महिला सुरक्षा में सतर्कता के मायने
दिल्ली के चर्चित दुर्भाग्यपूर्ण सामुहिक बलात्कार कांड के बाद महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उनकी सुरक्षा , उनके प्रति पुरुषों का नजरिया आदि मुद्दे एक बार फिर सार्वजनिक बहस के केंद्र में आ गए हैं. इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया में इस विषय से सम्बंधित जो मुद्दे महत्वपूर्ण रूप से बहस में बने हुए हैं उनमें एक मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे हादसों को कम करने के लिए महिलाओं को खुद भी सतर्कता बरतनी चाहिए अथवा नहीं. इन बहसों के दौरान दोनों पक्षों के द्वारा जो अनुदार रवैया अपनाया जा रहा है वह अत्यंत ही दुखद है. एक पक्ष जहाँ महिलाओं में ही सारा दोष खोजते नजर आते हैं वहीँ दूसरा पक्ष महिलाओं को स्वयं भी सतर्कता बरतने की किसी भी सलाह को ‘ पुरुषवादी नजरिये का परिचायक’ , ‘दकियानूसी विचारों का प्रकटीकरण’ आदि कहकर इसे सिरे से ख़ारिज करता दिख रहा है. वह पक्ष जो महिलाओं को उपभोग की वस्तु मात्र समझते हैं उनके लिए तो कोई भी तर्क बेमानी ही लगता है लेकिन दूसरा पक्ष जो महिला अधिकारों एवं उनकी सुरक्षा के लिए संवेदनशील दिखता है वह महिलाओं को स्वयं भी सतर्कता बरतने की सलाहों के प्रति इतना अनुदार क्यों है? यह समझ से परे है.
कल्पना कीजिये कि आज अगर ‘दामिनी’ जिन्दा होती तथा पूरी तरह से स्वस्थ्य होकर अपनी पढ़ाई के लिए दिल्ली में ही रह रही होती तो क्या अपने माता-पिता के तरफ से कोई पाबंदियाँ न होने के वावजूद वो अकेले घर से निकलने के पहले सौ बार नहीं सोचती? शायद वह शाम के बाद तो अकेले घर से निकलती भी नहीं. वह स्वयं तथा अपने परिवार के आधुनिक एवं प्रगतिशील सोच के वावजूद सावधानी तथा सतर्कता बरतती क्योंकि उसने अपने जीवन में एक ऐसा दर्दनाक क्षण देखा जिसमें उसने न केवल शारीरिक – मानसिक यातनाओं की पराकाष्ठा को सहा बल्कि यह भी अनुभव किया कि कुछ मनुष्यों का आचरण किस हद तक पाशविक व विभत्स हो सकता है.
मेरे एक रिश्तेदार दिल्ली में रहते है. वह आधुनिक व प्रगतिशील सोच के है. उन्हें एक ही लड़की है जो ग्रेजुएशन कर रही है. वह सिर्फ आधुनिक कपड़े ही नहीं पहनती है बल्कि वास्तविक आधुनिक सोच वाली तथा समझदार भी है. अभी हाल ही में बातचीत के क्रम में मुझसे उसने कहा कि देखिये मैं रात को सवेरे घर लौट आने की भरसक कोशिश करती हूँ. हलांकि मम्मी -पापा ने इसके लिए कभी कुछ नहीं कहा है. उसने आगे कहा कि यह सावधानी वह इसलिए बरतती है कि वह समझती है कि सिर्फ उसके आधुनिक और प्रगतिशील सोच के हो जाने से उसकी सुरक्षा की गारंटी नहीं हो जाती. दिल्ली की सड़कों पर पुरुषों के रूप में भेड़िये भरे -पड़े हैं और वह इन भेड़ियों से खुद की सुरक्षा सिर्फ कानून – व्यवस्था, पुलिस आदि के भरोसे छोड़ने का जोखिम नहीं ले सकती.
दरअसल, बलात्कार करने वाले सनकी – हवसी लोगों के मन में कानून, पुलिस आदि का डर नहीं के बराबर रहता है. वे अंजाम के बारे में शायद ही सोचते हैं. कड़े कानून, बलात्कार जैसी घटनाओं को कम करने में एक सीमा तक ही मददगार होंगे. हत्या के जुर्म में फांसी की सजा तक का प्रावधान है लेकिन इसके वावजूद हत्याएं रोज हो रहीं हैं. हत्या – बलात्कार करने वाले अधिकांशतः विकृत मानसिकता वाले लोग होतें हैं जो अपना भला-बुरा भी ठीक से नहीं सोचते. अपने अगल-बगल में सड़क दुर्घटना में किसी की मौत हो जाने के बाद कम से कम कुछ दिनों तक आम लोग सड़क पर यात्रा करते वक्त सावधानी बरतते हैं . घर में बच्चों को भी सड़क पर चलते वक्त सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं. दूसरे शब्दों में, किसी घटना – दुर्घटना का तात्कालिक प्रभाव तो कम से कम आम आदमी पर अवश्य ही पड़ता है. लेकिन दिल्ली में इस चर्चित बलात्कार की घटना के बाद माहौल गरम होने के वावजूद दिल्ली से ही छेड़छाड़ और बलात्कार की कई घटनाओं की रिपोर्टें आती रहीं . अभिप्राय यह कि इन सनकी लोगों पर ऐसी बड़ी घटनाओं का भी तात्कालिक प्रभाव तक नहीं पड़ता है तो दूरगामी प्रभाव की बात ही बेमानी है.
