दोलन बन गया बाबा रामदेव का आंदोलन

0
29

चंदन कुमार मिश्रा

पिछले आलेख में मैंने लिखा था कि बाबा रामदेव के साथ क्या-क्या हो सकता है। लेकिन वह आलेख सभी बातों और संभावनाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया था। मेरे मन में तो पहले से ही था कि बाबा का यह अनशन बेकार होनेवाला है और आखिरकार पुलिस ने बाबा और उनके साथियों को समझा दिया कि अंग्रेजों से लड़ने का मतलब क्या होता है?

एक बड़ी प्रसिद्ध उक्ति मैंने आज से कई साल पढ़ा था कि एक गुलाम आजादी इसलिए चाहता है ताकि वह भी मालिक बन सके और दूसरों को गुलाम बना सके। यही बात कांग्रेस के साथ भी हो रही है। कांग्रेस ने कभी दूसरों को गुलाम बनाने की छोड़कर कुछ सोची नहीं और भाजपा ने सिर्फ़ ढोल पीटे हैं, कुछ किया नहीं।

      जो पचास-साठ हजार लोग रामलीला मैदान में इकट्ठे हुए थे उनमें से किसी को यह समझ नहीं आया कि अनशन क्या है और यह कब किया जाना चाहिए? मैं अपने आपको बड़ा विद्वान नहीं कह रहा है लेकिन सरकार की चालबाजियों और इतिहास से सीखने की जरूरत तो निश्चय ही सबको होनी चाहिए और इस वक्त कम से कम बाबा को तो होनी ही चाहिए। फिलहाल बाबा रामदेव देहरादून पहुंच गये हैं और वहीं से अनशन जारी रखने की बात कह रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि बाबा की मांगें उचित नहीं है लेकिन रणनीति का सर्वथा अभाव है बाबा और उनके साथियों में, यह तो मुझे तभी से लग रहा है जब से बाबा ने घोषणा की थी कि वे अनशन करेंगे। अब आन्दोलन सिर्फ़ दोलन रह गया है और रामलीला मैदान में सब कुछ बिखर गया है।

      तथाकथित आजाद भारत में किसी को इतना भी अधिकार नहीं है कि वह इस तरह के अनशन करे लेकिन यह बात बाबा को समझ आती ही नहीं और दुर्भाग्य ये है कि कोई उन्हें समझाता भी नहीं। भाजपा जैसी पार्टियों को इसी तरह के माहौल की तलाश रहती है। खुद जब छह साल शासन में रहे तो कुछ खयाल नहीं आया लेकिन शासन से बेदखल होते ही नौटंकी शुरु कर दी। संन्यासी होने की वजह से सरकार ने कुछ नरमी भले दिखाई हो लेकिन अब तो बाबा की हालत और समझ दोनों बिगड़ी हुई हैं।

      मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि अंग्रेजों की तरह रहने वाले और अंग्रेजी के चरण चाटुकार ये नेता और मंत्री, प्रधानमंत्री अंग्रेजी और अंग्रेजियत के खिलाफ़ हो जायें यह कैसे संभव है? तो जो लोग दिल्ली चलो की तर्ज पर जाकर भीड़ लगाए हुए थे उन्होंने अपने जीवन से कितनी अंग्रेजी को निकाल दिया था? गाँधी जी ने जिस बहिष्कार का शक्तिशाली हथियार अंग्रेजों के खिलाफ़ इस्तेमाल किया था उसका इस्तेमाल करना आज के समय में संभव नहीं है? मैं कहता हूँ बिलकुल संभव है। लेकिन उसके लिए तरीका बदलना होगा। जो लोग बाबा के समर्थक हैं उनको अपने घर-परिवार, रिश्तेदार, दोस्त सबके साथ मिलकर यह ठान लेना होगा कि वे अंग्रेजी के बिना चलेंगे। कम से कम यह तो उनके अपने अधिकार क्षेत्र में है लेकिन अनशन जैसे तरीके से यह संभव नहीं हो सकता। क्योंकि भीख मांगने से अन्तत: भीख और दुत्कार ही मिलना संभव है।

