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धमाकों के साए में हुंकार रैली

पटना का गांधी मैदान २७ अक्टूबर को राजनीति के एक और ऐतिहासिक पल का गवाह बना…नरेन्द्र मोदी की रैली में जुटे हुजूम के बीच एक के बाद एक बम धमाके होते रहे… ये पल इतिहास में इसलिए दर्ज होंगे कि बीजेपी समर्थकों ने धमाका स्थलों को छोड़ बाकि किसी जगह से हिलना गवारा नहीं समझा… मौत के साए में अपने प्रिय नेता का भाषण सुनने की ऐसी मिसाल शायद ही दिखे… और राज्य के आला अधिकारियों की ओर से रैली स्थल न जाने की सलाह के बावजूद नरेन्द्र मोदी का गांधी मैदान जाकर तकरीर करना…ये रैली इसलिए भी ऐतिहासिक कही जाएगी कि इसे रोकने की कोशिशों का सिलसिला देश में संभवतह इतना लंबा कभी नहीं खिंचा होगा….
संख्या के लिहाज से हुंकार रैली जेपी और लालू की रैली की श्रेणी में आती है… विषम माहौल में मोदी का भाषण कई कारणों से स्पष्टता लिए हुए था… ये तय हो गया कि बिहार और देश के लिए बीजेपी की सोशल इंजिनीयरिंग का कैसा रूप होगा… जहां बिहार और यूपी में मोदी की नजर पिछड़ों के वोट में सेंध लगाने पर है वहीं मुसलमानों के संबंध में बीजेपी के पीएम उम्मीदवार ने अपना नजरिया बेहतर तरीके से खोला… उन्होंने साफ कर दिया कि सबका साथ और सबका विकास की उनकी तमन्ना में हिन्दू-मुसलिम सहभागिता की गुंजाइश है… गरीबी के खिलाफ लड़ाई में इस एकता की वकालत… राष्ट्रीय पटल पर आने के बाद से मोदी की तरफ से पांच मौकों पर गुजरात दंगों के लिए अफसोस जताने की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए..
दिलचस्प है कि बीजेपी नेता ने सरदार पटेल की मूर्त्ति प्रकरण पर जोर नहीं दिया… उम्मीद थी कि इसके बहाने वो कोइरी-कुर्मी वोट बैंक में एंग्जाइटी पैदा करेंगे… रैली के दौरान हुए सीरियल बम ब्लास्ट के संबंध में बड़े ही रोचक पहलू सामने आ रहे हैं… नीतीश कहते हैं कि इस तरह का वाकया बिहार में नहीं हुआ था लिहाजा कोई चूक नहीं मानी जानी चाहिए… बेशक दुनिया की हर घटना अपने आप में अनूठी ही होती पर उन्हें याद रखना चाहिए कि बिहार के ही समस्तीपुर जंक्शन पर लोगों को संबोधित करने के दौरान राज्य के पहले विकास पुरूष एल एन मिश्र को बम ब्लास्ट में उड़ा दिया गया था… सात धमाके रिकार्ड हुए और चूक न हुई ये हजम करने वाली थ्योरी नहीं हो सकती..
ये कहना मुनासिब न भी हो कि राजनीतिक विरोधी की ये चाल है … पर जिस तरीके से पिछले कई महीनों से रैली को नहीं होने देने की नीचता दिखाई जा रही थी उसका नाजायज फायदा अवांछित तत्वों ने उठाया होगा इससे नीतीश कैसे इनकार कर सकते….? वैसे भी इस राज्य में राजनीतिक पटखनी देने के लिए असामाजिक तत्वों का सहयोग लेने की परंपरा रही है… नीतीश कुमार को मलाल हो रहा होगा कि इतने लोगों को जुटा लेने की हैसियत उनकी नहीं बन पाई है…वे रिजनल क्षत्रप ही बने रह गए.. ये भी चिंता सता रही होगी कि पीएम की रेस में वो कोसों पीछे हो गए हैं… पर उनकी असल चिंता इस बात में निहित होनी चाहिए कि चापलूसों के कारण जिस राजनीतिक नीचता की संस्कृति को ढो रहे हैं उसके कारण उनकी जेंटलमैन पॉलिटिशियन की यूएसपी पूरी तरह छिजती जा रही है…

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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