बिहार में एक नई हवा तो चला ही दी है काटजू ने
पटना में काटजू के बयान को लेकर मीडिया वालों के पेट में दर्द तो हो ही रहा है, सरकार के नुमाइंदे भी उल्टी करने लगे हैं। उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी तो यहां तक कह रहे हैं कि काटजू केंद्र सरकार के इशारे पर बिहार की छवि खराब करने में लगे हुये हैं। पत्रकारों के बीच तो पूरी तरह से माथाफुट्टौवल होने लगा है। पत्रकारिता में स्थापित स्तंभ टाइप के तमाम पत्रकार काटजू के पीछे हाथ धो कर पड़े हुये हैं और उनके बयान को बिहार की पत्रकारिता का अपमान करने वाला बता रहे हैं।
जो लोग काटजू के बयान को बिहार की पत्रकारिता के साथ जोड़ देखकर रहे हैं, वे लोग भी वही गलती कर रहे हैं जो गलती काटजू ने अपने बयान देने के संदर्भ में की है। काटजू जिस बिहारी पत्रकारिता पर वह प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं उसके निहितार्थ को वह नहीं समझ पा रहे हैं। इसे समझने का सबसे आसान तरीका है बिहार से निकलने वाले दैनिक समाचार पत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था को समझना, जो पूरी तरह से केंद्रीकृत है और जिसका संचालन बिहार से बाहर से हो रहा है।
बिहार से निकलने वाले कुछ चुनिंदा समाचार पत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था को बिहार के बाहर से हांका जा रहा है। विज्ञापन और संपादकीय की कमान उन लोगों के हाथों में जो बिहार से बाहर अपने हेडक्वाटर में बैठकर जोड़ घटाव के हिसाब से अखबारों की दशा और दिशा को तय करते हैं। ये लोग शुद्ध मुनाफा कमाने के फार्मूले से ही संचालित होते हैं, जनहित की पत्रकारिता से इनका तभी तक वास्ता है जब तक कि खबरें इन्हें आर्थिक नुकसान पहुंचाने वाली नहीं होती है। सुशासन की गंगा बहाने वाले विज्ञापनों की बाढ़ सी दिखती है इन समाचार पत्रों में और स्वाभाविक तौर पर वैसी खबरों को दरकिनारा कर दिया जाता है जो किसी कोने से सुशासन की छवि को चोट पहुंचाने वाली होती है। स्थानीय स्तर पर संपादक जैसे ओहदे पर बैठे अखबार के नुमाइंदों को यह पता है कि उन्हें किस तरह की खबरों को किस तरीके से प्रस्तुत करना है जिससे सरकारी विज्ञापनों की बाढ़ को आवक और बढ़े। मतलब साफ है कि ये नुमाइंदे बिहार की पत्रकारिता की नुमाइंदगी तो कतई नहीं करते हैं। ये पूरी तरह से अखबारी नौकरी बजा रहे हैं और इनका ध्यान सिर्फ अपने वेतन और अखबार की ओर से मिलने वाली सुविधाओं पर है। ऐसे में यदि लोग बिहार की पत्रकारिता के विषय में कुछ बोलते हैं तो इन्हें कतई विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
अब रही बात पत्रकारों की, तो यह सच है कि अखबारी प्रबंधन में (संपादकीय और रिपोटिंग) बहुत बड़ी संख्या में बिहारी पत्रकार अपना पसीना बहा रहे हैं, लेकिन नीति निर्धारण से इन्हें पूरी तरह से दूर रखा गया है। इनकी दक्षता इसी में है कि ऊपर के हुक्म को सही तरीके से बजाने में ये कितने कुशल हैं। संस्थान के अंदर इनकी तरक्की इसी बात पर निर्भर करती है। थीसिस बघारने की स्थिति में ये नहीं है, और गलती से यदि कोई चूं चपड़ करने की कोशिश करता भी है तो उसे उसकी औकात बता दी जाती है। संस्थान की ओर से स्थानीय स्तर पर ऐसे पत्रकारों को तरजीह दी जाती है जो इस व्यवस्था में खुद को सेट करते हुये