अंदाजे बयां

आरक्षण का भस्मासुर

पूर्व मेजर सरस त्रिपाठी

आपको यह जानकर सबसे अधिक आश्चर्य होगा कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ी जातियों को जो आरक्षण दिया गया है उसको देने या पाने में इन जातियों का कोई हाथ नहीं है । आरक्षण की व्यवस्था के सारे कर्ता-धर्ता सिर्फ दो जातियों के लोग रहे हैं: सबसे अधिक ब्राह्मण और उसके बाद क्षत्रिय। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि आरक्षण मांगने के लिए कभी भी जन आंदोलन नहीं हुआ।

आगे मैं आपको क्रमवार बताऊंगा कि किस तरह से ब्राह्मणों और क्षत्रियों के नेतृत्व वाली विभिन्न सरकारों ने आरक्षण का सारा जाल बुना । यह आश्चर्य का विषय है कि सारी आरक्षण की व्यवस्था ब्राह्मण और क्षत्रियों ने की लेकिन उनको इसका कोई श्रेय नहीं मिलता बल्कि बदले में उन्हें अनवरत गालियां दी जाती हैं, उन्हें अत्याचारी, भेदभाव करने वाला, शोषक इत्यादि के विद्रूप से नवाजा जाता है और तथाकथित “दलितों” का दुश्मन बताया जाता है। देश के आजाद होने के बाद 26 जनवरी 1950 जो संविधान लागू हुआ उसमें किसी तरह के आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। 1932 में महात्मा गांधी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बीच जो पूना पैक्ट साइन किया गया था, संविधान बनने के बाद उसका कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं रह गया था बल्कि वह एक नैतिक जिम्मेदारी रह गया था। परंतु इस बात का ध्यान रखा गया था कि संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान किए जाएं जिससे तथाकथित दलित और सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को कुछ सहूलियत प्रदान की जा सके । वैसे भी गांधी-अम्बेडकर समझौते में तथाकथित दलितों को केवल जनप्रतिनिधित्व के लिए ही सहूलियत दी जानी थी (लोकसभा एवं विधानसभा में सीटें सुरक्षित करके)। लेकिन जब संविधान लिखा गया तो उसमें कहीं भी नौकरी या शिक्षा संस्थानों में आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की गई।

भारत के पहले प्रधानमंत्री “पंडित” नेहरू ने पहला संवैधानिक संशोधन आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान करने के लिए ही किया। जैसा कि आप जानते हैं संविधान के अनुच्छेद 14 में इक्वलिटी बिफोर लॉ यानी कानून के समक्ष समानता का अधिकार दिया गया है । अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, जन्मस्थान इत्यादि के आधार पर भेदभाव का निषेध किया गया है। अनुच्छेद 16 में भी सरकारी सेवाओं में बराबरी का अधिकार (equality in public employment) का प्रावधान है । यानी सरकारी नौकरियों में भी बराबरी का अधिकार प्रदान किया गया है। “पंडित” नेहरू ने आरक्षण प्रदान करने के लिए इसी अनुच्छेद के साथ छेड़छाड़ की और इसमें उप-अनुच्छेद (4) घुसा दिया। इसी के तहत यानी 16 (4) के अंतर्गत आरक्षण के प्रावधान की व्यवस्था की गई ।

यहां ध्यान देने योग्य सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आरक्षण का यह सारा प्रावधान सिर्फ अगले10 वर्षों तक के लिए (1961 तक) ही था।

याद रहे यह पहला संवैधानिक संशोधन करने का कहीं से कोई दबाव नहीं था। यह बताना भी आवश्यक है कि भारत के पहले जनरल इलेक्शन के बाद डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की स्थिति अत्यंत कमजोर हो गई थी क्योंकि मुंबई पश्चिम से वह अपना लोकसभा का चुनाव हार गए थे और वह कांग्रेस पार्टी का हिस्सा भी नहीं थे। परंतु खोखली सदाशयता का प्रदर्शन करते हुए “पंडित” जवाहरलाल नेहरू ने उनको अपने कैबिनेट में शामिल किया और भारत का पहला कानून मंत्री होने का गौरव प्रदान किया । यहीं से बिना मांगे दिए जाने वाले आरक्षण की कहानी शुरू होती है । 18 जून 1951 को एक संवैधानिक संशोधन कर संविधान के अनुच्छेद 16 में उप-अनुच्छेद 4 डालकर आरक्षण की व्यवस्था की गई और इसके अंतर्गत अनुच्छेद 341 और 342 में अनुसूचित की गई जातियों को कुल 23% आरक्षण प्रदान किया गया। अनुच्छेद 16 (4) के अंतर्गत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को (SC and ST) 23% आरक्षण सिर्फ नौकरियों में दिया गया था । शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था । 1982 में “पंडित” जवाहरलाल नेहरु की सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी (तत्कालीन प्रधानमंत्री) ने आरक्षण की इस 23% की व्यवस्था को सभी शिक्षा संस्थानों में भी लागू कर दिया । इस तरह हमारे साथ शिक्षा संस्थानों में भी भेदभाव प्रारंभ हो गया।

