सिर्फ शहरी आबादी तक सीमित है अन्ना हजारे का आंदोलन
दिल्ली में जंतर-मंतर पर आयोजित अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी जलसे में लोगों के आने जाने का सिलसिला जारी है। विभिन्न पेशे और उम्र के लोग बहुत बड़ी संख्या में इसमें शिरकत कर रहे हैं। प्रिंट मीडिया में और इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी अन्ना हजारे के आंदोलन को सकारात्मक टिप्पणियों के साथ जोर शोर से उछाला जा रहा है, यहां तक अन्ना हजारे को देश का दूसरा गांधी कहा जा रहा है। लेकिन क्या वाकई में अन्ना हजारे का आंदोलन पूरे देश को आंदोलित किये हुये है या फिर यह आंदोलन सिर्फ शहरी हलकों तक ही सिमटा हुआ है?
अभी तक जो तस्वीर दिखाई दे रही है उससे यही पता चलता है कि इस आंदोलन में अभी तक सिर्फ शहरी लोगों की ही भागीदारी है, खासकर पढ़े-लिखे तबके का। जंतर मंतर पर वही लोग जुट रहे हैं जिनकी रोजी-रोटी की जुगाड़ शहरों में है। डाक्टर, वकील, पत्रकार, छात्र, प्रोफेसर आदि इस आंदोलन की ओर ज्यादा आकर्षित हैं। फिल्मी हलकों से भी अन्ना हजारे को जोरदार समर्थन मिल रहा है, लेकिन अभी भी देश की एक बहुत बड़ी आबादी अन्ना हजारे के आंदोलन से पूरी तरह से दूर है। कहा जाता है भारत किसानों का देश है, यहां की 70 फीसदी आबादी किसानों की है। इसी तरह मजदूरों की भी अच्छी खासी संख्या है। अन्ना हजारे के इस आंदोलन में इन दोनों की उपस्थिति अभी तक न के बराबर है, और अभी तक इस आंदोलन में किसानों और मजदूरों के शामिल होने का कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहा है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन एक शहरी आंदोलन है। इसमें वे लोग शामिल हैं जो भ्रष्टाचार से सीधे रूप से प्रभावित हैं, और पर्दे के पीछे से इस आंदोलन का नेतृत्व भी उन्हीं लोगों के हाथों में है जिनका संबंध शहरों से है।
वैसे अनशन के दौरान अन्ना हजारे ग्राम सभाओं की ताकत को पूरे दमखम से से उठा रहे हैं और बार-बार कह रहे हैं कि सबका मालिक ग्राम सभा है। ग्राम सभा के वोटर ही असली हुक्मरान है, और उन्हीं की बात को सर्वोपरि रखा जाना चाहिये। अन्ना हजारे ग्राम सभा के सबसे ताकतवर संस्था होने की बात तो कर रहे हैं लेकिन अभी तक उनकी आवाज का असर गांवों में नहीं दिखाई दे रहा है। जंतर मंतर पर चलने वाली हरकतों से भारत का ग्रामीण अंचल पूरी तरह से अछूता है। ऐसे में मीडिया जिस तरह से अन्ना हजारे को दूसरा गांधी साबित करने पर तुला है उससे मीडिया के मानसिक स्तर पर ही सवाल उठता है।
भ्रष्टाचार की बेचैनी गांवों में भी कम नहीं है, यदि देखा जाये तो भारत के गांव यहां की शहरों की तुलना में भ्रष्टाचार से ज्यादा पीड़ित है। तमाम सरकारी योजनाएं गांवों में आकर दम तोड़ देती है। जन लोक पाल बिल को तैयार करने वाले लोग शहरी पृष्ठभूमि के हैं, शायद यही वजह है कि इसको लेकर लड़े जाने वाली लड़ाई में किसानों की भूमिका को पूरी तरह से गुम कर दिया गया है और मजदूरों को इस काबिल ही नहीं समझा गया है कि वे इनके साथ इस लड़ाई में शामिल हो भी सकते हैं।
