सपनों के व्याकरण को समझने की मेरी ललक
अचानक आपकी नींद टूट जाती है और चाह कर कर यह याद नहीं कर पाते हैं सपने में आप क्या देख रहे थे हालांकि इस बात का आपको अहसास होता है कि सपना सुखद था, और इस सपना को देखने के दौरान आपके होठों पर मुस्कान दौड़ रही थी। कुछ सपने लंबे समय तक आपकी जेहन में रचे बसे रहते हैं। सपनों की एक जटिल दुनिया है। सपनों के व्याकरण को समझने की कोशिश मैं लंबे समय से कर रहा हूं।
पिछले कुछ दिनों से सपनों के संसार पर लिखने की इच्छा हो रही थी, और एक-एक करके सपनों से संबंधित तमाम बातों को अपने दिमाग में आर्गेनाइज कर रहा था ताकि इससे संबंधित अपनी समझ को शब्दों में ढाल सकूं।
सपनों के बारे में दिलचस्पी सिगमंड फ्रायड को पढ़ने के बाद हुई थी। अचेतन मन की गतिविधियों के रूप में रेखांकित करते हुये फ्रायड ने सपनों का विश्लेषण करने का एक मैथेड दिया था। फ्रायड की एक पुस्तक मुझे स्कूल में ही हाथ लगी थी। स्कूली किताबों से मेरा कभी लगाव नहीं रहा। लेकिन पुस्तके पढ़ने की आदत बहुत पहले ही लग चुकी थी।
पटना पुस्तकों के मामले में शुरु से ही समृद्ध रहा है। पहले तो सड़कों पर पुस्तकें बिखरी होती थी, रादुका प्रकाशन की पुस्तकें। सोवियत संघ के दौर में शहर भर में तरह-तरह की पुस्तकों का अंबार लगा रहता था। इनकी कीमत भी काफी कम होती थी। मात्र पचास रूपये में आपको एक से एक पुस्तकें पढ़ने को मिल जाती थी। अब तो चारों तरफ कंपटीशन की पुस्तकों की भरमार है, वो भी ऊंची कीमत पर। पटना में चारों तरफ इंजीनीयरिंग, मेडिकल और बैंकिंग की तैयारी कराने वाली कोचिंग संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई है। इनके होर्डिंग पटना में चारो तरफ लगे हुये हैं, फलना सर की केमिस्ट्री की क्लास, फलना सर की मैथेमैटिक्स की क्लास, फलना सर की फीजिक्स की क्लास…क्लास ही क्लास। इन होर्डिंगों को देखकर लगता है कि बिहार सही मायने में प्रतियोगिता के ट्रैक पर दौड़ रहा है। यहां के युवा पूरी तरह से मैकेनिकल हो गये हैं। कभी पटना के गली कूचों में वैचारिकता हावी थी। मुझे याद है युवाओं की टोली लंबी वैचारिक बहसों में उलझी रहती थी। और अक्सर ये बहस आधी रात तक चलती थीं। कोई मार्क्स के डायलेक्टिल थ्योरी के आधार पर अपनी बात को आगे बढ़ाता था तो कोई हिटलर के मीन कैंफ के आधार पर आगे बढ़ता था। यहां तक कि सपनों को लेकर भी तरह-तरह की वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक व्याख्यायें होती थी। लेनिन ने कहीं समझा रखा था कि व्यक्ति का दिमागी विकास सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है, matter is mind and mind is matter के मार्क्सवादी फार्मूले को केंद्र में रखते हुये। यानि व्यक्ति का दिमाग पूरी तरह से सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है, जैसा समाज होगा वैसा ही व्यक्ति का दिमाग होगा। यहां तक कि सपने भी सामाजिक परिवेश की चादर में लिपटे होते हैं।
फ्रायड ने मुझे सपनों पर एक और नजरिये से सोचने के लिए बहुत सारे खुराक दिये थे। फ्रायड ने सपनों को दमित इच्छाओं के साथ जोड़ा है। मसलन आप किसी परिचित के घर में जाते हैं, वहां आपकी नजर उस परिचित परिवार के किसी महिला सदस्य पर पड़ती है और फिर आपके मन में उसे छूने या हासिल करने की इच्छा होती है। लेकिन सामाजिक व्यवस्था और नैतिकता की वजह से आप उस इच्छा की हत्या कर देते हैं। वही इच्छा आपके अचेतन मन में दमित इच्छा के रूप में प्रवेश कर जाती है और फिर कई अंदर ही कई तरह से मूव करती है। जब सोते हैं तो यही दमित दमित इच्छा सपनों में विभिन्न रूपों में पेश आती है। फ्रायड ने मानव मस्तिष्क को सेक्स से जोड़ दिया है। फ्रायड के सिद्धांत में सेक्स पक्ष हावी है। इससे इतर सपनों का एक व्यापक संसार धर्म ग्रंथों में फैला हुआ है।
