राजनीतिक महौल तैयार कर रहे हैं प्रेमी जोड़े
आज प्यार की दुनिया झूम रही है। छोटे- बड़े शहरों में प्रेमी जोड़ों की हवा बह रही है। उनकी प्राकृतिक उर्जा को फिल्म, टीवी सीरियल और अन्य प्रोग्रामों की घुट्टी पिला कर समय से पहले हीं गतिशील कर दिया जा रहा है। बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जा रहे हैं। मां-बाप आश्चर्य से अपने बच्चों की परिपक्वता निहार रहे हैं। तकनीकी विकास से भरी दुनिया लड़के-लड़कियों के हर परिवर्तन को स्वीकृति दे रही है।
पार्कों में दिन-प्रति-दिन प्रेमी जोड़ों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। दिल्ली और मुंबई तक ही युवा पीढ़ी का यह रुप सीमित नहीं है। छोटे शहरों में भी यह फैलाव तेजी से हुआ है। पहले पुलिसिया तैश इन जोड़ों पर कहर बन कर टूटता था और समय –समय पर इनकी पिटाई की खबर अखबारों में आती रहती थीं। ये जोड़े शिव सेना जैसे संगठनों के भी शिकार होते रहे हैं। समाज की तीरछी नजर तो इन पर हमेशा बनी ही रहती है। लेकिन इन विपरित परिस्थितियों में भी ये अपनी विजय का पताका फहरा रहे हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था भी इनकी ताकत को समझने लगी है क्योंकि प्रगतिशील राजनीतिक महौल बनाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि अदालती निर्णय भी इनके प्यार को ही पोषित कर रहे हैं।
आखिर प्यार क्या है? क्या इन सभी जोड़ों का अस्तित्व प्यार की नींव पर ही टिका है? आखिर ये किन विचारों से संचालित हो रहे हैं? प्यार की यह उड़ान किस मंजिल को पाना चाहती है? या यूं कह कर निकल लो कि ये सब बेकार की बातें हैं। लेकिन इन प्रश्नों के जवाब देने की अपेक्षा निकलने का रास्ता भी आसान नहीं है। दिल्ली के बुद्धा पार्क, पुराना किला, इंडिया गेट, इंद्रप्रस्थ पार्क से लेकर अन्य छोटे पार्क तक इन जोड़ों के मजबूत अस्तित्व का अहसास दे रहे हैं। इन पार्कों में इनकी प्यार भरी बातों का सिलसिला खत्म होनें का नाम ही नहीं लेता। प्यार से एक दूसरे से लिपट कर बैठना इनकी फिदरत है जो इन जोड़ों के वर्ग को अपनी एक अलग पहचान दे रहा है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अंदर ये महफूज हैं लेकिन लखनऊ, पटना, भोपाल जैसे शहरों में ये कभी पुलिस के हत्थे चढ़ जाते हैं तो कभी पारंपरिक संगठनों के गुस्से का शिकार बनते हैं।
प्रेमी जोड़ों का यह वर्ग साधन संपन और ताकतवर नहीं है। वास्तव में, यह एक भयभीत वर्ग है जिसे अपने परिवार, समाज, पुलिस और समाज के ठेकेदारों से भय है। छोटे शहरों में तो इनकी सबसे बड़ी परेशानी लफंगों के वे समूह हैं जो इन पर फब्तियां कसते हैं, उनसे छेड़-छाड़ करते हैं। बदनामी इन के सर पर छाने के लिए मडराती रहती है। सामाजिक लांछन का डर बना रहता है। लेकिन इन सारी परिस्थितियों को चुनौती दे कर यह वर्ग अपनी बहादूरी का भी परिचय देता रहा है।
सबसे आश्चर्य की तो बात यह है कि इस वर्ग का राजनीतिक महत्व बढ़ा है। ये किसी भी पार्टी के पक्ष में महौल तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाने लगे हैं। पहले इस वर्ग में राजनीतिक चेतना का अभाव था। ये आपस में राजनीतिक बातें भी नहीं करते थे। सबसे पहले साम्यवादी खेमा ने इनकी ताकत समझी और इनकी आजाद उड़ान का पक्ष लिया जिसका एक आदर्श स्थान दिल्ली में जेएनयू बन गया। बाद में कांग्रेस इनकी रहनुमा बनी और देश के गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने स्पषट शब्दों में आदेश दिए कि इन प्रेमी जोड़ों को दिल्ली पुलिस पार्कों और सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा और सम्मान दे। इस वर्ग ने विशेषरुप से राहुल गांधी के राजनीतिक महौल को तैयार करने का काम किया है। इस तर्ज पर बिहार में नीतीश कुमार ने भी इस वर्ग को अपने पक्ष में किया है। लालू यादव के राज में यह वर्ग सबसे ज्यादा त्रस्त था और इसके अस्तित्व पर ही खतरा मडरा रहा था। बिहार पुलिस का रोब इन पर चलता था। व्यवस्था इनसे सहयोग करने को तैयार न थी। कमोबेश मुलायम सिंह के राज में उतर प्रदेश की भी यही स्थिति थी। भाजपा संघ के प्रभाव में आ कर इस वर्ग की ताकत को पहचानने से कतराती रही है।
प्रेमी जोड़ों का यह वर्ग नि श्वार्थ और भावपूर्ण है। इस वर्ग का फैलाव भी बड़ी तेजी से हो रहा है। युवापन और मानसिक स्वतंत्रता इसकी खाशियत है। अत एक समझदार राजनीतिज्ञ थोड़े से प्यार और सम्मान से इन प्यार करने वालों को अपना बना सकता है। लेकिन राजनीतिज्ञों को परेशानी इस बात से होने लगती है कि यह वर्ग सामाजिक मान्यताओं और जातिगत धारणाओं पर भी प्रहार कर रहा है जिसका आधार ले कर बहुतों की राजनीति चल रही है।
अविनाश जी, इस वक्त युवाओं को सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘वीरों का कैसा हो वसन्त’ याद आनी चाहिए लेकिन युवा मुन्नी और शीला के इर्द-गिर्द मंडराने में लगे हुए हैं। मेरे कहने का अर्थ गलत नहीं लगा लेंगे कि मैं इन चीजों को जीवन विरोधी मान रहा हूं।
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