दूसरे लोगों को इसी तर्ज पर हांकने की कला जानते हैं। सही मायने में बिहारी पत्रकारिता का असली प्रतिनिधित्व पत्रकारिता में सक्रिय यही तबका कर रहा है, और यह तबका पूरी तरह से सर्कस में करतब दिखाने वाले नटों की मुद्रा में है। इस तबका के लिए भी पत्रकारिता महज वेतन पाने का जरिया है, तमाशा करो और महीनवारी उठाओ। इनमें से तो कई लोग ऐसे हैं जो लंबे से विभिन्न अखबारों में काम कर रहे हैं लेकिन आज तक उन्हें ज्वाइनिंग लेटर भी नसीब नहीं हुआ है। अब जिसके हाथ में ज्वाइनिंग लेटर नहीं हो उसे बाहर का रास्ता दिखाने में किसी संस्थान को कितना समय लगेगा इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। बड़े ओहदें पर काम करने वाले कुछ लोगों को ठेकेदारी व्यवस्था के तहत रखा गया है, जिससे अंग्रेजी में कांट्रेक्ट बेसिस कहते हैं। यानि ठीक से करतब नहीं दिखाएंगे तो ठेकेदारी रद्द हो सकती है, समय के पहले भी।
अब रही बात रिपोटरों की तो उन्हें हांकने के लिए न्यूज एडिटर नाम का प्राणी ही काफी है। जिसे वह खबर मानता है उससे इतर जाकर कोई रिपोटर कुछ नहीं कर सकता है और इन न्यूज एडिटरों को भी पता है कि सुशासन को स्थापित करने वाली खबरें ही ऊपर के नुमाइंदों की नजर में खबर है। स्ट्रिंगरों की एक अच्छी खासी फौज यहां सक्रिय है जिनको भुगतान खबरों के आधार पर नापीजोखी करने के बाद दिया जाता है। इनसे धारदार पत्रकारिता की उम्मीद करना ही बेकार है, यदि कोई कोशिश भी करता है तो उसके धार की तेल निकालने के लिए अखबार के अंदर ही कई स्तर पर पहले से ही लोग बैठे हुये हैं।
बिहार में पत्रकारिता कितनी स्वतंत्र है इसके लिए किसी कमेटी की जांच रिपोर्ट की जरूरत नहीं है। एक अदना सा पाठक भी अखबारों के नाम पर मुंह सिकड़ोने लगता है और बेबाक शब्दों में कहता है, सब विज्ञापन छाप रहे हैं, खबरें हैं कहां अखबार में। अधिकतर खबरें भविष्य काल में लिखी जाती है, यह होगा, वह होगा।
बिहारी की पत्रकारिता अपने धार के लिए देशभर में जानी जाती रही है, फिलहाल यह दौर निश्चचत रूप से संकट का दौर है। उम्दा पत्रकारिता की लकीरें अब धुंधली हो चली है। जो बात पटना में आकर काटजू ने उठाई है, उसे यहां के पाठक महसूस कर रहे हैं। बेहतर होता कि बहुत पहले यहां उठ जाती। वैसे काटजू ने बिहार की पत्रकारिता को आत्मचिंतन के मुद्रा में तो ला ही दिया है, आने वाले समय में यहां की पत्रकारिता पर कितना फर्क पड़ेगा यह तो वक्त ही बताएगा, फिलहाल एक नई हवा तो चल ही पड़ी है।
Mr Alok Nandan,
I was at Patna for about 11 months. ( March 2011 to Feb 2012). The statement of Mr. Katju is not new for Bihar . All the news papers knows the fact but when you don’t have the news then you are bound to use such type of statement to complete the columns of the news paper. This is my feelings as I have little contact with media persons of Patna.
Your comments are very rude you can quote the same with some mild language. Your comments must be the eyeopener for persons related to news papers of Bihar.All the best to you.
Regards –
Praveer k Paul
+919532679185
क्या हाल चाल है सर जी, कंहा इतने दिनों से बीजी है .
एक बार भेट मुलाकात तो हो जाय
परनाम
९४३००५६९०६