अंगूरी की बेटी के गर्भ से तो नहीं निकली है प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज?
प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज पर बात करने से पहले विगत के दो काल खंड को समझना जरूरी है। पीके और उनकी जन सुराज को लेकर तस्वीरें काफी हद तक साफ होंगी। एक का संबंध बिहार की राजनीति में गुडों के प्रवेश से है तो दूसरे का संबंध देश में आर्थिक उदारवाद नीति की शुरूआत से पीआर कंपनियों के उदय से है।
बिहार में एक समय था जब नेता चुनावों में जीत के लिए गुंडों का इस्तेमाल करते थे। वह बैलेट से वोटिंग का जमाना था। नेताओं को गुंडों की थोक भाव में जरूरत होती थी। इसके लिए वे कुछ नामचीन गुंडों को पालते- पासते थे। चुनावों में बूथ लूटने के इतर भी ये गुंडे नेताओं के इशार पर कई अन्य आपराधिक कार्यों को बखूबी अंजाम देते थे। बदले में उन्हें नेता से सरक्षण भी मिलता था, और तरह तरह के सरकारी ठेके भी। नेताओं के साथ रह कर गुंडे धीरे-धीरे राजनीति समझने लगे और जब उन्हें इस रहस्य का पता चला कि नेता तो उन्हीं के द्वारा कब्जा किए गये बूथों की वजह से चुनाव जीतकर एसेंबली में बैठकर मजे मार रहे हैं और ठाठ के साथ अपनी जिंदगी बसर करते हुए उन्हें भी हांक रहे तो उनलोगों ने नेताओं के लिए काम छोड़कर खुद के लिए बूथ लूटना शुरू कर दिया। फिर देखते देखते बिहार की राजनीति में गुंडों की संख्या बढ़ती चली गई। एक समय ऐसा भी आया जब यह माना जाने लगा कि राजनीति में आगे बढ़ने के लिए गुंडा होना जरूरी है। बिहार की राजनीति में यह संस्कृति खूब फली-फूली। बाद में कुछ गुंडों ने इस कला में इतनी पारंगता हासिल कर ली कि खुद को रॉबिन हुड की तरह पेश करने लगे, और लोगों के बीच उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ती गई।
अब देश से मुत्तालिक एक दूसरी तस्वीर देखते हैं। नब्बे के दशक में उदारीकरण की शुरुआत के साथ सेवा प्रदान करने वाली पब्लिक रिलेशन कंपनियों की सक्रियता बढ़ी। पहले ये उत्पादों के प्रचार प्रसार तक सीमित थे। उत्पादों के प्रचार प्रसार संबंधित रणनीति बनाते थे, प्रेस कांफ्रेस का आयोजन करते थे, सम्मान के साथ पत्रकारों को बुलाते थे और फिर उन्हें तोहफे देकर अपने उत्पादों के पक्ष में अच्छी अच्छी बातें लिखने का आग्रह करते थे। उदारीकरण की गति जैसे जैसे तेज होती गई इन्होंने अपनी भूमिका का भी विस्तार करना प्रारंभ कर दिया। राजनीतिज्ञों के बीच इन्होंने पैठ बनाना शुरु कर दिया और उन्हें एक ब्रांड के तौर पर पेश करने के लिए उकसाने लगे। राजनीतिज्ञों ने इनकी सेवा लेनी शुरु कर दी। इसके एवज में मोटी फीस भी वसुल करने लगे। इनकी ताकत बढ़ती गई और राजनीतिक दलों ने भी अपनी ब्रांडिंग के लिए इनकी सेवा लेनी शुरु कर दी। मीडिया में सक्रिय पत्रकारों और संवाददाताओं के बीच इन्होंने खेमेबंदी की राजनीतिज्ञों की धमक दिखाकर इनलोगों ने फिर सीधे मीडिया मालिकों से डील करना शुरु कर दिया। और देखते ही देखते पूरी तस्वीर ही बदल दी। मीडिया के लोग जो पहले स्वतंत्र तरीके से खबर लिखते थे वे पीआर कंपनियों के कंटेट के आधार पर खबरें बनाने लगे।
विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं की ब्रांडिंग करते करते किसी पीआर कंपनी के संचालक के दिमाग यह यह ख्याल आना स्वाभाविक है कि यदि वह किसी नेता को जीत दिलाने के लिए सफल रणनीति बनाकर प्रचार प्रसार कर सकता है तो फिर खुद को नेता के तौर पर क्यों नहीं पेश कर सकता है। और इसी ख्याल से प्रशांत किशोर जैसे नेता का जन्म होता है।
यह प्रक्रिया गुंडा से नेता बनने की प्रक्रिया जैसी ही है, इसमें सिर्फ फर्क इतना है कि पहली स्थिति में नेता गुंडों से बूथ लुटने का काम करवाते थे दूसरी स्थिति में नेता पीआर से चुनाव जीतने के लिए माहौल बनाने का काम करवाते रहे हैं। गुंडों और पीआर को नेता द्वारा किये जा रहे असली मजे का पता उनके संपर्क में आकर ही पता चला। कॉन्फिडेंस जागा और और वे खुल नेता बनने की राह पर निकल लिए, जोड़ तोड़ की गणित से अच्छी तरह से वाकिफ हो ही चुके थे।
