रोटी की तलाश में (कविता)
(कुलदीप सिंह ‘दीप’)
रोटी की तलाश में
सुबह से शाम होती है
वक़्त नहीं मिलता
तेरे बारे में सोचने तक का
फिर भी तेरा पयाम मिला
तुम लौटना चाहती हो
वापस इसी शहर में
जिससे तुम्हे नफरत हो गयी थी
अपनी मर्ज़ी से छोड़ गयी थी एक दिन
मेरे लाख मना करने के बावजूद
अब वापसी करने का क्या फायदा
अब नहीं होते कवि सम्मलेन
अब नहीं होती गोष्ठियां
नहीं जमते मजमे
नहीं उठते तूफ़ान चाय की प्याली में
अब तो यदा कदा ही
इक्कठे देखे जा सकते हैं चार लोग
कहीं ज़नाजे या शव-यात्रा में
प्रेम तो मोबाइल की तरह हो गया है
अब सड़क पर नहीं पड़े मिलते
लव लेटर
अब तो पाए जाते हैं
लाटरी के टिकट और निरोध
लोग बतियाते हैं
दिल्ली क्या बोली
चंडीगढ़ क्या आया
लड़कियों की तो पूछ ही मत
इतना ढक लेती है अपने आप को
खुदकी लड़की को पहचानना
दुश्वार सा हो गया है
प्यार के नाम पर
देह का कारोबार
खूब फल-फूल रहा है
इसी बीच मैं भी
बच्चों की चिंता में
घुटता पिसता हाड मांस का
कंकाल मात्र रह गया हूँ
आ जाओ कभी भी
पर पक्का नहीं कह सकता
मिल भी पाउँगा या नहीं
क्योंकि रोटी की जुस्तजू में
सुबह से शाम होती है
हर रोज अब तो
जिंदगी यूँही तमाम होती है .
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I realy lik ths type post, i thnk it’s truth of prsent time life, nd we h,v 2 thnk about it nd h’v 2 do somthng abot it,