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क्या गुल खिलाएंगे आडवाणी
अगले साल देष में होने वाले सोलहवें लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा ने अपने बुजुर्ग नेता लालकृश्ण आडवाणी के विरोध को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए बीते 13 सितम्बर को आखिरकार प्रधानमंत्री पद के लिए गुजरात केे मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी पर अपनी मुहर लगा दी। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी ने अभी तक अपना प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं घोशित किया है, लेकिन पूरा देष तय कर चुका है कि अगला चुनाव राहुल बनाम मोदी ही होगा।
हालांकि राजनीति के जानकार और खुद भाजपा और कांग्रेस के रणनीतिकार भी यह मानकर चल रहे हैं कि अगले चुनाव में कोई भी दल अपने बूते सत्ता हासिल करने लायक संख्या नहीं ला पाएगा, पर कांग्रेस और भाजपा के दोनों दावेदार अभी से ताल ठोंककर अखाड़े में उतर चुके हैं। ऐसे में अब जानकार लोग 86 साल के आडवाणी का सियासी मर्सिया पढ़ रहे हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इस मर्सिया में सबसे जोर की आवाज आरएसएस और भाजपा की ओर से ही आ रही है। आडवाणी का पीएम इन वेटिंग का दावा उनके प्रिय चेले ने ही छीन लिया और खुद को पीएम इन वेटिंग बनवा बैठा।
भाजपा में तेजी से बदले घटनाक्रमों ने जहां मोदी को गुजरात की राजनीति से उठाकर देष की राजनीति के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है, वहीं कभी देष की राजनीति में तूफान पैदा करके भाजपा को मंझधार से निकालकर सत्ता के षिखर तक पहुंचाने वाले आडवाणी आज राजनीति के हाषिये पर हाथ मलते नजर आ रहे हैं। कभी मोदी को गढ़कर राजनीति में तराषने वाले आडवाणी राजनीतिक लड़ाई में परास्त नजर आ रहे हैं। संस्कारों, भारतीय संस्कृति, परम्परा और तहजीब की बात करने वाली भाजपा में एक बुजुर्ग नेता का ऐसा हाल होगा, यह किसने सोचा था? किसी ने भले ही न सोचा हो, पर एक आदमी ने सोचा था। और ताज्जुब की बात यह है कि उस षख्स ने कई साल पहले ही आडवाणी की इस गति को समझ लिया था।
भाजपा में आडवाणी के राजनीतिक सहयोगी रहे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सात साल पहले ही उनके भविश्य की कुण्डली बांच दी थी। मौका था 9 सितम्बर 2006 को देहरादून में आयोजित भाजपा की राश्ट्रीय कार्यकारिणी के समापन भाशण का। पार्टी ने इसे वाजपेयी का मार्गदर्षन बताया था। राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में हो रही इस कार्यकारिणी में वाजपेयी भाजपा में जमीन से कट चुके पार्टी के प्रभावषाली युवा नेताओं के बीच एक दूसरे को काट-छांटकर आगे बढ़ने की होड़ को भांप गये थे।
आज के संदर्भ में वाजपेयी के इस मार्गदर्षन को फिर से याद करके हम भाजपा में चल रहे सत्ता के खेल को बेहद अच्छी तरह समझ सकते हैं। षायद यह वाजपेयी की भाजपा राश्ट्रीय कार्यकारिणी में आखिरी भागीदारी थी। उन्होंने पार्टी के युवा नेताओं से मुखातिब होकर कहा था, ‘बुजुर्गों को रद्दी की टोकरी में मत फेंको।‘ मैने इस कार्यकारिणी को कवर किया था। जब मोदी के नाम की घोशणा भाजपा मुख्यालय में राजनाथ सिंह ने की, तो उस समय वाजपेयी की यह नसीहत दिमाग में उभरकर कौंधने लगी और नजर के सामने था आडवाणी का चेहरा। महज कुछ ही मिनट में आडवाणी ने पत्र लिखकर राजनाथ सिंह पर ही हमला बोल दिया और सारी बातें जनता के रिकाॅर्ड में रहें, इसलिए पत्र को मीडिया में भी जारी कर दिया। नाराज आडवाणी ने मोदी की ताजपोषी से पैदा हुए पार्टी के जोष पर ठंडे पानी की तरह अध्यक्ष राजनाथ सिंह के कामकाज के तौर-तरीके की आलोचना करते यह खत लिखा और उसे बड़ी ही तेजी के साथ मीडिया में जारी किया। आडवाणी ने इस चिट्ठी में यह भी कहा कि आइंदा वह पार्टी की सबसे बड़ी नीति निर्णायक बाॅडी संसदीय बोर्ड की बैठक में नहीं आयेंगे।