मीडिया की गिद्ध दृष्टि- खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की- हमेशा शहरी आबादी पर रहती है, इस लिहाज से अन्ना हजारे का आंदोलन मीडिया फार्मेट के पूरी तरह अनुकूल है। जंतर मंतर पर लगभग सभी मीडिया हाउसों ने अपना ओबी लगा रखा है, और 24 घंटा के लाइव प्रसारण का जुगाड़ बना लिया है। इनका सीधा सा फार्मूला है, भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग बोल रहे हैं,ये शहरी लोग हैं, इनके कपड़े अच्छे हैं, हाथों में घड़ी है, पाकेट में माल भी है, इनको बेचे जायो। ये लोग अब तो क्रांति हो गई। अन्ना हजारे को गांधी बना दो, इस पूरे आंदोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई बना दो. दूसरे शब्दों में कहा जाये तो क्रांति की मूल परिभाषा को ही बदलने की यह खतरनाक साजिश का हिस्सा है। क्रांति में सिर्फ भ्रष्टाचार पर जोट नहीं होता है, बल्कि क्रांति आमूल चूल परिर्वतन के इरादे से संचालित होती है। क्या वाकई में जन लोक पाल बिल में आमूल चूल परिवर्तन की कोई गुहार है? और यदि वाकई में यह क्रांति है तो इस क्रांति में किसान और मजदूर कहां खड़े है? प्रधानमंत्री समेत तमाम सरकारी अधिकारियों को जन लोक पाल बिल के दायरे में लाना एक संशोधनवादी कदम हो सकता है, क्रांति कतई नहीं।
अन्ना हजारे की नेक नियत पर संदेह नहीं किया जा सकता, यह उनका पाक दामन ही है जो कम से कम शहरी लोगों को उन तक खींच लाया है। जन लोक पाल बिल एक प्रतीक बन गया है, भले ही इसमें तमाम तरह की खामिया है। अरविंद केजरी वाल और स्वामी अग्निवेश जनता के नुमाइंदे बने हुये हैं, लेकिन इनकी भाषा भी सिर्फ शहरी आबादी को ही आंदोलित करने तक सिमटी हुई है। यह आंदोलन कितना शहरी है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लोक पाल बिल की ड्राफ्टिंग अंग्रेजी में हुई है और यह लोगों तक अंग्रेजी में ही पहुंच रहा है। इसके प्रचार प्रसार लिए इंटरनेट और फोन का इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि भारत की बहुत बड़ी आबादी आज भी इंटरनेट और फोन से वंचित है।
अन्ना हजारे के समर्थन में अब तक जो भी हलचल दिखाई दी है वो शहरों तक ही सिमटी हुई है, वो भी उत्तर भारत के शहरों तक। महाराष्ट्र और गुजरात में इसका असर अन्ना हजारे की स्थानीय पहचान के चलते कुछ ज्यादा है। दक्षिण भारत और पूर्वोतर के राज्यों पर इस आंदोलन का असर न के बराबर है। चूंकि इस आंदोलन के एक्शन का मुख्य केंद्र दिल्ली का जंतर मंतर का इलाका है, इसलिये ढोल की ढमढमाहट कुछ ज्यादा ही तेज है।
बहराहल सरकार और अन्ना हजारे के बीच बातचीत का सिलसिला जारी है। सरकार अन्ना की मांगों को लेकर खींचतान कर रही है। आने वाले समय में इस आंदोलन के परिणाम चाहे कुछ भी निकले, लेकिन डर है कि ढोल यही पिटा जाएगा कि जीत अन्ना हजारे की हुई, उन लोगों की हुई जिन्होंने अन्ना हजारे के सुर में सुर मिलाया। एक बड़ी क्रांति की संभावना को डेमोक्रेटिक तरीके से गला घोंटने का यह फार्मूला पुराना है।
मैं आपसे शत – प्रतिशत सहमत हूं। लोगो के अंदर जो गुबार है , आक्रोश है भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उसे खत्म कर देने की साजिश है अन्ना का आंदोलन । ” एक बडी क्रांति की संभावना कोडेमोक्रेटिक तरीके से गला घोटने का फ़ार्मुला है ” अब यह तो गहन जांच से हीं पता चलेगा की कौन लोग है इसके पिछे और उनकी मंशा क्या है ।