1857 के महासमर के प्रथम राष्ट्रगीत के रचनाकार – अजीमुल्लाह खान
1857 के महासमर के महान राजनीतिक प्रतिनिधि और प्रथम राष्ट्रगीत के रचनाकार उनका जीवन ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष में बीता और उनका उद्देश्य निसंदेह राष्ट्रीय था। इसका सबूत अजीमुल्लाह द्वारा रचित देश के प्रथम राष्ट्र गीत में भी उपलब्ध है। मगर अफ़सोस है कि इस राष्ट्रगीत को महत्व नहीं मिल पाया और न ही वह पाठ्य पुस्तको में ही जगह पा सका। लेकिन यह गीत प्रथम राष्ट्र गीत का दर्जा पाने में हर तरह से उपयुक्त है।
अजीमुल्लाह खान ने 1857 के स्वतंत्रता समर में संभवत: कोई लड़ाई नहीं लड़ी पर वे उसके प्रमुख राजनीतिक सूत्रधार जरुर थे। उनके जीवन के बारे में ज्यादा जानकारियां नहीं मिल पायी हैं। राजेन्द्र पटोरिया की पुस्तक “50 क्रांतिकारी और इंटरनेट से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार अजीमुल्लाह खान का पूरा नाम अजीमुल्लाह खान युसूफ जई था। नाना साहेब के प्रथम सलाहकार नियुक्त किए जाने के बाद उन्हें दीवान अजीमुल्लाह खान के नाम से जाना गया। फिर बाद के दौर में 1857 के महासमर वजूद एक रणनीतिकार के रूप में उन्हें क्रान्ति — दूत अजीमुल्लाह खान कहकर पुकारा गया।
1857 के स्वतंत्रता समर की रणनीति कब व कैसे बनी, हिन्दुस्तान में बनी या लन्दन में बनी, आदि जैसे प्रश्नों पर इतिहास में कोई एक सुनिश्चित मत नहीं है पर यह बात इतिहास में मान्य है कि इस रणनीति को बनाने और बढाने में अजीमुल्लाह खान का महत्वपूर्ण योगदान जरुर था। अजीमुल्लाह खान का जन्म 1820 में कानपुर शहर से सटे अंग्रेजी सांय छावनी के परेड मैदान के समीप पटकापुर में हुआ था। उनके पिता नजीब मिस्त्री मेहनत मशक्कत करके बड़ी गरीबी का जीवन गुजार रहे थे। अजीमुल्लाह खान की माँ का नाम करीमन था। सैन्य छावनी व परेड ग्राउंड से एकदम करीब होने के कारण अजीमुल्लाह खान का परिवार अंग्रेज सैनिको द्वारा हिन्दुस्तानियों के प्रति किए जाने वाले दुर्व्यवहारों का चश्मदीद गवाह और भुक्त भोगी भी था।
एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने नजीब मिस्त्री को अस्तबल साफ़ करने को कहा। मना करने पर उसने नजीब को छत से नीचे गिरा दिया और फिर उपर से ईट फेककर मारा भी। परिणाम स्वरूप नजीब छ: माह बिस्तर पर रहकर दुनिया से कूच कर गये। माँ करीमन और बालक अजीमुल्लाह खान बेसहारा होकर भयंकर गरीबी का जीवन जीने के लिए मजबूर हो गये। करीमन बेगम अथक परिश्रम से अपना और बेटे का पेट पाल रही थीं। फलस्वरूप वे भी बीमार रहने लग गयी। अब 8 वर्ष के बालक अजीमुल्लाह के लिए दूसरों के यहां जाकर काम करना मजबूरी बन गया। अजीम के पडोसी मानिक चंद ने बालक अजीमुल्लाह को एक अंग्रेज अधिकारी हीलर्सड़न के घर की सफाई का काम दिलवा दिया। बालक अजीमुल्लाह ने एक घरेलू नौकर के रूप में अपने जीवन की शुरुआत की। दो वर्ष बाद यानी 9 वर्ष की उम्र में उनकी माँ का भी इन्तकाल हो गया।
अब अजीमुल्लाह हीलर्सड़न के यहा रहने लगे। हीलर्सड़न और उनकी पत्नी सहृदय लोग थे। उनके यहा अजीमुल्लाह नौकर की तरह नहीं बल्कि परिवार के एक सदस्य के रूप में रह रहे थे। घर का काम करते हुए उन्होंने हीलर्सड़न के बच्चों के साथ इंग्लिश और फ्रेंच सीख ली। फिर बाद में हीलर्सड़न की मदद से उन्होंने स्कूल में दाखिला भी ले लिया स्कूल की पढ़ाई समाप्त होने के पश्चात हीलर्सड़न की सिफारिश से उसी स्कूल में उन्हें अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी। स्कूल में अध्यापकों के साथ अजीमुल्लाह खान मौलवी निसार अहमद और पंडित गजानन मिश्र से उर्दू, फ़ारसी तथा हिन्दी, संस्कृत सिखने में लगे रहे। इसी के साथ अब वे देश की राजनितिक, आर्थिक तथा धार्मिक, सामाजिक स्थितियों में तथा देश के इतिहास में भी रूचि लेने लग गये। उसके विषय में अधिकाधिक जानकारियां लेने और उसका अध्ययन करने में जुट गये। इसके फलस्वरूप अब अजीमुल्लाह खान कानपुर में उस समय के विद्वान् समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गये। उनकी प्रसिद्धि एक ऐसे विद्वान् के रूप में होने लगी जो अंग्रेजी रंग में रंगा होने के वावजूद अंग्रेजी हुकूमत का हिमायती नहीं था।
यह प्रसिद्धि कानपुर के समीप विठुर में रह रहे नाना साहेब तक पहुची। गवर्नर जनरल डलहौजी की हुकूमत ने बाजीराव द्दितीय के दत्तक पुत्र होने के नाते नाना साहेब की आठ लाख रूपये की वार्षिक पेंशन बंद कर दी थी। उन्होंने अजीमुल्लाह खान को अपने यहां बुलाया और अपना प्रधान सलाहकार नियुक्त कर दिया। अजीमुल्लाह खान ने वहां रहकर घुडसावारी और तलवारबाजी एवं युद्ध ककला भी सीखा। बाद में नाना साहेब की पेंशन की अर्जी लेकर इंग्लैण्ड पहुचे। इंग्लैण्ड में अजीमुल्लाह खान की मुलाक़ात सतारा के राजा के प्रतिनिधि रंगोली बापू से हुई। रंगोली बापू सतारा के राजा के राज्य का दावा पेश करने के लिए लन्दन गये हुए थे। सतारा के राजा के दावे को ईस्ट इंडिया कम्पनी के ‘ बोर्ड आफ डायरेक्टर ‘ ने खारिज कर दिया। अजीमुल्लाह खान को भी अपने पेंशन के दावे का अंदाजा पहले ही हो गया। अंतत: वही हुआ भी। बताया जाता है कि रंगोली बापू के साथ बातचीत में अजीमुल्लाह खान ने इन हालातो में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह की अनिवार्यता को जाहिर किया। फिर इसी निश्चय के साथ दोनों हिन्दुस्तान वापस लौटे। अजीमुल्लाह खान वहा से टर्की की राजधानी कुस्तुन्तुनिया पहुचे। फिर रूस पहुचे। उन दिनों रूस व इंग्लैण्ड में युद्ध जारी था। कहा यह भी जाता है कि अजीमुल्लाह खान अंग्रेजों के विरुद्ध रूसियों से मदद लेने का भी कुछ प्रयास किया था।
इतिहास की इन अपुष्ट सूचनाओं के साथ इतना निश्चित है कि अजीमुल्लाह खान के हिन्दुस्तान लौटने के बाद ही 1857 में महासमर की तैयारी में तेजी आई हिन्दुस्तानी सैनिकों में विद्रोह की ज्वाला धधकाने के लिए सेना में लाल कमल घुमाने तथा आम जनता में चपाती घुमाने के जरिये विद्रोह का निमंत्रण देने के अपुष्ट पर बहुचर्चित प्रयास तेज हुए।
बाद का इतिहास 1857 के महा समर का इतिहास है। युद्ध का इतिहास अजीमुल्लाह खान के राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र के प्रति समर्पण का भी इतिहास है। उनकी मृत्यु के बारे में उद्धत पुस्तक से मिली सूचना यह है कि अजी मुल्लाह खान अंग्रेजी सेना के विरुद्ध लड़ते हुए कानपुर के पास अहिराना में मारे गये। इंटरनेट से मिली सूचना यह है कि नाना साहेब की हार और फिर नेपाल जाने के साथ अजीमुल्लाह खान भी नेपाल पहुच गये थे। वहां 1857 के अन्त में यानी 39 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु कैसे भी हुई हो पर निश्चित तौर पर उनका जीवन ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष में बीता और उसका उद्देश्य नि:संदेह राष्ट्रीय था। इसका सबूत अजीमुल्लाह द्वारा रचित देश का प्रथम राष्ट्र गीत में भी उपलब्ध है। अफ़सोस है कि इस राष्ट्रगीत को महत्व नहीं मिल पाया और न ही पाठ्य पुस्तको में ही जगह पा सका।
-सुनील दत्ता
पत्रकार
साभार: राजेन्द्र पटोरिया की पुस्तक 50 क्रांतिकारी.