हालांकि साझा परिवार के एक चतुर मुखिया की तरह पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मीडिया में लगातार यह दावा करते रहे कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर मोदी के नाम को लेकर कोई भी नेता नाराज नहीं है और पार्टी ही नहीं एनडीए ने भी मोदी के नाम का समर्थन किया है। आष्चर्य तो तब हुआ, जब राजनाथ के दावे को सच साबित करते हुए आडवाणी ने मोदी के छत्तीसगढ़ के कोरबा में मंच साझा करते रैली को संबोधित किया और मोदी की षान में कसीदे भी पढे़।
राजनीति के इस खेल में संघ और भाजपा के नेताओं ने आडवाणी को खलनायक बनाने में कोई कोर-कसर नहीं बाकी रखी है। संघ और भाजपा के बीच गर्भ-नाल का संबंध है। एक के बगैर दूसरे के वजूद की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। संघ को जब भी लगता है कि विचारों के स्तर पर भाजपा कमजोर पड़ रही है, वह अपनी ओर से खाद-पानी देकर उसे मजबूत कर देता है। आडवाणी 16 साल की उम्र से ही संघ के प्रचारक रहे हैं। मोदी भी घर-बार छोड़कर संघ के लिये समर्पित कार्यकत्र्ता की तरह काम कर चुके हैं। अगर मोदी पर 2002 में गुजरात के दंगों का दाग है, तो आडवाणी पर 1992 में पूरे देष में दंगे फैलाने का सूत्रधार माना जाता है। चेला डाॅक्टर है, तो गुरु ने पीएचडी कर रखी है। मौके की नजाकत को देखकर गुरु आडवाणी अगर मोदी की षान में कसीदे पढ़ रहे हैं, तो यह समझना भूल होगी कि आडवाणी ने हार मान ली है।
भविश्य की लड़ाई को और धारदार तरीके से लड़ने के इरादे से आडवाणी ने जो रणनीतिक फैसला लिया है, वह संघ की उस विषाल पटकथा का एक हिस्सा है, जिसमें मोदी का जादू फेल होने पर आडवाणी आगे आ सकते हैं। दो से षुरुआत करके 1999 में 182 सांसदों की पार्टी बनाने वाले आडवाणी को जो लोग फुंका कारतूस मान रहे हैं, वे षायद इस बात को भूल रहे हैं कि भाजपा के दूसरी पीढ़ी के नेता भले ही अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा में अंधे होकर आडवाणी को रद्दी की टोकरी में फेंकने की कोषिष करें, ल्ेकिन संघ अपने बेषकीमती, नायाब हीरे के जर्रे-जर्रे का भरपूर इस्तेमाल करेगा। इसे समझने के लिए संघ की कार्यषैली को समझना होगा, जो बेहद कठिन काम है। मोदी ने गुजरात में षासन किया है, तो आडवाणी ने दिल्ली की सत्ता में उप-प्रधानमंत्री पद तक पहुंचकर दुनिया की राजनीति को डील किया है। संघ आडवाणी की जितनी राजनीतिक पिटाई करेगा, आडवाणी उतने ही ज्यादा सेक्युलर बनेंगे। जिन्ना की मजार पर आडवाणी का जाना और उसके बाद से संघ द्वारा उनकी लगातार सियासी पिटाई करना, दोनों की सेक्युलर वर्जिष का हिस्सा माना जाना चाहिये।
राजनीति हो या युद्ध या दोनों में ही आपात योजना बनानी पड़ती है। इसे अक्सर प्लान-ए और प्लान-बी कहा जाता है। भाजपा के प्लान ए में अगर मोदी हैं तो यह मानकर चलिये कि प्लान बी में आडवाणी हैं। इसमें कोई षक होना ही नहीं चाहिए। संघ और भाजपा दोनों को पता है कि चाहे जितनी बड़ी लहर पैदा कर लें, मोदी सत्ता तक पहुंचने के लिए भाजपा को दो सौ सीटें नहीें दिला सकते हैं। अगर ऐसा हो भी जाता है, तो इसके पीछे जनता का कांग्रेस से मोहभंग ज्यादा जिम्मेदार रहेगा।
फिलहाल भाजपा रणनीतिकारों का सारा गणित मौजूदा 117 से बढ़कर 140-150 तक अटक जा रहा है। ऐसे में सेक्युलर चेहरे के तौर पर आडवाणी को आगे किया जा सकता है। वैसे भी पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के षब्दों में कहा जाय तो राजनीति संभावनाओं का खेल है। इस खेल में संघ अपनी कठपुतलियों को नचा रहा है। मोदी कब आडवाणी के आगे आएंगे और कब पीछे इसका पता न मोदी को है और न ही आडवाणी को। देष के राजनीतिक रंगमंच पर चल रहे इस खेल को आइए गौर से देखें। सच में मजा आएगा। कम से महंगाई की टेंषन से से तो ध्यान हटेगा।
संजय राय
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