बिहार ने बड़े संघर्ष और परिवर्तन की बलि चढ़ा दी
अविनाश नंदन शर्मा, नई दिल्ली
राजनीति की एक मजबूत समझ रखने वाली बिहार की धरती विकास और व्यवस्था में आखिर कमजोर क्यों रह गई? विकास का सही स्वरूप बिहार तक क्यों नहीं पहुंच पाया? ज्ञान और विज्ञान की चमक इस धरती पर हर तरफ क्यों नहीं बिखर पाई? आजादी के बाद बिहार में बदलाव और बड़े परिर्वतन की आवाज दबती क्यों चली गई ?
इन प्रश्नों का आसान सा जवाब खोजना और देना बहुत मुश्किल है। इसके जवाब में देश और प्रदेश की राजनीति, सामाजिक सोंच, आम लोगों में व्याप्त अज्ञानता और भय सभी शामिल हैं। ऐसा माना जाता है कि बिहार की जनता आक्रामक होती है, लेकिन यह आक्रामकता वास्तव में भय का परिणाम है। बिहार में भय अज्ञानता का परिणाम है और अज्ञानता राजनीतिक स्वार्थ का प्रायोजित रूप है। राजनीतिक स्वार्थ बिहार के जातिवादी सोंच पर आधारित समाज से निकल रहे हैं। एक लंबी अवधि गुजर जाने के बाद भी बिहार जिस जगह पर खड़ा है, उसे समझने के लिए इसके उलझन की हर गांठ खोलनी होगी।
राज्य की जातिवादी प्रवृति के कारण हर कदम पर नेताओं और लोगों ने बड़े संघर्ष और परिवर्तन की बलि चढ़ा दी। आजादी के शुरुआती दौर में कांग्रेस ने व्यवहारिक राजनीति करते हुये बिहार में जातिवादी पौधों को संरक्षण दिया और केंद्र नियंत्रित कठपुतली सरकार राज्य में बनाती रही। इस दौर में एक ओर बिहार का पिछड़ापन सामाजिक जिंदगी को अपने चंगुल में दबाये हुये था, तो दूसरी ओर सवर्ण जातियों की अहंकार भरी चोंटे समाज पर पड़ रही थीं। बिहार में असमानता, अज्ञानता और भय पूरी तरह से छाया था। लालू यादव का उदय इस असमानता को सामाजिक न्याय की घुटी पिलाने वाले नेता के रुप में हुआ। बिहार की पिछड़ी जनता को लालू ने सामाजिक न्याय के झांसे में डालकर अज्ञानता और भय से अपनी राजनीति के पौधे को सींचना शुरु कर दिया। पिछड़ों और दलितों को अगड़ों का भय दिखाया। किस्मत ने साथ दिया और लालू की इस राजनीति को वीपी सिंह के मंडलवाद का एक मजबूत वैचारिक आधार मिल गया। 18 साल बिहार में लालू की तूती बोलती रही। बदलाव की इस भावना को जगाकर लालू अपने परिवार की गाड़ी से बिहार चलाते रहे। समय ने अंगड़ाई ली, लोगों में सामाजिक न्याय का उभार ठंडा हुआ और भय, अव्यवस्था, असुरक्षा व अज्ञानता से मुक्ति पाने की चाहत मजबूत होती चली गई, जिसे पाने की राह में लालू यादव सबसे बड़ा रोड़ा बने। वैचारिक बदलाव के इस दौर में नीतीश कुमार का सहजता से बिहार की सत्ता में प्रवेश हुआ। वे लालू की सामाजिक परिवर्तन और न्याय की छवि की जगह पर सुशासन बाबू बन गये। नीतीश के इर्द-गिर्द बहुत बड़ी वैचारिक ताकत काम नहीं कर रही है। नीतीश की सरकार किसी बड़े संघर्ष का परिणाम भी नहीं है। न ही किसी बड़े परिवर्तन की आवाज है। वास्तव में जीन जैकस रुसो के सामाजिक अनुबंध के तर्ज पर जनता के साथ एक समझौता है, जिसके तहत बुनियादी सुविधाओं को बढ़ाना तथा लोगों के मन में व्याप्त भय को खत्म करना है। रुसो अपनी पुस्तक में लिखता है कि अगर राजा इन समझौतों की शर्तों का पालन नहीं करता है तो प्रजा इस समझौते को खत्म कर उसे सत्ता से बेदखल कर सकती है।
बिहार का समाज जाति की कुछ ज्यादा ही मजबूत गांठों से बंधा माना जाता है। यह जाति प्रक्रिया बिहार में सार्वजनिक जीवन और इसकी व्यवस्था को हमेशा विकृत करती रही है। इस धरती पर स्वतंत्र चिंतन का अभाव है। संघर्ष और परिवर्तन की स्वतंत्र अवाज दबी पड़ी है। न्याय और शिक्षा के केंद्र में जातिवाद का विकृत सोंच आज भी हावी है। राजनीति तो जातिवाद का परचम ही लहरा रही है। राज्य में गरीबी और अमीरी की खाई बहुत गहरी है, जिसे मोबाईल,टीवी तथा चैनलों की चमक धमक से पाटने की कोशिश हो रही है, जबकि इसके मूल में गलत नीतियां और भ्रष्टाचार की पूरी दुनिया बसी हुई है।
(अविनाश नंदन शर्मा सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे हैं)