाबुद्दीन और प्रभुनाथ सिंह सरीखे बाहुबलियों का साथ लिया है वहीं जदयू ने तस्लीमुद्दीन सरीखे बाहुबली का सहारा लिया है। अनंत सिंह, कौशल यादव, अवधेश मंडल सरीखे बाहुबली का साथ तो पहले से ही जदयू के पास था। इन तमाम बाहुबलियों के रिश्तेदार कहीं न कहीं से अपना किस्मत आजमा रहे हैं।

बिहार की जनता ने एक बार तो बाहुबली मानसिकता को स्पष्टतौर से नकार दिया है, लेकिन अभी भी यहां की तमाम पार्टियों का कान्फिडेंस बाहुबल में बरकरार है या फिर यूं कहा जाये कि बाहुबली नेता अभी भी तमाम पार्टियों को अपने प्रभाव में लिये हुये हैं। बेबाक शब्दों में कहा जाये तो बाहुबल छद्म रुप में पैर फैला रहा है, और इससे तमाम नेताओं को भी सहूलियत की सांसे मिल रही हैं। सच पूछा जाये तो इस बार परीक्षा उन नेताओं या पार्टियों की नहीं है, जो किसी भी कीमत पर सत्ता में आना और बने रहने चाहते हैं। इस बार परीक्षा बिहार की जनता की है। यदि बाहुबल के छद्म रूप को पहचान कर यहां के लोग एक बार फिर उसे नकारते हुये आगे बढ़ते हैं तो भविष्य में कोई भी राजनीतिक दल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बाहुबलियों से गलबहियां करने से हिचकेगा।

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