      भारत स्वाभिमान को लगभग डुबा दिया बाबा और उनके साथियों ने। पहले यह मान लेना होगा कि भारत सरकार(अभी कांग्रेस सरकार) हर तरह से अंग्रेजी सरकार है। और अगर इसके खिलाफ़ जाना है तो सही तरीके से चलना होगा न कि आवेश में आकर तमाशे करने से। लोग अपने घरों से अंग्रेजी, अपने मन से अंग्रेजी निकालें, बहिष्कार का महामंत्र हमारे पास है, उसका इस्तेमाल करें न कि भीड़ लगाकर मदारी का खेल दिखाएँ। अभी भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजी व्यवस्था के पक्षधर इतने हैं कि आप इन तरीकों से कुछ हासिल नहीं कर सकते। आपको बहिष्कार, बहिष्कार और बहिष्कार ही अपनाना होगा। आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं जो शासक अपना सारा काम अंग्रेजी में करते हैं, दिन भर अंग्रेजी बोलते हैं, रात भर अंग्रेजी बोलते हैं, पचास सालों में जिन्होंने पचास पन्ने भी किसी अन्य भारतीय भाषा में लिखे न होंगे वे दो दिन के अनशन से अंग्रेजी का खात्मा कर देंगे। जर्मनी और तुर्की का उदाहरण देने से पहले आप इतना याद रखें कि दोनों ने शासन में आकर जर्मन और तुर्की को देश की भाषा बनाई थी। अगर आप चाहते हैं कि आप बिस्मार्क बनें, कमाल पाशा बनें तो आपको शासन करना होगा। वैसे भी सुभाष चन्द्र बोस कहा करते थे कि भारत में आजादी के बाद पंद्रह सालों तक तानाशाही की जरूरत है लेकिन वे नहीं जानते थे कि यही पंद्रह साल भारत को कितना नुकसान पहुँचाएंगे। भारतीय इतिहास में जितनी भी गलतियाँ होती रहीं उनसे बाबा और उनके साथियों ने कुछ न सीखा।

      लेकिन बेवकूफों ने यहाँ दुखी दिवस यानि डे मनाया है, कोई अक्लमन्दी नहीं की है। अभी-अभी एक चर्चित वेबसाइट के संपादक द्वारा यह निवेदन पढ़ा कि आप लोग आज काला दिवस यानि ब्लैक डे मनाएँ। मतलब मूर्खता का प्रदर्शन करते रहें। भले वे अपने आपको एक जिम्मेदार नागरिक मानते रहें लेकिन यह सब दिखावे फेसबुक, आर्कुट, ट्वीटर जैसी घटिया साइटों पर होते रहें, यह मांग क्या बता रही है? यहाँ यह डे मनाने की परम्परा जो एकदम फालतू की है अंग्रेजी तरीके से ही आई है। मैं पूछता हूँ कि डे मनाने से, दुख मनाने से क्या होगा? यह नौटंकी होती रहेगी और एकदिन कांग्रेस फिर देश में शासन करेगी। सेना यानि भारतीय सेना भी कम दोषी नहीं है। आप मंगल पांडे का नाम लेते हैं, लेकिन कभी सोचा है क्यों? इसलिए क्योंकि वे खुद सेना में थे और अंग्रेजी सरकार का विरोध किया था। लेकिन भारतीय सेना को भारत में बहुत महान और देशभक्त माना जाता है। लेकिन यह सेना नहीं अंग्रेजों की भारतीय सेना है, गुलाम सेना है। यह वही करती है जो शासक सरकार कहती है। अब यहाँ यह सोचने की फुरसत अभी नहीं है कि अनुशासन का डंका बजाने लगा जाय। भारत में अगर सेना को लगे कि सरकार उसे गलत आदेश दे रही है तो उसे सरकार के खिलाफ़ जाना चाहिए। मरते कौन हैं, सिर्फ़ सिपाही लेकिन हँसता कौन है नेता या सेना का बड़ा अधिकारी। लेकिन ये सेना गुलामी को छोड़ नहीं सकती और अपने आपको बड़ा देशभक्त मानती है। सेना का मतलब होता है देश की रक्षा और भले के लिए लड़नेवाला न कि भ्रष्ट लोगों की रक्षा के लिए जान देनेवाला। यह बात मैं क्यों कह रहा हूँ, इसलिए कि भारत सरकार और अंग्रेज सरकार हमेशा सेना और पुलिस के दम पर हीरो बन जाती है और जनता मुँह ताकती रहती है। बाबा पर पुलिस की सहायता से फिर धावा बोला गया है और इस घटना में और 1947 के पहले की घटना में कोई फर्क नहीं है। इंदिरा गाँधी के घोर अत्याचारों के बावजूद और कांग्रेस के पिछले(2004) कार्यकाल में कुछ नहीं करने के बावजूद फिर से कांग्रेस की सरकार बनाने वाली जनता का भरोसा कहीं से करने लायक नहीं है। कुछ लोग शोर मचाएंगे कि अगली बार सरकार बदलनी होगी। लेकिन जिन लोगों के पास सरकार बदलने की ताकत है वे खुद क्यों नहीं बहिष्कार पर उतर जाते हैं, यहाँ मुँह ताकने का भी रिवाज हो चला है। कोई आन्दोलन करे तो भीड़ होती है लेकिन फायदा कुछ नहीं। अनशन में जिन गाँवों से, शहरों से लोग आए थे वहीं क्यों नहीं बहिष्कार हो रहा है सरकार का। क्रान्ति भीड़ लगाने से नहीं घर-घर में विचारों पर अमल करने से होती है।

