सम्पादकीय पड़ताल

राहें कब आसान थी !

अनिता गौतम

बिहार की राजनीति इन दिनों दो धुरी के इर्दगिर्द घूम रही है। एक ओर केंद्र में मोदी के नेतृत्व में काबिज होने के बाद बीजेपी बिहार में छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर मजबूत लामंबदी करने में जुटी है, तो दूसरी ओर नीतीश कुमार और लालू के नेतृत्व में महागठबंधन के तहत नरेंद्र मोदी के खिलाफ मजबूत किलाबंदी की जा रही है। इस महागठंबन में कांग्रेस भी शामिल है। इस किलेबंदी का उद्देश्य नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकना और बिहार में बीजेपी को हर हाल में सत्ता से दूर रखना है।

लोकसभा चुनाव के पूर्व जिस तरह से नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को लेकर अड़ गये थे उसके बाद से बिहार की राजनीति ने यू-टर्न ले लिया था। उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एक बार फिर एक ही मंच पर नजर आएंगे और कांग्रेस भी उनके साथ बगल में खड़ी होगी।

बिहार की राजनीति में नीतीश और लालू ने राजनीति की शुरुआत कांग्रेस विरोध से की थी। कांग्रेस के परिवारवादी संस्कृति के खिलाफ दोनों ने मोर्चा खोला था, और देखते-ही-देखते दोनों बिहार की राजनीति में कद्दावर नेता का दर्जा हासिल करते चले गये। बिहार में लालू के नेतृत्व में सरकार बनी और कुछ दिन नीतीश कुमार भी लालू के सत्ता के सूत्रधार की भूमिका में कदमताल करते रहे। लेकिन बहुत जल्द ही महत्वकांक्षी नीतीश कुमार ने अलग राह पकड़ ली। उस वक्त लालू की राजनीति परवान चढ़ रही थी। नेता से गरीबों का मसीहा बनने की राह पर वे निकल चुके थे। गरीबों-पिछड़ों को लेकर एक के बाद एक पटना के गांधी मैदान में रैली-रैला करके राष्ट्रीय राजनीति में अपना कद ऊंचा करते हुये बिहार में सामाजिक न्याय के विरोधियों के मनोबल को ध्वस्त करने में लगे हुये थे।

समय के साथ ‘सामाजिक न्याय’ की आंधी कब ‘जंगलराज’ में तब्दील हो गई स्वयं लालू प्रसाद को भी पता नहीं चला। बीजेपी के झंडे तले लालू विरोधी शक्तियां जंगलराज का हौव्वा खड़ा करने में अपनी पूरी ताकत झोंके हुये थी। ‘चारा चोर गद्दी छोड़’ के नारे बिहार में गूंज रहे थे। इस दौरान नीतीश कुमार ने भी पूरी तरह से लालू विरोधी रूख अख्तियार कर लिया था। कभी उनके साथी रहे रामविलास पासवान भी लालू पर लगातार हमले कर रहे थे।

इसी माहौल में बिहार विधान सभा के चुनाव भी हुये और रामविलास पासवान के हाथ में थोड़ी देर के लिए सत्ता की कुंजी भी आ गई, लेकिन तत्कालीन  केन्द्र सरकार  के दबाव में आकर वे सरकार बनाने से चूक गये। नीतीश कुमार को सरकार बनाने का मौका तो मिला लेकिन सत्ता का अंकगणित उनके खिलाफ था इसलिए वे ज्यादा देर तक टिक नहीं सके। आंकड़ों से मात खाकर जमीनी स्तर पर व्यवहारिक राजनीति के व्याकरण को समझते हुये नीतीश कुमार और बीजेपी ने साथ-साथ लालू के तथाकथित जंगलराज को चुनौती देना ही मुनासिब समझा। इस दौरान नीतीश कुमार राजनीति की सीढ़ी पर लगतार आगे बढ़ते रहे। बिहार की जनता के सामने खुद को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करते रहे और बीजेपी को पीछे-पीछे चलने पर मजबूर किया। बीजेपी भी समय की नजाकत को देखते हुये नीतीश कुमार की पिछलग्गू बनी रही।

नीतीश कुमार और बीजेपी के नेतृत्व में बिहार से जंगल राज के सफाये के नारे को बिहार की जनता ने जोरदार समर्थन दिया और देखते-देखते बिहार से जंगल राज के खात्मे की बात की जाने लगी। सत्ता में आने के तुरंत बाद नीतीश कुमार ने कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में ध्यान दिया और इस मकसद में वे बहुत हद तक कामयाब भी हुये।

