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कट्टरवाद नवाज शरीफ की मजबूरी है
संजय राय
भारत और पाकिस्तान के बीच पिछले कुछ महीनों से सीमा पर तनाव जैसे हालात बने हुए हैं। दोनों देशों की सरकारों की ओर से संबंधों को सुधारने की कोशिशों को नियंत्रण रेखा के घटनाक्रमों ने काफी हद तक कमजोर करने का काम किया है। पाकिस्तान में नवाज शरीफ के सत्ता में आने के बाद नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम के उल्लंघन की घटनाओं में हुई बढ़ोत्तरी को किसी सबूत की जरूरत नहीं है। यह साफ दिख रहा है। शरीफ की यह राजनीतिक मजबूरी है कि वह कट्टरपंथ के साथ नरमी से पेश आयें और भारत के बारे में अपनी सेना की हर बात को मानते चलें वरना उनकी कुर्सी को खतरा पैदा हो सकता है।
रक्षामंत्री एके एंटोनी ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि पिछले कुछ महीनों से नियंत्रण रेखा पर जिस तरह के हालात पाकिस्तान की सेना की ओर पैदा किये जा रहे हैं, वे बेहद चिंता का विषय हैं। कुछ दिनों पहले विदेश यात्रा पर गये राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा कि नॉन स्टेट ऐक्टर आसमान से उड़कर नहीं बल्कि जमीन से आते हैं। यह जमीन पकिस्तान में है। भारत के अनुसार साल 2013 में 30 अक्टूबर तक नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर संघर्ष विराम की लगभग 237 घटनाएं हुई हैं। सीमा पर संघर्ष विराम के टूटने की घटनाओं पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि पिछले कुछ सालों के दौरान इनकी संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2010 में संघर्ष विराम की केवल 57 घटनाएं हुई थीं, 2011 में यह संख्या 61 पर पहुंच गई और 2012 में 117 मामले सामने आये थे। इस साल भारत के लगभग 40 सैनिक मारे गये हंै, जबकि पिछले साल यह संख्या सिर्फ 17 थी। इन घटनाओं से एक बात बिलकुल साफ हो गई है कि दोनों देशों के बीच 26 नवंबर 2003 को विश्वास बहाली के उपाय के तौर पर लागू हुआ संघर्ष विराम अब पूरी तरह रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है।
भारत के आरोपों का समाधान करने के बजाय नवाज शरीफ ने अमेरिका के सामने जम्मू कश्मीर का मामला उठाते हुए उसे मध्यस्थता करने की मांग की। अमेरिका ने इसे खारिज कर दिया है और कहा है कि दोनों देश आपस में बातचीत से कश्मीर समस्या का समाधान निकालें। इस तनावपूर्ण माहौल में चंद दिनों पहले अमेरिका की सरजमीं पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मुलाकात भी हुई थी। इस मुलाकात में मनमोहन ने शरीफ से साफ कहा कि पाकिस्तान दहशतगर्दों पर लगाम लगाये और फौज को अपने नियंत्रण में रखे। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि जिस वक्त मनमोहन शरीफ के साथ मुलाकात कर रहे थे, उस वक्त भी पाकिस्तान की सेना भारत के इलाके में बड़ी घुसपैठ करने जुटी हुई थी।
यह एक हकीकत है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध सुधारने के रास्ते में आतंकवाद और जम्मू-कश्मीर का विवाद दो अहम बाधा बने हुए हैं। जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह अपने कब्जे में करने के इरादे से पाकिस्तान चार बार कोशिश कर चुका है और इसके लिए उसने अपने देश के दो टुकड़े भी करवा लिए हैं। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अपने देश की जनता के दिल और दिमाग में जो बातें बैठा रखी हैं, उन्हें निकालने में काफी परेशानी है। याद कीजिये बतौर राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के उस बयान को जिसमें उन्होंने कहा था कि कश्मीर हर पाकिस्तानी की रग-रग में दौड़ता है। उन्होंने आगरा सम्मेलन के दौरान बड़ी साफगोई से एक बात और कही थी कि पाकिस्तान 1971 की हार को भूला नहीं है।
