चाइल्ड बाइट

अख़बार बाँटने को मजबूर हैं बच्चे

बालश्रम पर कानूनी प्रतिबंध होने के बावजूद समूचे देश में नाबालिग बच्चे आज भी मजदूरी कर अपना व अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं। जबकि देश में बालश्रम को लेकर सख्त कानून बना हैं। जिसमें 14 वर्ष तक के बच्चों को नाबालिग माना गया है, परन्तु कानून की चिंता किसे है?

खुद सरकार के आंकड़ें बताते है कि देश में छः करोड़ से ज्यादा बच्चे पूर्णकालिक रोजगार में लगे हुए हैं, जबकि साढ़े छः से ज्यादा वयस्क बेरोजगार हैं।  इन्हीं आंकड़ों में एक बात और चौंका देने वाली है कि ज्यादातर वयस्क बेरोजगार ही इन बच्चों के माता-पिता है। ये बच्चे सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही काम नहीं करते बल्कि गॉवों में भी काम करते है और पेट पालते हैं। ये बच्चे खेत-खलिहनों, दुकानों, होटलों, उद्योगों , और खदानों में काम करने विवश है। जबकि अपने यहाँ बच्चों को मजदूरी पर लगाना विभिन्न नियोजकों को काफी  सस्ता पड़ता है। इन पर नियोजकों द्वारा खाना-खुराक, कपड़े – लत्ते और दिहाड़ी सहित महज 20 से 50 रूपये प्रति दिन का खर्चा आता है जबकि इनकी जगह यदि वयस्क मजदूरों को काम पर रखा जाये तो सिर्फ दिहाड़ी  ही 120 रूपये प्रति मजदूर के हिसाब से खर्चा  आता है।

यदि छः करोड़ बच्चों के हिसाब से इसका अनुमान लगाया जाये तो बालश्रमिकों पर प्रति दिन के हिसाब से 120 करोड़ रूपये और वयस्क श्रमिकों के हिसाब से 720 करोड़ रुपयों का अतिरिक्त खर्चा नियोजकों को उठाना पड़ता है। लेकिन बालश्रमिकों को काम देने से नियोजकों को प्रति दिन छः सौ करोड़ रुपयों का फायदा होता है। इससे एक बात और साफ होती है कि नियोजक द्वारा बचाये गये ये पैसे ही काली कमाई बन कर विदेश जाती है।

हैरानी तो इस बात कि है कि देश में ऐसी कई जगह है जहाँ खुलेआम बच्चों से बतौर  श्रमिक काम करवाया जाता है। जबकि बाल मजदूरी पर सरकार का कहना है कि ये बच्चे गरीबी और अशिक्षा का शिकार बन रहे है, परन्तु ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार के रसूखदार नुमाईंदे और चापलूस प्रशासन इसमें अपनी रजा मंदी बनाये हुए है और जान बूझकर इस मामले में उदासीनता बरत रहा है।

उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर-भदोही के कालीन उद्योगों  में लगभग 1 लाख से ज्यादा बच्चे काम करते हैं। काँच की चूड़ियों  के कारखानों से भरा फिरोजाबाद जहां  पर भी लाखों बच्चे दिन-रात काम करते हैं, जबकि  इन कारखानों से निकलने  वाले जहरीले धुँए से अधिकांश बच्चे टीबी के मरीज बन गये हैं।

तमिलनाडु के शिवकाशी सत्तूर और विरुदनगर जिलों में आतिशबाजी तथा माचिस उद्योगों में हजारों बालश्रमिक कम करते हैं। जबकि अकेले दिल्ली में ही 5 लाख से ज्यादा बच्चे जरी, चमड़े, प्लास्टिक, प्रसाधन सामग्री व स्टील के कारखानों में काम करते हैं। इतना ही नहीं होटलों, ढाबों और घरों में हजारों बच्चे कैद होकर गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं। इन बच्चों को जानवरों से कम कीमत में बेचा-खरीदा जाता है, तथा जिनसे मजदूरी या बाल वैश्यावृति करवाई जाती है।

इन सब में मध्यप्रदेश की स्थिति और भी ख़राब है। यहाँ की प्रदेश सरकार भले ही कुछ कहे पर बालश्रम को लेकर हालात अभी भी काफी दयनीय है। प्रदेश में भले ही अन्नपूर्णा योजना चालू हो जिसमें गरीबों को 1 रूपये किलो की दर से गेंहू और 2 रूपये किलो की दर से चावल के साथ पूरे परिवार को हर महीने 35 किलो अनाज दिया जाता हो पर प्रदेश की पन्ना व सतना जिलों में स्थिति भयावह है। यहाँ दाने-दाने को मोहताज लोग पेट पालने के लिये अपने बच्चों को साहूकारों के यहाँ गिरवी रखते हैं। जिससे साहूकार प्रति बच्चे 4-5 क्विंटल अनाज देते हैं, लेकिन इन बच्चों से दिन-रात, 24 घंटे, बिना रुके-बिना थके काम करवाया जाता है।

प्रदेश में ऐसा ही कुछ हाल मीडिया का भी है। जो बच्चों को पन्ना-सतना के साहूकारों की तरह खरीदता तो नहीं पर अपने बड़े-बड़े दफ्तरों में झाड़ू-पोछा के साथ पाठकों के घर-घर इन्ही के हाथों अख़बार बटबाने में पीछे नहीं हटता। मप्र में यह गोरखधंधा जोरों पर है, जिससे शासन-प्रशासन भी वाकिफ है लेकिन इन तथाकथित पत्रकारों का रौब और सांठ-गांठ कानून की धज्जियाँ उड़ा रहा है। फिर भी मुद्दा तो मुद्दा है, जिसपर ध्यान न भी दिया जाये तो भी वह बरकरार रहता है।

अक्षय नेमा मेख

स्वतंत्र लेखक
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editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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