पटना को मैंने करीब से देखा है (पार्ट-5)

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रेलवे लाइन पर वर्चस्व को लेकर जंग

हिंसा एक स्वाभाविक गुण है- रग-रग में स्वस्फूर्त तरीके से दौड़ने वाली चीज- और यदि इसे परिष्कृत रूप में व्यक्त किया जाये तो निसंदेह यह अचंभा पैदा करती है। दुनिया के जितने भी मिलिट्रीतंत्र हैं, या रहे हैं, वे सब परिष्कृत हिंसा के तौर-तरीकों के बेहतर नमूने हैं, और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किस्म-किस्म के मिलिट्रीतंत्रों ने समय-समय पर दुनिया के नक्शे को अपने मनमुताबिक ढालने की सफल और असफल कोशिशें की हैं, बेशक इनसानी खून की कीमत पर। मिलिट्रीतंत्र के निर्माता इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि व्यक्ति के अंदर व्याप्त हिंसा को कैसे और ऊंचाई दी जा सकती है। जेपी आंदोलन की अधकचरी हिंसा के बाद वर्षों तक खामोशी का माहौल रहा। इस आंदोलन की पूरी शक्ति इंदिरा गांधी के खिलाफ तानाबाना बुनने में लगी रही, और अंदर ही अंदर पूरा आंदोलन महत्वकांक्षी नेताओं की महत्वकांक्षा का शिकार होती चली गई। हाथ जोड़कर कुर्सी पकड़ने से इनकार करके जेपी ने वही मनोवैज्ञानिक गलती किया था, जो 1947 के लंगड़ी आजादी के पहले मोहनदास करमचंद गांधी ने किया था, माहात्मा का चादर ओढ़कर। सत्ता के घोड़े पर सवार हुये बिना इसका लगाम थामने की कोशिश करना व्यापक जनसमुदाय को खतरे में डालने जैसा है। मोस्यू मोहनदास करमचंद गांधी और जय प्रकाश नारायण का आंदोलन कुछ ऐसा ही निष्कर्ष देता है। 

जेपी आंदोलन में एक सक्रिय सेनानी के तौर पर लालू यादव अपनी पहचान बनाने में सफल हुये थे, और बाद में सत्ता के छिन-झपट में डेमोक्रेटिक नार्म्स का पालन करते हुये अव्वल रहे और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चढ़ बैठे। बाद में देश में विभिन्न स्तर पर अव्यवस्थित लेकिन धारधार हिंसा का माहौल बना और लालू यादव ने पिछड़ों और गरीब-गुरबा के नाम पर हिंसा की लगाम को थामते हुये बिहार की भौगौलिक सीमाओं से निकल कर एक राष्ट्रीय राजनेता की छवि तो अख्तियार कर लिया, लेकिन हिंसा में इस्तेमाल किये जाने वाले लोगों को एक व्यवस्थित तंत्र के तहत नहीं ला पाने का खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा, और नौबत यहां तक आ गई कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपना सीट बचाने के लिए भी उनके दांत से पसीने छूट गये।

जेपी आंदोलन का दौर एक अव्यस्थित हिंसा और पुलिसिया दमन का दौर था, कम से कम लोगों के मुंह से जो कुछ भी निकलता था उसका लब्बोलुआब यही था। इस आंदोलन के ठीक बाद का पुनाईचक का नया जेनरेशन हिंसा से लबरेज था, हालांकि इस जेनरेशन पर जेपी आंदोलन का दूर-दूर तक कोई असर नहीं था, सब के सब मानव के अंदर व्याप्त सहज हिंसा की प्रवृति से संचालित होकर खून खराबे की बेतरतीब शैली को अंगीकार कर रहे थे। 

उन दिनों विभिन्न मुहल्लों के बच्चों में हिंसा को बेतरतीब तरीके से उगते और फूटते हुये सहजता से देखा जा सकता था। पुनाईचक और बोरिंग रोड के लड़कों के बीच हमेशा टशन की स्थिति रहती थी, ठीक वैसे ही जैसे