नीतीश के नेतृत्व में सुशासन आने की घोषणा जोर-शोर से की जाती रही। राष्ट्रीय मीडिया भी बिहार में सुशासन पर सुर में सुर मिलाती नजर आने की लगी। बीजेपी के साथ नीतीश कुमार के गठबंधन का दूसरा सत्र भी जारी रहा और पहले की तरह ही बीजेपी इस बार भी नीतीश की पिछलग्गू बनकर ही सत्ता का स्वाद चखती रही। जंगल राज के खात्मे के बाद दूसरे विकास की बात होने लगी। दूसरे टर्म में विकास का मुद्दा ही हावी रहा लेकिन जंगल राज की भी याद लोगों को बार-बार दिलाई जाती रही। जंगल राज, लालू के खिलाफ अहम हथियार बना रहा।

दूसरे टर्म में भी नीतीश कुमार और बीजेपी गठबंधन को सफलता हासिल हुई और लोगों को लगने लगा कि बिहार विकास की पटरी पर चढ़ चुका है। इस बीच नीतीश कुमार ने अपनी भावी राजनीति को ट्रैक पर दौड़ाने के लिए बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का पासा फेका। बिहार के हित और विकास के नाम पर एक बार फिर उनके कार्यकर्ता पूरी तल्लीनता से इस कार्य में भी जुट गये।

उन्हें पूरा यकीन था कि बिहार का विकास ही काफी नहीं है सत्ता पर काबिज रहने के लिए उन्हें और भी दूसरे हथकडों की आवश्यकता पड़ेगी। इस तरह से विशेष राज्य का उनका यह मुद्दा बिहारवासियों को जोड़ने में तो सफल दिखा पर इसे जमीन पर उतारना दूर की कौड़ी थी।

इसी बीच ठीक लोकसभा के चुनाव के पहले बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को आगे रखकर दाव लगाने का निर्णय कर लिया और नीतीश कुमार, जो अब तक बीजेपी को साथ लेकर चल रहे थे, नरेंद्र मोदी के नाम पर बिदक गये। यह उनकी राजनीतिक मजबूरी थी। काफी जतन से उन्होंने बिहार में मुसलामनों को अपने हक में करना शुरु किया था। इसके साथ उनकी छवि एक सेक्यूलर नेता की बनी हुई थी और इस छवि से वो किसी भी कीमत पर समझौता करना नहीं चाहते थे।

नरेंद्र मोदी का नाम सामने आते ही उन्होंने अलग राह पकड़ ली। बीजेपी ने भी रातो-रात पैतरा बदल लिया। नीतीश को लेकर हमलावर हो गये। बिहार की राजनीतिक दिशा ही बदल गई। मजबूरी की दोस्ती फिर से दुश्मनी में तब्दील हो गई।

लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजपी को मिली अप्रत्याशित सफलता ने लालू और नीतीश को अपनी दुश्मनी खत्म करने के लिए विवश कर दिया। उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि यदि बिहार में बीजेपी के रथ को थामना है तो उन्हें एक साथ आना ही होगा। वे अलग-अलग रहकर मोदी लहर का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। बदली राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस भी महागठबंधन की दावत में शामिल हो गई। साथ ही जनता से यह बात भी छुपी नहीं रही कि किस तरह से मांझी विरोध और दुबारा बिहार की सत्ता पर काबिज होने में नीतीश कुमार के पसीने छूट गये।

राजनीति में सबकुछ जायज है के तर्ज पर, अपने बढ़े हुये आत्मविश्वास के साथ नीतीश कुमार और लालू यादव अब खुलकर ताल ठोकने लगे।, और बीजेपी एक बार फिर जंगल राज और विकास के नाम पर बिहार के लोगों को गोलबंद करने में लग गई। बिहार की व्यवहारवादी राजनीति को समझते हुये नीतीश और लालू जातीय गोलबंदी को भी दुरुस्त करने में लग गये। इसके लिए प्रखंड स्तर से लेकर जिला स्तर तक लगातार बैठकें हुई। इस बीच बीजेपी लगातर इस तर्क के साथ अपनी दलील देती रही कि यदि बिहार में बीजेपी की सरकार बनती है तो केंद्र से बिहार को वह सबकुछ आसानी से मिल जाएगा जिसके लिए बिहार लंबे समय से तरस रहा है।

बिहार में पिछले कई सालों से केंद्र के मुखालफत सरकार बनती रही है, जिसका खामियाजा प्रदेश को भुगतना पड़ा है। बीजेपी का यह तर्क बिहार में एक बड़े तबके को अपनी ओर आकर्षित भी कर रहा है। हालांकि नीतीश कुमार के बिहार को विशेष राज्य के दर्जे को अब भाजपा के द्वारा पूरी तरह से नकार दिया गया है।

बहरहाल आने वाले समय में बिहार में किसकी सरकार बनेगी और कौन विपक्ष में बैठेगा यह बताना बहुत मुश्किल है। क्योंकि राजनीति आकड़ों का गणित है, और बिहार की चुनावी बिसात में खिलाड़ी तो वही है बस उनकी जगह बदल गई है। संख्या बल किसके साथ होगा और सत्ता कौन सी करवट लेगी, राजनीति के लिहाज से बिहार की जमीन दोनों पार्टियों के लिए मुश्किल दिख रही है।

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