लेकिन आरक्षण के बड़े बदलाव की आधारशिला गैर-कांग्रेसी सरकार द्वारा 1978 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रखी गई । मोरारजी देसाई भी एक ब्राह्मण (गुजराती) ही थे । 1977 में आपातकाल के अत्याचार के बाद आम चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी थी। 1977-78 में जो गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी उसमें अन्य पिछड़े वर्ग के नेताओं का काफी दबदबा था। उनके दबाव में आकर या उन्हें प्रसन्न करने के लिए मुरारजी देसाई ने मंडल आयोग का गठन किया । बी पी मंडल, जो कि बिहार के रहने वाले थे, की अध्यक्षता में मंडल आयोग गठित किया गया और बिना किसी प्रकार के अध्ययन और अनुसंधान के आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट भी प्रस्तुत कर दी । इसके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थ को छोड़कर लगभग सभी जातियों को आरक्षण की श्रेणी में रखने की संस्तुति की गई। क्योंकि देश में जाति पर आधारित आंकड़े उपलब्ध नहीं थे इसलिए 1931 की जनगणना, जो कि विभाजन के पूर्व हुई थी और जो लगभग 50 वर्ष पुरानी थी, को आधार बनाकर 27% आरक्षण प्रदान करने की संस्तुति की गई। इसे लागू करने के लिए विचार किया जाए इसके पहले ही 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई ।

10 वर्षों तक यह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही और यह रिपोर्ट किसी योग्य भी नहीं थी क्योंकि यह अनुसंधान अध्ययन एवं प्रामाणिक (authentic) आंकड़ों के आधार पर तैयार नहीं की गई थी, ना ही इस को तैयार करने का आधार वैज्ञानिक था । देश का दुर्भाग्य था कि 1989 से लेकर 2014 तक देश में गठबंधन की सरकारों (coalition government/ politics) का प्रचलन रहा। यह सरकारें बिना किसी रीढ़रज्जू के थी और एक या दूसरे गुट के दबाव में आकर के राष्ट्र के हित के विरुद्ध निर्णय लेती रही । 1987 में राजीव गांधी की सरकार में वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने, प्रधानमंत्री की आकांक्षा लिए राजीव गांधी के विरुद्ध बोफोर्स दलाली के बहाने मोर्चा खोल दिया । वह मांडा (इलाहाबाद जिले की एक छोटी सी रियासत) के पूर्व राजघराने के थे और बताने की आवश्यकता नहीं कि क्षत्रिय (ठाकुर) थे । बोफोर्स की नाव पर चढ़कर वह 1989 में भारत के पहले “गठबंधन” प्रधानमंत्री बने । अपने स्वार्थ वश और अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट निकाली और उसे लागू करने का ऐलान कर दिया। देश में भयानक विद्रोह फैल गया। पूरे देश में विद्यार्थियों ने इस भेदभाव पूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन किए। कई ने आत्मदाह किया। दिल्ली में राजीव गोस्वामी को कोई नहीं भूल सकता। इस भेदभाव पूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध उन्होंने आत्मदाह किया। कितने ही नौजवान लाठी और गोली के शिकार हुए। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अन्य पिछड़ी जातियों (other backward caste) के नाम पर 27% आरक्षण उन जातियों को दिया जो ना तो शेड्यूल कास्ट शेड्यूल ट्राइब थे और ना ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या कायस्थ थे। अपने समर्थकों को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने कुछ अन्य दबंग जातियों को भी अन्य पिछड़ी जात से बाहर रखा जैसे हरियाणा के जाट, गुजरात के पटेल, महाराष्ट्र के मराठा, तथा अन्य कई जातियां जिनका यहां पर नाम गिनाना आवश्यक नहीं है । मूलत: यह यादव, कुर्मी और काछी को प्रसन्न करने के लिए किया गया था। इस प्रकार 1989-90 में आरक्षण का दायरा 23% से बढ़कर 50% हो गया ।
क्रमशः जारी..
( लेखक के निजी विचार हैं)

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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