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विश्व भूख सूचकांक में भारत 65 वें नम्बर पर

सुनील दत्ता .पत्रकार//

(1995 – 96 के बाद से पिछले 16 – 17 सालो में इसमें कोई सुधार नही हुआ | 1996 में इसके भूख सूचकांक का स्कोर 22.6 था | अब 2012 में इसका 65 वे पायदान पर रहकर इसके सूचकांक का स्कोर 22.9 है)

विश्व भूख सूचकांक में शामिल कुल 79 देशो में भारत 65 वे नम्बर पर है | साफ़ है कि भारत विश्व के भूख से सर्वाधिक पीड़ित देशो में से एक है | केवल 14 देश इससे ज्यादा पीड़ित है | इससे उपर के विकसित , विकासशील व पिछड़े देशों की स्थिति भारत से बेहतर है | भारत के पड़ोसी देशों में बंगला देश को छोड़कर बाकी सभी देशो की — लंका , पाकिस्तान , नेपाल की स्थिति भारत से बेहतर है | बांग्ला देश 68 वे नम्बर पर अर्थात भारत से तीन अंक नीचे है तो नेपाल 60 वे नम्बर पर , पाकिस्तान 57 वे नम्बर पर और लंका 37 वे नम्बर से क्रमश: 5 अंक 8 अंक और 28 अंक उपर है | फिर इसके अलावा हर समय चीन के आर्थिक वृद्धि व विकास की तुलना और उसे अपना प्रमुख प्रतियोगी बताने के वावजूद भूख की स्थिति में भारत और चीन की स्थिति में भारी अंतर है | चीन सूची में लगभग भुखमुक्त देश के रूप में दूसरे नम्बर पर है , अर्थात भारत से 63 अंक उपर है |

फिर मामला केवल विश्व भूख सूचाकांक में कितना ऊपर या नीचे के रैंक या नम्बर का ही नही है , बल्कि उसकी गिरती व चढ़ती दशा का भी है | बहुतेरे देशों का रैंक चढती दिशा का भी है | अर्थात पहले वे विश्व भूख सूचाकांक में काफी निचले पायदान पर थे , पर अब उन्होंने अपने देशो में भूख की स्थिति में कुछ सुधार और वह भी उत्तरोत्तर सुधार हासिल किया है | यहाँ तक कि अफ्रीका के अत्यंत पिछड़े देशों की स्थितियों में भी कुछ सुधार हुआ है | पर भारत की स्थिति में कोई सुधार नही हुआ है | सूचनाओं के अनुसार 1995– 96 के बाद से पिछले 16 — 17 सालो में इसमें कोई सुधार नही हुआ है |1996 में इसके भूख सूचाकांक का स्कोर 22.6 था | अब 2012 में इसका 65 वे पायदान पर रहकर इसके सूचकांक का स्कोर 22.9 है |
अहम सवाल है कि देश के बहुप्रचारित तीव्र आर्थिक वृद्धि व विकास के इस दौर में राष्ट्र में भूख कुपोषण की स्थिति में सुधार हुआ क्यों नही ? वह ज्यों का त्यों क्यों कर रह गया |

लेकिन इस सवाल पर आने से पहले यह जान लेना बेहतर रहेगा कि विश्व भूख सूचकांक के लिए किसी देश में कुपोषित व अल्प पोषित स्थिति का निर्धारण प्रमुखत: देश के बच्चों के औसत से कम वजन, तथा शिशु मृत्यु दर की स्थितियों से निर्धारित किया जाता है | बात भी ठीक है , क्योंकि भूख व कुपोषण से नवजात शिशुओं से लेकर 5 — 6 साल के बच्चों का सर्वाधिक प्रभावित होना एकदम स्वाभाविक है और इसे प्रत्यक्ष: देखा व समझा जा सकता है | क्योंकि गर्भावस्था से लेकर बच्चों की यह प्रारम्भिक अवस्था उनके सर्वाधिक तीव्र शारीरिक वृद्धि एवं मानसिक विकास की होती है | इसीलिए भूख व कुपोषण का प्रभाव भी उन पर सबसे ज्यादा व गहरा होता है | विश्व भूख सूचकांक को इंटरनेशनल फ़ूड पालिसी रिसर्च इंस्टीटयूट द्वारा तैयार व जारी कराया जाता है | दिलचस्प बात यह भी है कि भूख , कुपोषण के इस व ऐसे अन्य आंकड़ों का वास्तविक इस्तेमाल अब किसी राष्ट्र व समाज से भूख व कुपोषण मिटाने की दिशा में लक्षित नही रह गया है | इसकी जगह उसका वास्तविक इस्तेमाल राष्ट्र व समाज में भूख व गरीबी की इन स्थितियों को दिखाकर ऐसे आर्थिक नीतियों सुधारों को लागू करना हो गया है , जो भूख कुपोषण तथा अभाव गरीबी की समस्याओं से मुक्त धनाढ्य , उच्च एवं सुविधा प्राप्त मध्यम वर्गियों की सेवा कर रही है | उनकी धनाढ्यता उच्च्त; एवं सुख सुविधा को बढ़ाती जा रही है | साथ ही आम समाज में सर्वाधिक निम्न वर्ग को तथा अधिकाँश निम्न मध्यम वर्गियों को बढ़ती महगाई , बेकारी , अभाव , गरीबी , भुखमरी , कुपोषण के गर्त में ढकेलती जा रही है |