सामान्यतौर पर दो प्रतिस्पर्धी मुहल्ले के लड़कों के बीच होती है, लेकिन इनका आपस में भिड़ने की शैली अत्यंत घातक थी।  पुनाईचक और बोरिंग रोड के बीच एक रेलवे लाइन थी, जो दीघा तक जाती थी, और
इस रेलवे लाइन पर वर्चस्व को लेकर दोनों मुहल्ले के लड़कों में ठनी रहती थी। कई मायनों में यह रेलवे लाइन दोनों मुहल्लों के लड़कों को एक-दूसरे से जोड़ता भी था और तोड़ता भी था।   

उन दिनों इस रेलवे लाइन पर खटर-खट करती हुई सिर्फ एक मालगाड़ी चलती थी। गाड़ी के आने का कोई निश्चित समय नहीं था, लेकिन वह दूर से ही सीटी बजाते हुये आती थी, जिसके कारण लोग रेलवे लाइन पर बंधे हुये अपने-अपने जानवरों को हटा लेते थे। कभी-कभार कोई बकरी गाड़ी के चपेट में आ जाती थी तो लोग कुछ देर तक एक दूसरे को भला-बुरा कहते हुये अपने अपने कामों में लग जाते थे, और बकरी का मालिक हाय हाय करता रहता था। दोनों मुहल्लों के लड़कों के लिए पतंगबाजी करने, कंचा खेलने, जुआ खेलने, सिगरेट और बीड़ी धूकने का यह मुख्य अड्डा था। शाम होते ही सैंकड़ों की तादाब में दोनों मुहल्ले के लड़के यहां जमा हो जाते थे, और विभिन्न टोलियों में बंटकर तरह तरह के कामों में लगे रहते थे। रेलवे लाइन से सटे डोमों के मिट्टी के घर बने हुये थे, जिनमें से दमघोटू बदबू आती थी। अपने घर के बगल में ही उन्होंने मिट्टी से घेरकर बिना छत के डिब्बानुमा कई खाने बना रखे थे, जिनमें दजर्नों सूअर लेटे रहते थे, उनके मुंह से निकलने वाली खर्राटो से ऐसा लगता था कि वे लगातार एक दूसरे पर गुर्रा और हाफ रहे हैं। रेलवे लाइन का इस्तेमाल अगल-बगल के लोग टट्टी के लिए करते थे, जिसके कारण सुअरों को भरपूर खुराक उपलब्ध होता जाता था। 

बाड़े में पड़े हुये सुअरों पर निशाना साधकर पत्थर चलाने की होड़ अक्सर लगती रहती थी, और इसकी शुरुआत कैसे होती थी किसी को पता नहीं चलता था। सुअरों पर पत्थर चलाते-चलाते यदि गलती से किसी दूसरे मुहल्ले के लड़के की ओर पत्थर उछल जाता था तो फिर देखते ही देखते रेलवे लाइन का पूरा सीन ही बहल जाता था। दोनों मुहल्ले के लड़के कुशल सैनिकों की तरह अपना-अपना पोजिशन लेकर एक दूसरे पर निशाना साधने लगते थे और अगल-बगल के मकानों में खड़े लोग काफी दिलचस्पी के साथ इस तरह के खौफनाक जंग को देखते थे। यह लड़ाई अंधेरा हो जाने तक चलते रहती थी, और अंत में जो पक्ष हावी हो जाता था वह दूसरे पक्ष के लड़कों को दूर तक खदेड़ता था। हाथ लगने की स्थिति में उनके नाक-मूंह से खून निकालने के लिए उनमें होड़ सी लग जाती थी। उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि वे लोग किसी जुनूनी हवा के शिकार हैं, और यदि उन्हें नहीं रोका गया तो वे लोग हाथ आये लड़के के शरीर से खून की अंतिम बूंद तक बहा देंगे। बेहतरीन पत्थरबाजी के कारण पुनाईचक के लड़कों का पलड़ा अक्सर भारी रहता था।