      बाबा के शिविर में पैसे भी बहाए गए हैं। गाँधी जी के सिद्धान्तों की दुहाई देनेवाले बाबा का काम करने का तरीका कुछ अजीब हो रहा है। अपने ही हाथों अपने पूरे भारत स्वाभिमान को खत्म कर डालना आत्महत्या से कम नहीं है। नेतृत्व इतना आसान नहीं होता, यह बात बाबा को समझ आएगी या नहीं? नेता बनना आसान है लेकिन जनता का नेता बनना, गाँधी बनना, जयप्रकाश बनना उन्माद नहीं एक कुशल रणनीति है। योग की परिभाषा ही है ‘योग: कर्मसु कौशलम्’। लेकिन बाबा में न कुशलता है और सही तरीका(कर्म)  है फिर कैसा योग है ये। अन्त में आप याद रखें कि 1857 की क्रान्ति को किस तरह अंग्रेजों ने कुचला था और फिर 90 साल तक लड़ाई लड़नी पड़ी। और इस हिसाब से यह मत मानिए कि कांग्रेसी(अंग्रेजी) शासन को आप 2014 में ही खत्म कर डालेंगे। जब अंग्रेज सिर्फ़ ढाई लाख सैनिकों के दम पर भारत को 90 साल तक गुलाम बना सकते हैं तो आज तो भारत में सैनिकों और पुलिस की संख्या 40-50 लाख होगी। अनुपात बढ़ चुका है। 1947 में 40 करोड़ लोग थे और आज 121 करोड़ हैं लेकिन सैनिक तीन गुनी नहीं पंद्रह गुनी है। यह सेना कभी भी भोपाल गैस कांड के दोषी पर धावा नहीं बोल सकती, अमेरिका जूते चाटने को कहे तो सरकार वो भी चाट सकती है लेकिन एक अहिंसक आन्दोलन को ऐसी बेरहमी से दबा जरूर सकती है। आपको बता दूँ अभी चार-पाँच दिन पहले कपिल सिब्बल लंदन जानेवाले थे। किसी विश्वविद्यालय से भारत के साथ संबंध को पाँच साल और बढ़ाने के लिए। लंदन और अमेरिका के चमचों से कुछ भी उम्मीद करना बेकार है।

      आप जब क्रान्ति की बात कहते हैं तब लोग कहते हैं कि यह बेवकूफ़ी है। और क्रान्ति और बेवकूफ़ी दोनों में थोड़ा सा ही अन्तर है। क्रान्ति में जब बुद्धि साथ देना छोड़ दे तब बेवकूफ़ी ही होती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here