क्या अखिलेश सरकार कभी ईमानदार अधिकारियों को भी प्रोन्नति देगी !
पिछले कुछ दिनों से सत्ता के केंद्र मुख्यमंत्री कार्यालय में हलचल काफी तेज है। सूचना आ रही है कि राज्य की अखिलेश सरकार कुछ आईपीएस व आईएएस अधिकारियों को इसी माह के अंत तक प्रोन्नति देने जा रही हैं। इस प्रोन्नति के संदर्भ में कहा जा रहा है कि ये विभागीय प्रोन्नति है जो एक निश्चित समय पर किसी भी अधिकारी को उसके सेवाकाल में मिलती हैं। पर यहाँ जो एक अहम् प्रश्न खड़ा है वो ये है कि यदि अधिकारियों को मिलने वाली प्रोन्नति रूटीन प्रोन्नति का हिस्सा है तो फिर ये प्रोन्नति उन्हीं को क्यों मिल रही है जो सत्ता के करीब हैं। जबकि अगर हम अधिकारियों की सूची देखें तो पता चलेगा कि तमाम ऐसे भी अधिकारी है जो प्रोन्नति पाने के पात्र है फिर भी उन्हें पिछले कई वर्षो से प्रोन्नति नहीं मिली। इस कड़ी में सबसे पहला नाम आईपीएस अधिकारी डी.डी मिश्रा का है जिन्हें तत्कालीन माया सरकार ने केवल इसलिए पागल घोषित कर अस्पताल पहुचने की कोशिश की क्योंकि उन्होंने माया सरकार के तमाम घोटालों पर से पर्दा उठाना शुरू कर दिया था। दूसरा नाम 1992 बैच के आईपीएस अधिकारी जसबीर सिंह का है। जसबीर सिंह भी सत्ताधारी पार्टियों की अवहेलना के शिकार हैं, उन्हें भी पिछले छह-सात सालों से प्रदेश के शीर्ष पर राज करने वाली पार्टियों ने प्रोन्नति नहीं दी क्योकि जसबीर सिंह ने राजनीतिक नेतृत्व की चापलूसी करने की बजाये जनता के हितों को तरजीह देना ज्यादा बेहतर समझा। अब इस कड़ी में एक और बड़ा नाम जुड़ चुका है, 1992 बैच के ही आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर का जिन्हें पिछले कई वर्षो से पुलिस अधीक्षक के पद पर ही लटकाये रखा गया है। सूचना है कि इस बार भी 1992 बैच के आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर को पदोन्नति नहीं दी जा रही क्योंकि उन्होंने कभी भी अपने कर्तव्य से समझौता नहीं किया। इतना ही नहीं उन्होंने तो कई बार सच्चाई की हिफाजत में प्रदेश सरकार के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलंद की। यही कारण है कि चाहे मायावती की सरकार रही हो या मुलायम की वो हमेशा सरकार की आँखों की किरकिरी बने रहे। ठीक इसके विपरीत उन्हीं के साथ के तमाम आईपीएस अधिकारी आज प्रोन्नति पाकर पुलिस उप-महानिरीक्षक के पद पर पहुच गएँ। इतना ही नहीं ऐसे नौकरशाहों की भी एक लम्बी लिस्ट है जो रिटायर्ड हो कर भी सरकारी पदों पर बैठ कर मलाई काटने में लगे रहते हैं। मलाई काटने वाले ऐसे नौकरशाह आम तौर पर अपनी योग्यता के बजाये सरकारों के साथ अपनी वफादारी के बदले में ऐसे इनाम पाते हैं।
