लिटरेचर लव

खबरदार! जो संत कहा…

अशोक मिश्र
मेरे एक सीनियर हैं। नाम है..अरे नाम में क्या रखा है? आप लोग किसी बात को व्यंजना या लक्षणा में नहीं समझ सकते क्या? अब नाम बताना जरूरी है क्या? चलिए बता ही देते हैं, नाम है राम भरोसे (काल्पनिक नाम)। सुबह उठते ही वे सबसे पहले उठकर वे धरती को चूमते हैं। फिर अपनी हथेलियों को बड़ी गौर से निहारते हैं। फिर ‘हरिओम..तत्सत..’ का रौद्र पाठ करते हैं। ‘रौद्र पाठ’ से मतलब है, इतनी जोर से इस मंत्र का उच्चारण करते हैं कि उनके अड़ोसी-पड़ोसी जान जाते हैं, राम भरोसे जी जाग गए हैं। नहाने-धोने के बाद वे हनुमान जी, भोले बाबा, साईं जी महाराज, भगवती दुर्गा..सभी देवी-देवताओं और संत-महात्माओं को सादर प्रणाम करते हैं। आप इस बात को ऐसे समझ सकते हैं कि वे हर देवी-देवता के खाते में अपनी श्रद्धा का इन्वेस्टमेंट करते हैं। पता नहीं, कब और किसकी जरूरत पड़ जाए? इसके बाद आफिस पहुंचते ही वे कुर्सी पर बैठने से पहले मन ही मन सभी सबकी आराध्य देवों को नमन करते हैं।
आज राम भरोसे जी आफिस पहुंचते ही उन्होंने चपरासी को मुझे बुलाने का आदेश दिया और अपने चैंबर में घुस गए। घबराया हुआ मैं अपना सारा काम छोड़कर भागा। मैंने देखा, वे हाथ जोड़कर आंखें बंद किए हुए ध्यान मुद्रा में खड़े हैं। मैं भी बिना कोई आवाज किए एक ओर खड़ा आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। जब वे आराधनारत थे, उनके चेहरे के चारों ओर एक दिव्य आभा बिखरी हुई थी। जैसे ही उनकी साधना खत्म हुई और उन्होंने मुझे घूरकर देखा, वह आभा पता नहीं कहां बिला गई। उनके घूरते ही मैं समझ गया, ‘बेटा! आज तेरी खैर नहीं है। जरूर यह बुड्ढा तुझे खरी-खोटी सुनाएगा।’ मैंने मस्का लगाने की नीयत से झट से प्रणाम करते हुए कहा, ‘सर जी! जब आप साधनारत थे, तो मुझे लगा कि आप संत हो गए हैं? आपके चेहरे पर संतों वाली आभा बिखरी हुई थी। सर..मैं तो आपके चेहरे की चमक देखकर हथप्रभ था। अगर आप प्रवचन देने लगें, तो सच कहता हूं, आप चमक जाएंगे। आपके पीछे भक्तों की लाइन लग जाएगी। मैं तो अभी से आपका भक्त हो गया हूं, सर जी।’
मेरी बात सुनते ही वे गुर्राए, ‘बकवास मत करो! मैं संत न हूं, न था और न होऊंगा। खबरदार! जो मुझे संत कहा तो? अभी तुरंत..खड़े के खड़े सस्पेंड कर दूंगा। तुम्हारी मुझे संत कहने की हिम्मत कैसे हुई?’ मैं समझ गया, पासा उल्टा पड़ा है। मैंने झट से माफी मांगते हुए कहा, ‘सॉरी बॉस! मेरे दिल ने जो महसूस किया, वह मैंने कह दिया। आपको अगर संत कहना बुरा लगा, तो अब आगे से नहीं कहूंगा संत।’ उनका पारा अभी भी डॉलर की तरह चढ़ा हुआ था। बोले, ‘सुन..संत-वंत का चक्कर छोड़। अपने काम में मन लगा। बहुत गलतियां हो रही हैं इन दिनों तुझसे। आगे से बर्दाश्त नहीं की जाएगी। मैं तो आजिज आ गया हूं तुम जैसे नाकारा सहयोगियों से।’ मैं किसी लोढ़े की तरह मुंह लटकाए अपनी सीट पर आकर बैठ गया। मेरे सामने बैठे सुखदेव ने चुटकी ली, ‘क्या हुआ उस्ताद! अभी गए डॉलर की तरह थे, लौट रहे हैं रुपये की तरह। मामला क्या है?’ मैंने गहरी सांस ली, ‘कुछ नहीं, यार! बुढ़ऊ सनक गए हैं। मैंने उन्हें संत क्या कह दिया, लगे दंद-फंद बतियाने। मुझे संत मत कहो। मैं संत नहीं हूं। अब अगर संत नहीं हो, तो क्या असंत हो? संत होना कोई गुनाह है क्या? अगर बुढ़ऊ कुछ ज्यादा भौकाल दिखाते, तो मैं उन्हें असंत कह बैठता।’ सुखदेव ने मुझे लाल-पीला होता देखा, तो चुपचाप सरक गया।
दोपहर में रामभरोसे जी ने फिर से इंटरकॉम पर अपने हुजूर में पेश होने का फरमान सुनाया। मुझे देखते ही वे चीखे, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे बुढ़ऊ कहने की, असंत कहने की? तू अपने दिमाग का इलाज करा, वरना अगर मैं इलाज करने पर आया, तो तेरे स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा।’ राम भरोसे जी की बात सुनकर मैं समझ गया, नामाकूल सुखदेव ने आग लगा दी है। मैंने कहा, ‘नहीं सर..मैंने कुछ नहीं कहा है। आपसे जिसने भी कहा है, वह झूठ कहा है। मैं आपके संतत्व की कसम खाकर कहता हूं, आपको संत या असंत नहीं कहा था।’
मेरे लाख सफाई देने के बावजूद उनका क्रोध कम नहीं हुआ। वे काफी देर तक डांट पिलाते रहे। मेरे पास सिर झुकाकर सुनने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। किसी थके मुसाफिर की तरह अपनी सीट पर बैठकर काम और सुखदेव की फाइल निबटाने की सोच ही रहा था कि चपरासी ने राम भरोसे जी का ‘सो काज’ नोटिस लाकर पकड़ा दिया। नोटिस में कहा गया था, ‘चौबीस घंटे में अपने सीनियर अधिकारी को संत कहने के संबंध में स्टष्टीकरण नहीं दिया, तो सेवाएं समाप्त कर दी जाएंगी।’
‘सो काज’ नोटिस पाने के बाद से ही मैं सोच रहा हूं, क्या किसी को संत कहना इतना बड़ा गुनाह है कि उसे कारण बताओ नोटिस दी जाए? छिपे शब्दों में उसे नौकरी से निकालने की धमकी दी जाए? आप लोग ही बताइए, मेरा गुनाह क्या सचमुच इतना बड़ा है? कि…।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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