यह लड़ाई बदस्तूर जारी रहती थी, हफ्तों, महीनों और सालों तक। यहां तक कि एक मुहल्ले के लड़के दूसरे मुहल्ले में प्रवेश करने के पहले हजारों बार सोचते थे। दूसरे मुहल्ले में पकड़े जाने की स्थिति में छोटे-मोटे प्यादे तो ऐसे ही रौंद दिये जाते थे, लेकिन गैंग के खतरनाक योद्धाओं पर हाथ डालने से दोनों मुहल्ले के लड़के परहेज करते थे। इसका मुख्य कारण दोनों मुहल्लों का सामाजिक तानाबाना था। पुनाईचक तो पूरी तरह से यादव बाहुल मुहल्ला था, और बोरिंग रोड में भी कमोबेश यादवों का ही वर्चस्व था। ऐसी स्थिति में दोनों तरफ के यादव एक तरह से अज्ञात सुरक्षा कवच के घेरे में रहते थे, शामत धोबी, कहार, नाई, आदि जातियों के लड़को  की आती थी। लेकिन उस वक्त इस जंग का खास असर लड़कों के दिमाग के साथ-साथ उनके व्यवहार पर भी पड़ रहा था, युद्ध करने के कुशल तौर-तरीकों को वे लोग सहज रूप से अपना रहे थे। दूसरे के कैंप में घुसकर जासूसी करने से लेकर रेड मारकर टारगेटेड लड़कों का नाक-मुंह फाड़ने तक की पूरी प्रक्रिया बच्चों में व्याप्त सहज युद्धवृति का ही शानदार प्रदर्शन था।

निर्माण के बजाय ध्वंस की प्रवृति प्रकृति के काफी करीब है, यही कारण है कि बच्चे ध्वंस करने के लिए तुरंत तत्पर हो जाते हैं। ध्वंस की प्रवृति को आधार बनाकर जिस सभ्यता ने अपने शिक्षण व्यवस्था का विकास किया है, उस सभ्यता से जुड़े लोगों का डंका दूर-दूर तक बजा है। स्पार्टा के सैनिकतंत्र की सफलता इसी सच्चाई को पूरी मजबूती से स्थापित करती है। वहां पर बच्चों को शुरुआती दौर में ही कड़े अनुशासन में रखकर ध्वंस करने की कला सीखाई जाती थी, और यही बच्चे बड़े होकर हाथों में तलवार लेकर जोशीले गीतों के साथ दुनिया जीतने निकल पड़ते थे। बाद के दौर में फ्रेडरिक द्वितीय से लेकर हिटलर और स्टालिन तक का सैनिक तंत्र स्पार्टा संस्कृति का ही विस्तार है। लेकिन इस तरह के लड़ाके तंत्रों को हांकते रहने के लिए उनमें सेंटिमेंट का ईंधन डालना जरूरी हो जाता है।

जेपी आंदोलन के बाद मोस्यू लालू यादव के इर्दगिर्द इस तरह के तंत्र का ताना-बाना उगने लगा था, और इस ताने बाने में वह सेंटिमेंट का ईंधन भी प्रचुर मात्रा में डालते रहे, लेकिन इस तंत्र के छोटे-छोटे तंतुओं को जोड़ने में वो पूरी तरह से असफल रहे या फिर यह कहना ठीक होगा उनको जोड़ने की योग्यता उनमें नहीं थी, हालांकि प्रकृति ने उन्हें इसके लिए भरपूर अवसर दिया। सामाजिक न्याय का नारा उछाल कर उन्होंने सामंतवाद व परिवारवाद के खिलाफ अलख जगाकर एक बहुत बड़े तबके को आंदोलित तो कर दिया, लेकिन शारीरिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर इस आंदोलन में शामिल उनलोगों को जो नीचले पायदान पर खड़े थे, लेकिन जिन्होंने अग्रणी पंक्ति में खड़े होकर लालू यादव के हुंकार को दूर-दूर तक पहुंचाया था एक सुसंगठित तंत्र में ढालने में नाकामयाब रहे। अनुशासनहीनता की ओर तेजी से बढ़ते हुये मोस्यू लालू यादव ने सामाजिक न्याय को धकेल कर पीछे कर दिया और इसके स्थान पर पारिवारिक न्याय को तरजीह देने लगे और इसके साथ ही उनका किचेन कैबिनेट भी बेलगाम होकर खुद उनकी लोकप्रियता को भी निगलता चला गया, और इस किचेन कैबिनेट के अग्रणी बने मोस्यू सुभाष यादव और मोस्यू साधु यादव। उनके नेतृत्व में कई नये सामंती चेहरे सामने आये, और उनके ग्रासरूट को छपटते चले गये।       