सरकारों की मनमर्जी के शिकार होने वाले अधिकारियों में ऐसा नहीं है कि सिर्फ आईपीएस अधिकारी ही है। कई आईएएस भी हैं जो राजनैतिक कुंठा का शिकार हुए हैं। जिनमें सबसे प्रमुख नाम राज्य के वरिष्ठतम आईएएस अधिकारियों में से एक विजय शंकर पांडेय हैं। इनकी वरिष्ठता का आलम यह है कि इन्हें मुख्य सचिव के रैंक तक होना चाहिए। पर अफ़सोस कि ये आज भी महत्वहीन पद पर ही हैं। पांडे के करीब रहे एक अन्य नौकरशाह बताते हैं कि विजय शंकर पांडे ने सरकार के विरुद्ध किये गये एक पीआईएल को अफिडेविट कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि सरकार ने उन्हें अपने निशाने पर ले लिया। इसी तरह 1986 में यूपी के ही आईएएस अधिकारी धर्म सिंह रावत को भी पागल ठहराने की कोशिश की गई थी। रावत भ्रष्टाचार के खिलाफ उपवास कर रहे थे।
ये तो सिर्फ एक बानगी है सत्ता और ब्यूरोक्रेसी के उस नापाक गठजोड़ की जिसमें भ्रष्ट अधिकारी लगातार प्रोन्नति पाते जाते हैं और ईमानदार अपनी ईमानदारी के सिले में नाइंसाफी का शिकार होते रहते हैं। इतना ही नहीं सजा पाया हुआ भ्रष्ट अधिकारी भी सत्तानशीनों की मेहरबानी पर महतवपूर्ण पदों पर आसीन हो जाता है जिसमें ताजा नाम वरिष्ठ प्रशानिक अधिकारी राजीव कुमार का है जो अखिलेश सरकार की मेहरबानियों के चलते एक बार पुनः मतवपूर्ण पद, प्रमुख सचिव नियुक्ति के पद पर आसीन हो गए हैं। जबकि सजायाफ्ता अधिकारी की पदोन्नति में कई रुकावटें होती हैं। इसके बावजूद अखिलेश यादव सरकार ने नियमों को धता बताते हुए सजा पाए हुए अधिकारी को महतवपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया है। इसके उलट जो ईमानदार और बेदाग हैं वो आज भी विभिन्न महत्वहीन पदों पर बैठें है।
हलाकि यह पहली बार नहीं हुआ जब अखिलेश सरकार ने किसी सजा पाए हुए अधिकारी को महत्वपूर्ण पद पर बैठाया हो। इससे पहले भी उन्होंने एनआरएचएम घोटाले में सजा पाए हुए वरिष्ठ प्रशानिक अधिकारी प्रदीप कुमार को महतवपूर्ण पद बैठाया था। पर लखनऊ उच्च न्यायालाय की सख्ती के चलते राज्य सरकार को उन्हें उनके पद से हटाना पड़ा था। इस बार भी राजीव कुमार के लिए अखिलेश सरकार की राह इतनी आसान न होगी क्योकि तस्वीर बदली हुई है। लखनऊ के ही एक जुझारू पत्रकार ने मसले पर अपनी आवाज उठा दी हैं। उन्होने राजीव कुमार की नियुक्ति के खिलाफ इलाहाबाद की लखनऊ खण्डपीठ में एक यचिका दखिल की है। ऐसी स्थति में यह देखना रोचक होगा कि प्रशानिक अधिकारी राजीव कुमार की प्रमुख सचिव नियुक्ति के रूप में हुई तैनाती को चुनौती देने वाली इस याचिका पर उच्च न्यायालाय की लखनऊ खण्डपीठ क्या रुख अपनाती है? पिछली बार उच्च न्यायालय ने इस सड़ांध को काफी हद तक साफ करने की कोशिश की थी। हो सकता इस बार भी करें।
कितु यक्ष प्रश्न यही है कि कब तक उच्च न्यायालय सत्ता की गलियारों की सड़ांध साफ करेगा? क्या राजनेताओं से ईमानदारी की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए?
अनुराग मिश्र
स्वतंत्र पत्रकार
लखनऊ
मो-93899990111