‘अगले जनम मुझे बाबू ही कीजो‘

0
56

मनोज लिमये,

वर्तमान समय में बाबुओं के घर से हड़प्पा-मोहन जोदडो की तर्ज पर लगातार मिल रही चल-अचल संपत्ति मेरे लघु मस्तिष्क पर हावी होती जा रही है। बाबू प्रजाति में ऐसे फिलासॉफिकल डायमेंशन मुझे पहले कभी नजर नहीं आए थे। आज मुझे सरसरी तौर पर अपने बाबू नहीं होने का जो अफसोस हो रहा है वो पीडा कालिदास की शकुंतला की पीड़ा से भी बडी है। अपने अल्प अनुभव और सीमित ज्ञान से मैं बाबुओं के विषय में जितना जानता था वो तमाम भ्रांतियों की दीवारें ताश के पत्तों के समान भरभरा कर गिर रही हैं। देवनागरी की प्रचलित दो कहावतों (पहली…. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता और दूसरी… अकेली मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है) में से चयन करना मुश्किल हो गया है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इस करोडीमल बाबू वाले प्रकरण में कौन-सी कहावत का अनुयायी बनूं। यदि पहली को सही मानता हूं तो अर्थ होगा कि प्रत्येक बाबू करोड़पति नहीं होता और दूसरी के पक्ष में मतदान किया तो अर्थ होगा कि पूरी की पूरी बाबू प्रजाति ही शायद करोड़पति है। देवनागरी भी कठिन समय में सहयोगी दलों की तरह साथ छोड़ रही है।

बाबुओं के घर से निकल रही यह संपत्ति इस बात की द्योतक है कि आगामी समय में बाबू बनने की डिमांड चहूं और पूरजोर होने वाली है। आज बाबू शासकीय नौकरी में लक्ष्मी पूजा के महत्व को शिरोधार करते हुए आईएस अधिकारियों की तर्ज पर लोकप्रियता शिखर छूने का जोखिम उठा रहे हैं। बाबुओं के घर से निकलती यह करोडों रूपयों की बारात फाईलों के बोझ में दुबके हुए बैठे अन्य बाबुओं को भी संशय के घेरे में ला रही है। जिन कार्यालयीन बाबुओं ने दिनभर में दो-तीन पान चबा लेने को रईसी समझा हो, जिन्होंने सब्जी मंडी में लोकी-गिलकी के भाव-ताव में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हो तथा जिन्होंने शाम के वक्त पजामे-बनियान में रेकेट हाथ में थाम रोजर फेडरर के अंदाज में सिर्फ मच्छर मारे हों ऐसे पवित्र बाबुओं के बारे में समाज की राय का यकायक बदल जाना चिंतनिय विषय है।

बाबुओं के पास से करोडों रूपए निकलने के इस समाचार ने समानांतरीय व्यवस्था के अन्य विभागीय पदाधिकारियों को भी चिंता मग्न कर दिया है। वो दिन दूर नहीं जब हम जगह-जगह बाबू बनाने वाले कोचिंग क्लासेस के बडे-बडे होडिंग देखें। बच्चे भी शायद अब बडे होकर डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनना ना चाहे और ना ही पालकों का कोई दबाव इस दिशा में होगा। बड़े ओहदों पर जाने की तैयारियों में भी कोई व्यर्थ ही अपना अर्थ और श्रम क्यों जाया करेगा? जब पहली पायदान पर ही लक्ष्मी जी भर-भर के कृपा दृष्टि लूटाने को आतुर हों, तब ऊपरी पायदान को लक्ष्य बनाने का क्या फायदा या यूँ कहें कि जब खिडकी से ही चांद के दर्शन हो रहे हों तो छलनी लेकर छत पर टहलने से क्या मतलब?

रात्रि के समय खाना खाने के पश्चात पान खाने की संस्कृति मुझे चैराहे वाले पान ठेले पर खेंच ले जाती है। पान अभी लगा भी नहीं था कि पान वाले के रेडियो पर गीत के बोल सुनाई दिए…. छैला बाबू तू कैसा दिलदार निकला चोर समझी थी मैं थानेदार निकला….। इस गीत को ना तो मैंने पहले कभी गंभीरता पूर्वक सुना था और ना ही इसके शब्दों की गंभीरता को भांप पाया था। पान की दुकान से पान की जुगाली करते-करते वापसी के समय गीत के शब्दों ने मुझे विचार सागर में गोते लगाने को मजबूर कर दिया। इस गीत ने कुछ क्रांतिकारी कार्य किया था या नहीं इस बात का मुझे ज्यादा इल्म नहीं परंतु इस गीत ने निम्न-मध्यवर्गीय बाबूओं की सामाजिक प्रतिष्ठा की पुर्नस्थापना का जो महत्वपूर्ण कार्य किया होगा वो निश्चित प्रशंसनीय था। इस गीत के लिखे बोल आज के बाबुओं के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित हो गए हैं छैला बाबू तू कैसा दिलदार निकला चोर समझी थी मैं भ्रष्टाचार निकला….

मनोज लिमये

9, शिव शक्ति नगर ऐनेक्स

कनाड़िया, इंदौर

मो. 09425346687

मउंपसरू उंदवरसपउंलम/लंीववण्बवण्पद

Previous articleतीसरा मोर्चा और मुलायम की पुरानी चाहत
Next articleपहचान (कविता)
सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here