जहाँ तक कानून-व्यवस्था एवं पुलिस की मुस्तैदी का सवाल है, पुलिस की कार्यशैली जगजाहिर है. पुलिस अपना काम ठीक ढ़ंग से नहीं करती है इसमें शायद ही दो राय हो. हलांकि जहाँ तक सुरक्षात्मक उपायों की बात है पुलिस की भूमिका भी सीमित होती है. अमेरिका जैसे देश में भी बंदूकधारियों का आतंक यदा – कदा देखने को मिल जाता है. फिर भी पुलिस के सकारात्मक एवं प्रभावी कदम ऐसी घटनाओं को कम करने में कुछ हद तक ही सही मददगार जरुर साबित हो सकते थे लेकिन इतिहास देखते हुए इनसे उम्मीद कम ही रखा जाना चाहिए.
ऐसी परिस्थिति में तब जबकि हवसियों, बलात्कारियों की अच्छी खासी संख्या है और उनसे बचाने में पुलिस असमर्थ व असक्षम है तब महिलाओं की सुरक्षा का सवाल और भी बड़ा हो जाता है. ऐसी महिलायें व लड़कियां जो इस परिस्थिति को समझती हैं वे खुद भी अपनी तरफ से एहतियात बरतती हैं. अगर ऐसी स्थिती में किसी के द्वारा नेक उद्देश्य से महिलाओं को खुद भी सतर्कता व सावधानी बरतने की सलाह दी जाती है तो प्रत्येक ऐसी सलाह को दकियानूसी, रूढ़िवादी व पुरुषवादी मानसिकता का परिचायक मानकर इसकी आलोचना करना न ही उचित है और न ही संतुलित नजरिये का द्योतक. कई राज्यों में कई ऐसी जगहें हैं जहाँ शाम के बाद या कहीं – कहीं दिन में भी जान – माल का खतरा होता है और वहां लोग जाने में सावधानी वरतते हैं. उस समय अपनी सुरक्षा पहली प्राथमिकता होती है. पुरुष भी वहां जाने से डरते हैं तथा ऐसी जगहों पर अपनी तथाकथित मर्दों वाली बहादुरी दिखाने से परहेज करते हैं. ऐसी सावधानी वरतते वक्त लोग इसे अपनी ‘स्वतंत्रता में वाधा’ नहीं मानते.
कहने का अभिप्राय यह है कि जमीनी हकीकत से हमें मुंह नहीं मोड़ना चाहिए. अच्छी – अच्छी और आदर्शवादी बातें करना जितना आसान है परिस्थितियों को आदर्श बनाना उतना ही मुश्किल . एक तरफ आदर्शवादी बातें करते वक्त हम महिलाओं को सिर्फ जननी के रूप में देखतें हैं तो दूसरी तरफ व्यावहारिक जीवन में सिर्फ संगिनी के रूप में. आखिर यह विरोधाभासी आचरण क्यों? महिलाएं जननी भी हैं और संगिनी भी. किसी को भी महिला को संगिनी के रूप में भी देखने का पूरा अधिकार है लेकिन शर्त यह कि उसका दिल जीत कर.
महिलाओं को भी अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीने का सामान अधिकार है. क्लबों, पार्टियों में महिलाओं का जाना कतई बुरा नहीं है. खुल कर खुशियाँ मानना पुरुषों का ही एकाधिकार नहीं है. लेकिन साथ ही इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि अपनी सुरक्षा के प्रति स्वयं सतर्क रहना सबसे अच्छा विकल्प है. अतः हर ऐसी सलाह दकियानूसी सोच का ही परिचायक हो जरुरी नहीं है ठीक उसी तरह जिस तरह यह जरुरी नहीं कि टीवी बहसों में महिला स्वच्छंदता के खिलाफ एक शब्द भी सहन नहीं करने वाले बुद्धिजीवी तथा महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में कार्यरत प्रगतिशील महिलाएं, अपने घर की लड़कियों को सुरक्षात्मक कारणों से देर रात तक पार्टियों में जाने से नहीं रोकते हों .
धर्मवीर कुमार, बरौनी.
bahut hee achchha article. santulit vichar ko prakat kiya gaya hai