मुझे ओल्ड टेस्टामेंट के जोसेफ की कहानी याद आ रही है। जो बचपन से ही सूरज, चांद और ग्रह-नक्षत्रों के साथ-साथ अपने परिवार के सदस्यों को अपने सामने झूकने के सपने देखा करता था। इन्हीं सपनों की वजह से उसके अपने भाई लोग उसके शत्रु हो गये थे। बाद में एक यात्रा के दौरान उन्होंने जोसेफ मरने के लिए अकेला छोड़ दिया था। गुलाम के रूप में उसे मिस्र लाया गया। सपनों की बेहतरीन व्याख्या करने की वजह से वह जेल से वहां के राजा फराओ का करीबी हो गया। फराओ लंबे समय से एक सपना देख रहा, और जोसेफ ने उस सपने की व्याख्या की थी। सपने का विश्लेषण करते हुये उसने राजा को बताया था कि आने वाले पांच साल मिस्र के लिए हराभरा रहेगा और अगले पांच साल जबरदस्त सूखा पड़ने वाला है। उसकी व्याख्या से प्रभावित होकर फराओ ने मिस्र के अर्थव्यवस्था की जिम्मेदारी जोसेफ को ही सौंप दी थी। बाद में जोसेफ ने अपने सभी यहूदी परिजनों को मिस्र ले आया था और इस तरह से मिस्र में यहूदियों का प्रवेश हुआ था। सपनों की व्याख्या करने की वजह से ही जोसेफ को मिस्र में फराओ के करीब जगह मिला और बाद में वहां यहूदियों का बसने का मौका। सपनों का अध्ययन करने के दौरान फ्रायड ने सपनों से संबंधित धार्मिक और पौराणिक कथाओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। घूमफिर कर वह सेक्स पर ही जोर देता रहा। एक सपने की वजह से यहूदियों का पूरा कूनबा मिस्र में बस जाता है यह उसे दिखाई नहीं दिया।
मुझे लगता है कि सपनों का संसार जितना रहस्मय है, उसका प्रभाव भी उतना ही व्यापक है। व्यक्ति, समाज और इतिहास पर सपनों का जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। तभी तो बंद आंखों के साथ खुली आंखों से देखी गई सपनों की भी खूब बाते हैं। पंजाब का लोकप्रिय जनकवि पाश तो यहां तक कहता है कि सबसे बुरा है सपनों का मर जाना। यदि खुली आंखों से देखे जाने वाले सपनों को लेकर बिहार के संदर्भ में बात की जाये तो वाकई में यहां विजनरी नेताओं की कमी दिख रही है। राजनीति के सारे तंत्रम यहां मौजूद है, धर्म है, जाति है, गोलबंदी है, भाषण है, आरोप-प्रत्यारोप है, लेकिन सपने नहीं है और यदि हैं भी तो महज सीमित। महान उद्देश्यों को लेकर लोगों को चलायमान बनाने वाले सपने यहां के राजनेताओं की आंखों में नहीं है। बिहार ‘बॉक्स पॉलिटिक्स’ के चपेट में है। बिहार की राजनीति से विचार छिटकता हुआ दिख रहा है। प्रैक्टिकल पोलिटिक्स के आधार पर ही यहां के राजनेता एक खेमे से दूसरे खेमे में आ-जा रहे हैं। बेशक बिहार को सपनों की दरकार है, ऐसे नेताओं की दरकार है जो खुली आंखों से सपने देखते हो, बिहार की नई पीढ़ी तो वैश्विक इकोनोमिक को अपनाते हुये अपने आप को हुनरमंद करके कमाई करने की जुगत में लगी हुई है- यहां की राजनीति में न कोई नया चेहरा दिख रहा है और न हीं कोई नया नारा सुनाई दे रहा है। क्या हम कुछ नये सपने साथ मिल कर बुन सकते हैं? यह सवाल खुद से भी है और आप से भी?