अब अहम सवाल, नेता बनने के बाद गुंडों को समाज में जो योगदान देना था वो दे चुके हैं या फिर दे रहे हैं, पीआर के लोग नेता बनके क्या योगदान देंगे, और खासकर प्रशांत किशोर, जो शायद नेतागिरी की राह पर चलने वाले देश के पहले पीआर प्रोफेशनल हैं। साफ शब्दों में कहा जाये तो लंबे समय तक अलग अलग राजनीतिक दलों को एक पीआर के तौर अपनी सेवा देकर राजनीति में प्रवेश करने वाले देश के पहले पीआर प्रोफेशन हैं। बाजार को न सिर्फ समझते हैं बल्कि बावाजरवाद के बेहतर प्रैक्टिशनर भी हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों में घूम घूमकर घाट घाट का पानी भी पी चुके हैं। और कह भी रहे हैं कि यदि अपने सिर पर सामान रखकर वह बिहार के गांव-गांव घूमकर बेच रहे हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है।
भारतीय लोकतंत्र में संवैधानिक रूप हर किसी को संगठन बनाने का अधिकार है। यदि प्रशांत किशोर जन सुराज नाम की राजनीतिक पार्टी का किया है तो यह उनका हक है। उनके इस हक पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। लेकिन इसके साथ ही इस बात का आकलन करने का अधिकार भी हर किसी को है कि जो चीज वह बेचने की कोशिश कर रहे हैं क्या वह बिहार के लिए मुफीद है? राजनीति में उनका लिटमस टेस्ट तो होगा ही।
अपनी पार्टी जनसुराज की कमान उन्होंने पूर्व प्रशासनिक अधिकारी मनोज भारती को सौंपी है। 2 अक्टूबर को पटना के वेटनरी मैदान में अपनी पार्टी की घोषणा करते हुए उन्होंने मनोज भारती को कार्यवाहक अध्यक्ष घोषित किया और उनके शान में कशीदे पढ़ते हुए बहुत गर्व के साथ कहा कि मनोज भारती उनसे भी काबिल है, एक नगीना ढूंढ कर लाये हैं वह बिहार की धरती से। इसी तरह के और कई नगीने उनके पास है। उनका अंदाज पीआर वाला ही था। ऐसा लग रहा था जैसे वह अपने प्रोडक्ट की ब्रांडिंग कर रहे थे। और बिहार के लोगों को यह मानने को बाध्य कर रहे थे कि जिन्हें वह तलाश कर ला रहे हैं वाकई में वह नगीना ही है।
एक कहावत है, हर चमकने वाला वस्तु सोना नहीं होता। क्या यह सवाल नहीं उठता है कि जिस मनोज भारती को वह चमकाने की कोशिश कर मंच पर कर रहे थे या फिर आगे भी करते रहेंगे उनके पास जनता के बीच मे काम करने का कोई अनुभव है? या फिर अपने पूरे जीवन में उन्होंने कभी जनहित में कोई काम किया है? अवकाश प्राप्त वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों की एक बहुत बड़ी फौज सड़ रही है, जिसे पूछने वाला कोई नहीं है। सारी जिंदगी ए ग्रेड नौकरी की मलाई खाने के बाद अवकाशप्राप्त करने के बाद कई पूर्व अधिकारियों ने राजनीति की दहलीज पर दस्तक तो दी लेकिन जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।
प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी में अवकाश प्राप्त अधिकारियों की तादात ज्यादा है। उनकी पार्टी के नीति निर्धारण में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यही वजह है कि अन्य नई नवेली पार्टियों की तरह इनकी पार्टी को फंड की कमी नहीं हो रही और आगे भी नहीं होगी। अपने झंडे पर सिर्फ गांधी और अंबेदकर की तस्वीर लगाने की बात करने से बात नहीं बनेगी, किसी भी पार्टी की मकबूलियत जमीनी स्तर पर तपे तपाये नेताओं की वजह से होती है। पीके और उनकी पार्टी अभी इसके कोसो दूर है। और जिस तरह से उन्होंने बिहार से शराबबंदी को हटाने की बात कही है उससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या उनकी पार्टी का उद्भव अंगूर की बेटी का गर्भ है, जिसमें बीज शराब माफियाओं ने डाली है।