घुसपैठ की घटनाओं में आई बढ़ोत्तरी को व्यापक नजरिये से देखा जाय तो कई बातें साफ नजर आती हैं। अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो सैनिकों की अगले साल वापसी होने वाली है और अफगानिस्तान में चुनाव भी होने वाला है। वहां की डांवाडोल स्थिति को अमेरिका विरोधी ताकतें तालिबान और अलकायदा के लोग हर हाल में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। तालिबान का एक बड़ा तबका पाकिस्तान की सरकार को भी अपना दुश्मन मानकर चल रहा है। यह ग्रुप किसी भी तरीके से पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज होने की कोशिश में है। इसके लिये ये लोग पाकिस्तान की सेना से भी दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। जेहाद की कई फैक्टरियां चला रहा पाकिस्तान इस मुसीबत को एक बार फिर से भारत के सिर मढ़कर निजात पाना चाहता है। शायद यही एक अहम कारण है कि सीमा पर संघर्ष विराम और घुसपैठ की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है और कश्मीर मसले को पाकिस्तान की सरकार द्वारा नये सिरे से दुनिया की महाशक्ति के दरबार में उठाने की कोशिशों को परवान चढ़ाया जा रहा है। भारत की सीमा पर तनाव पैदा करके पाकिस्तान की सेना और सरकार मिलकर पश्चिमी मोर्चे पर बने तनाव को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत विरोध के सहारे नवाज शरीफ अपने देश के कट्टरपंथियों का समर्थन मजबूत कर रहे हैं। वहां के मौजूदा माहौल में शरीफ ऐसा करके ही अपनी कुर्सी बचा सकते हैं और यह बात उन्हें अच्छी तरह से पता है।
इधर भारत के मौजूदा आंतरिक माहौल पर नजर डालें तो पाकिस्तान के संदर्भ में कई महत्तवपूर्ण बातें सामने आ रही हैं। भारत में भी अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और सभी राजनीतिक पार्टियां जोर-शोर से इसकी तैयारी में जुट गई हैं। देश की जनता का ध्यान भ्रष्टाचार और मंहगाई से हटाकर धर्म के नाम पर पूरे समाज में ध्रुवीकरण करने की कोशिश सभी दलों की ओर से शुरू की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में पिछले दिनों हुये साम्प्रदायिक दंगे और पटना के गांधी मैदान में नरेंद्र मोदी की रैली के दौरान हुए बम विस्फोट की घटनाएं भी पाकिस्तान से जुड़ती नजर आ रही हैं। आईएसआई और इंडियन मुजाहिदीन का नाम एक बार फिर से देश की राजनीतिक फिजा में उमड़-घुमड़ रहा है। यह सब चुनाव के पहले की राजनीतिक दलों की तैयारी के बीच हो रहा है।
भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में बना यह माहौल सच में बेहद चिंताजनक है। जरा सोचिये आगामी एक-दो महीने में सीमा के हालात अगर और ज्यादा खराब हुये तो माहौल युद्ध जैसा बन सकता है। हालांकि भारत और पाकिस्तान की सरकारों को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि दोनों के पास परमाणु हथियार हैं और दोनों ही एक दूसरे पर हमला करने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन जमीनी माहौल में अपने-अपने राजनीतिक हितों को भांपकर दोनों देश सीमा पर माहौल गरमा सकते हैं। इससे जो हालात बनेगा वह राजनीतिक नजरिये से काफी महत्वपूर्ण बदलाव पैदा करने की कूबत रखता है। दोनों तरफ की कुछ बड़ी ताकतों को ये हालात राजनीतिक नजरिये से बहुत मुफीद साबित हो सकते हंै।
राजनीतिक के गलियारों में कभी-कभार ऐसी चर्चा सुनाई पड़ती है कि भारत और पाकिस्तान के बीच राजनीतिक स्तर एक-दो बार ऐसा प्रस्ताव आया था कि अगर एक छोटी सी लड़ाई करके फायदा होता है तो ऐसा कर लेना चाहिए। इस बात की सच्चाई का पता लगाना तो बेहद मुश्किल काम है, लेकिन हालात का गहराई से विवेचन करें तो इस तरह की बातों में दम नजर आता है। इन सब बातों को देख-सुनकर ऐसा लगता है कि लड़ना-झगड़ना भारत और पाकिस्तान की तकदीर में उसी वक्त लिख गया था, जिस दिन दोनों के बीच बंटवारे की लकीर खींची गई। दोनों तरफ की आम जनता को यह बात अच्छी तरह से समझ में आती है, लेकिन उनके हाथ में कोई ताकत ही नहीं है। कट््टरवाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद और न जाने कितने खांचों में बंटा आम आदमी चाहे भारत में हो, पाकिस्तान में हो या फिर अफगानिस्तान में, अपनी दो जून की रोटी का इंतजाम करने में ही हलकान हुआ जा रहा है। सत्ता को शायद इसीलिए क्रूर और राजनीति को सबसे गंदा माना जाता है। ऐसे में आम आदमी क्या करे? सत्ता के साथ राष्ट््रवाद का दामन पकड़कर सुंदर भविष्य का सपना देखे? ऐसा करने से उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती है। हो सकता है कि वक्त के साथ हमारे रहनुमा राष्ट्रवाद को सही मंजिल तक पहुंचा दें। एक ऐसी मंजिल जहां आम आदमी सुकून के साथ अपनी झोपड़ी में सो सके। चाहे वह झोपड़ी नियंत्रण रेखा पर ही क्यों न हो।
संजय राय
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