बहरहाल पुनाईचक के यादवों का सामाजिक बुनावट भी पूरी तरह से सामंती ढांचा को ही अपनाये हुये था। घर का कमान मर्दों के हाथ में होता था, यहां तक कि स्थानीय गांववाले अपने घर की लड़कियों को स्कूल भेजने से भी कतराते थे। लड़कियां दीवारों के अंदर रहती थी, घर के काम काज करती थी और लड़कों के लिए पूरा आकाश खुला हुआ था, लेकिन दूर तक उड़ान मारने के लिए जिस तरह के तंत्र की उन्हें जरूरत थी, वह मुहैया नहीं था। पुनाईचक चौराहे के पास एक एक सरकारी स्कूल था, जिसमें लड़कों की शिक्षा परंपरागत तरीके से होती थी। हालांकि उस स्कूल में भी अधिकतर गउंवा वालों के बजाय बाहर के लोगों के ही बच्चे पढ़ने जाते थे। बोरिंग रोड के बच्चे भी यहीं पढ़ने आते थे और इस तरह से पुनाईचक का पलड़ा उनपर स्वाभाविक तौर से भारी पड़ता था।

पुनाईचक के पश्चिम में राजवंशी नगर का इलाका पड़ता था, जहां पर सरकारी फ्लैटों की अधिकता थी। सरकारी बाबू लोग इस इलाके में बड़े आराम से अपने बाल बच्चों के साथ रहते थे। यह इलाका खुला-खुला सा था। लंबी दूरी तक सभी मकान एक जैसे थे, और सड़के भी चौड़ी थी। इस इलाके पर भी पुनाईचक पूरी तरह से दबदबा था। पुनाईचक के उत्तर का पूरा इलाका पूरी तरह से खाली था। दूर-दूर तक मकान भी नजर नहीं आते थे।

पुनाईचक की आपसी शक्ति को भोज-भात में स्पष्टरूप से महसूस किया जा सकता था। एक बेहतरीन गांव की तरह भोज-भात के दौरान लोग एक साथ पांत में बैठकर आपस में हंसी-मजाक करते हुये खाते और अघाते थे। भोज-भात का सिलसिला देर रात तक चलता रहता था, और खाने का स्टाईल पूरी तरह से देहाती था।

 मैकियावेली अपनी प्रसिद्ध पुस्तक प्रिंस में सत्ता प्राप्त करने के तमाम तरह के संसाधनों का जिक्र करते हुये उनलोगों का भी जिक्र करता है, जो सत्ता की प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लाठी और डंडे के जोर पर काबिज सत्ताधीश को वह सलाह देता है कि एक बार सत्ता में आने के बाद ऐसे सत्ताधीश को तत्काल लोक कल्याणकारी कार्यों में लग जाना चाहिए, और जितना जल्दी हो सके उसे अपने पुराने छवि से छुटकारा हासिल करना चाहिए। जेपी मूवमेंट के अगले दौर में मोस्यू लालू प्रसाद यादव डेमोक्रेटिक तोड़जोड़ करके सत्ता पर काबिज तो हो गये, लेकिन लगातार लोगों को डंडा और झंडा उठाये रखने के लिए उकसाते रहे। पुनाईचक की एक मुश्त आबादी ने हर स्तर पर जाकर उनका साथ दिया था, लेकिन इस आबादी को कुछ वापस दे पाने में उनसे चूक हुई।      

जारी……( अगला अंक अगले शनिवार को)

1 COMMENT

  1. लालू राज में अपने शिक्षक-पिता की माली हालत देख कर एक बच्चे का कुछ ये कहना था.

    पापा का प्रमोशन भी तुमने रुकवाया,
    वेतन ना देकर सितम ढा रहे हो
    भूखे सो रहें हैं, इतने पर तो छोडो,
    इस हालत में हमसे भीख मंगा रहे हो,

    एक बच्चे का पोषण यहां सम्भव नहिं है
    तुम नौ-नौ बच्चों के खर्चे चला रहे हो.
    मेरि गैया है भूखी, गवत मांगती है,
    तुम पशुओं का चारा भी खा जा रहे हो.

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