नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े कुछ प्रश्न (भाग-1)
पुरुषोत्तम, पटना
नक्सलबाड़ी एक गांव का नाम है – पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले का एक गांव. लेकिन आज नक्सलबाड़ी एक गांव का नाम भर नहीं रह गया है. यह एक विचारधारा का प्रतीक बन गया है. 25 मई 1967 को नक्सलबाड़ी के किसानों ने विद्रोह किया था। इस विद्रोह ने भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक नया आयाम जोड़ा. गुजरे 43 सालों में नक्सलवादी आंदोलन दर्जन भर टुकड़ों में बंट चुका है. राजसत्ता के लोहर्षक दमन और लगातार टूटते-बिखरते जाने की पृष्ठभूमि में इसने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के बाद यह दूसरा बड़ा आंदोलन है जिसने भारी दमन के बावजूद इतनी लंबी जिंदगी को जिया है. महाराष्ट्र, उड़ीसा, छत्तिसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में ;कथित रेड कोरिडोरद संघर्ष के सशस्त्र स्वरूप के कारण आज यह दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है.
‘नक्सलवाद’ को अलग-अलग नजरिये से देखने की प्रवृति रही है. सरकार और अमीर-उमरा इसे अराजकता का पर्यांय मानते हैं तथा कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में इसका समाधन तलाशने का उपक्रम करते हैं. मध्यवर्ग का एक हिस्सा इसे क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए संघर्षशील पाता है तो दूसरा संपत्ति अर्जन में लगे अपराधकर्मी के रूप में देखता है. दलित और अभिवंचितों के एक हिस्से को इसमें सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले बहादुर योद्धा की छवि दिखती है. असल में ‘नक्सलवाद’ की व्याख्या के लिए हर तबका अपना अलग दृष्टिकोण रखता रहा है.
प्रस्तुत आलेख में उस पृष्ठभूमि को समझने का प्रयास किया गया है जिसमें यह आंदोलन पैदा हुआ. यह जानने का प्रयास किया गया है कि वे कौन से हालात हैं जिनमें टूटन-बिखराव के बीच भी यह बार-बार सर उठाता रहा है. आजादी के बाद देश के सामाजिक-आर्थिक विकास की नीतियों में ही तो वह बीज नहीं जिनसे यह पोषण पाता रहा है? इस क्रम में आलेख में आंदोलन की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, कम्युनिस्ट आंदोलन के वैचारिक विवादों, स्वयं नक्सल आंदोलन के मतभेदों, रणनीतिक प्रश्नों तथा आय के स्रोत आदि पर संक्षिप्त चर्चा की गयी है.
सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि
भारत में ब्रिटिश सम्राज्यवाद का प्राण स्थाई बंदोवस्ती वाली जमींदारी व्यवस्था रूपी तोते में बसता था. जमींदारों के जोर-जुल्म से देश के किसान त्रास्त थे. राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दिनों में इसके खिलापफ किसानों का संघर्ष बहुत ही सबल था. किसान संघर्ष के आक्रामक तेवर को देखते हुए जमींदारी उन्मूलन का कानून आजादी के तुरंत बाद 1948 ईस्वी में बनाया गया. इसके बन जाने से जमींदारों की कानूनी हैसियत समाप्त हो गयी. लेकिन भूमि हदबंदी और बटाईदारों को हक दिलाने वाले किसी कानून के अभाव में व्यवहार में उनकी पुरानी हैसियत ज्यों-की-त्यों बनी रही. देश का औद्योगिक महौल भी आशा जनक नहीं था. व्यापारिक घराने बड़े निर्माण उद्योगों में निवेश करने के बदले सेवा क्षेत्रा में निवेश करने में लगे हुए थे. उपभोक्ता सामग्रियों के उत्पादन और व्यापार से मुनाफा कमा कर धनी बन जाने की जल्दबाजी में वे थे. इने-गिने घरानों ने ही निर्माण उद्योगों में पूंजी लगाने में रुचि दिखायी. असल में बड़े और अधिसंरचनात्मक उद्योगों में अकूत पूंजी लगती थी और मुनाफा भी लंबे समय के बाद मिलता था. मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ में कारखाने अवश्य खोले गये. लेकिन इनमें होने वाला निवेश अधिकांशत : देशी नहीं था. ये व्यापारिक और औद्योगिक घरानों के हितसाधन का माध्यम बन कर रह गये.
गांधीजी के ‘ग्रामस्वराज’ या उनके ‘सपनों के भारत’ का कहीं अता-पता नहीं था. ;महात्मा गांधी की दृष्टि में शासन में जन सहभागिता को सुनिश्चित करने का एक मात्रा उपाय ग्राम स्वराज ही हो सकता था. उनके स्वराज का मतलब गांवों के प्रबंध में ग्रामीणों के सहभागिता की गारंटी थी. बड़ी जरूरतों के लिए भी पड़ोसी तक पर निर्भर न होना ही गांधी जी के ग्रामस्वराज का सही रूप हो सकता था. वह गरीबों का स्वराज हो. भोजन और वस्त्र का अभाव किसी को नहीं रहे. अपनी जरूरतों को पूरा करने लायक काम सभी के पास हो. वह कहते हैं कि इस आदर्श को तभी साकार किया जा सकता है, जब प्राथमिक जरूरतों को पूरा करने लायक उत्पादन के साधन पर सभी का अधिकार हो. कुछ लोगों के हाथों में शक्ति के केंद्रित हो जाने से सही माने में ग्रामस्वराज नहीं हो सकता. शक्ति का दुरुपयोग रोक पाने की क्षमता आम लोगों के पास होनी चाहिए. उनके सपनों का भारत नहीं बन सका. जनतंत्र के नाम पर अल्पतंत्र कायम कर दिया गया. आजादी से जो उम्मीदें लोगों ने लगायी थीं, 1960 के दशक तक वे चकनाचूर हो गयीं.
जारी है…..
( लेखक लंबे समय तक पत्रकारिता और रीसर्च से जुड़े रहे हैं)