यही कारण है कि इस देश में 1995 — 96 से लेकर 2012 तक के 17 सालों के दौरान आर्थिक वृद्धि एवं विकास की रफ़्तार तेज होने के वावजूद भूख सूचकांक की स्थितियों में कोई बदलाव नही हुआ है |
इस बीच शासकीय एवं प्रचार माध्यमी बयानों प्रचारों के जरिये यह भी समझाया जाता रहा है कि देश के जनसाधारण में मौजूद अभाव भूख एवं कुपोषण को दूर करने के लिए इन आर्थिक सुधारों को लागू किया जाना और इसका फल जनसाधारण तक पहुंचाया जाना जरूरी है | लेकिन यही नहीं होना था और हुआ भी नहीं | क्योंकि इन नीतियों प्रस्तावों के जरिये जनसाधारण की स्थितियों में वास्तविक एवं स्थायी सुधार की जगह उसका कटाव — घटाव होना था और वह होता भी रहा | उसे अधिकाधिक संकटों में ढकेलता जाता रहा | साधनहीन व अधिकारहीन बनाने का काम किया जाता रहा | भूख सूचकांक में भारत की स्थिति की सूचना देते हुए प्रचार माध्यमी विद्वान् यह देना नही भूले हैं कि इन वर्षो में भारतवासियों की औसत आय दो गुनी हो गयी है | जबकि प्रचार माध्यमी व हुकुमती हिस्से यह बात बखूबी जानते है कि इस औसत में 10% धनाढ्य एवं उच्च वर्ग के खरबपतियों , अरबपतियो व करोडपतियो की आय तथा 15% मध्यम व्र्गियो के लाखो की आय तथा लगभग 75% जनसाधारण का नगण्य ( हजार या सैकड़ो की आय ) का औसत शामिल है |
इस सच्चाई के वावजूद राजनितिक तथा विद्वान् इस औसत के जरिये समूचे देशवासियों की आमदनी दुगनी बताने से बाज नही आते !! यह जनसाधारण के साथ धोखाधड़ी नहीं तो और क्या है ? इनके इस रुख — रवैये से हुकुमती व प्रचार माध्यमी हिस्सों द्वारा देश में भूख व कुपोषण की स्थितियों पर रोना रोने की सच्चाई को भी समझा जा सकता है | तेज आर्थिक वृद्धि से देश में गरीबी , भुखमरी दूर करने के झूठे प्रचारों को भी समझा जा सकता है | इसे सबूत के रूप में खाद्यान्नों के भंडार भरे रहने के वावजूद उसके वितरण में किये जाने के प्रति उपेक्षा को भी देखा व समझा जा सकता है | फिर इसका सबसे बड़ा सबूत भुखमरी मिटाने के लिए आवश्यक कृषि क्षेत्र पर चौतरफा बढाये जा रहे संकटो से और संकट ग्रस्त होते तथा आत्म हत्या करते किसानों के रूप में भी देखा व समझा जा सकता है |
इस देश के हुक्मरान व प्रचार माध्यमी स्तम्भ भी जानते हैं कि गरीबों को सस्ता अनाज दे देने मात्र से उनकी कुपोषण व भुखमरी का अंत नही होता है | इसके वावजूद वे इसे व अन्य सामाजिक सेवाओं को ही अभाव व भुखमरी से पीड़ित जनसाधारण का इलाज मानते व बताते रहे है | लेकिन क्यों ? ताकि अभाव गरीबी भूख एवं कुपोषण से पीड़ित होते जा रहे तथा जनसाधारण को यह लगे कि उनकी समस्याओं पर चिंताए हो रही हैं | उसके लिए फौरी व दूरगामी समाधान निकालने के प्रयास किये जा रहे हैं | यह जन साधारण के साथ गरीबी , भूख , कुपोषण से पीड़ित जन समुदाय के साथ नौनिहालों व बच्चों के साथ की जा रही धोखाधड़ी है | धनाढ्य वर्गीय तथा जनविरोधी नीतियों सुधारों के जरिये जनसाधारण के व्यापक हिस्से को अधिकाधिक गरीबी भुखमरी व कुपोषण की तरफ ढकेलने की चलाई जा रही प्रक्रिया है | साथ ही उन्हें भूख , कुपोषण से मुक्त कराने देने के प्रचारों की धोखाधड़ी भी है

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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