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बेस्ट एंटरटेनमेंट एडिटर’ अवॉर्ड नवाजी गई रेखा खान

पिछले मंगलवार की वो दोपहर काफी उजली थी। मैं बहुत ही विनम्र और उत्साह महसूस कर रही थी। नरीमन पॉइंट स्थित यशवंतराव चव्हाण ऑडिटोरियम में मुझे सम्मानित किया जाने वाला था और इस बार ये अवॉर्ड था ‘बेस्ट एंटरटेनमेंट एडिटर’ का। बीते कई दिनों से काम के आधिक्य के कारण वक्त की किल्लत महसूस हो रही थी। खैर ये किल्लत तो अभी भी बनी हुई है, इसलिए इस पोस्ट को लिखने में समय लग गया. मगर मैं अपने फुल फॉर्म में अवॉर्ड की तैयारी पर थी। मेरी जुड़वा बेटियों (किश-मिश) में यों तो कई कलाएं और गुण हैं, और उन तमाम गुणों में एक आर्ट है, मेकअप का, तो मेरी किस ने मेरा सलीके से मेकअप किया,मेरे लिए ओला बुक की और मैं सेलिब्रिटी की तरह चल पड़ी पुरस्कार समारोह में। वहां पहुंचकर सुखद अहसास हुआ कि मेरे अलावा और भी कई जाने-पहचाने चेहरे थे। मैं पब्लिसिस्ट नमिता राजहंस की दिल से शुक्रगुजार हूं,जो इस पुरस्कार के लिए उन्होंने मेरा नाम चुना।

उद्घोषक ने जब मेरा परिचय देते हुए मुझे मंच पर पुरस्कार ग्रहण करने के लिए बुलाया, तो बहुत ही गर्व मह्सूस हुआ। मगर मैंने एक बात महसूस की है कि कई बार हम पर काम की जिममेदारी इतनी होती है कि हम अपनी उपलब्धियों का जश्न लंबे समय तक मना नहीं पाते। यही मेरे साथ हुआ अवॉर्ड लेते ही घड़ी की तरफ देखा तो बाप रे! पौने पांच बजने वाले थे और 6 बजे अँधेरी के जुहू पीवीआर में दृश्यम 2 का प्रेस शो था। मैं प्रायजकों से क्षमा याचं करते हुए सर्र से अपनी ट्रॉफी लेकर निकल पड़ी। जाहिर है, मुझे फिल्म का रिव्यू करना था किसी भी हाल में 6 बजे तक जुहू पहुंचना था और अब इतने कम समय में मेरी तारणहार मुंबई की लाइफ लाइन कहलाने वाली लोकल ही हो सकती थी। मैं काली-पीली टैक्सी पकड़ कर चर्चगेट पहुंची और अपने प्रिंसेज गाउन को संभालते हुए, अपने ढाई मीटर के दुप्पट्टे को रगड़ते हुए और हां, अपनी ऊंची-ऊंची हील में डगमागते हुए किसी तरह बोरीवली लोकल में चढ़ ही गई। मेरी ट्रॉफी थैली में थी और सीट पर बैठे-बैठे मैं सोच रही थी कि क्या मैं 5 बजकर 17 मिनट की इस लोकल से समय पर पहुँच पाउंगी? फिर लंबी सांस लेकर धैर्य धरा। अचानक मेरा हाथ अपनी ही ट्रॉफी से टकराया और चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी, मैंने सोचा, मेरा काम ही मेरी उपलब्धि है, इसी काम की प्रतिबद्धता के कारण मुझे पुरस्कार मिलते हैं। मैं बहुत शुक्रगुजार हूं, अपने काम की।
और हां आपको बता दूं कि मेरी 5-6 मिनट की फिल्म छूती, मगर मैं भागते, दौड़ते, कांपते-काँखते प्रेस शो में पहुंच ही गई।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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