क्या सचमुच गाने लायक है हमारा राष्ट्रगान

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चंदन कुमार मिश्र

राजीव दीक्षित से मेरा पहला परिचय हाल ही में इंटरनेट के माध्यम से हुआ। मैं उनसे और उनके अंग्रेजों के समय के इतिहास की और भारत की गुलामी से पूर्व की स्थिति पर इतिहास की जानकारी से प्रभावित हुआ। उनका जन्म 1967 में उत्तर प्रदेश में हुआ था। वे आई आई टी के छात्र, फ्रांस में इंजीनियर और वैज्ञानिक भी रहे। कलाम के साथ भी काम किया। आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता रहे। अल्पायु में ही 2010 में उनकी मृत्यु हो गयी। बाद में वे योग वाले बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान आंदोलन के सचिव रहे और इस आंदोलन के दौरान कई बेहद महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए। उनके कुछ व्याख्यान मैंने सुने और सुन रहा हूं। फिर सोचा कि इन व्याख्यानों को शब्द में बदल दिया जाय तो सबसे पहला श्रुतिलेख आपके सामने है। यह व्याख्यान सबसे छोटा था (19 मिनट 45 सेकेंड का) इसलिए शुरुआत इससे ही कर रहा हूं। यह काम बहुत कठिन है। कम से कम मेरे लिए तो बहुत श्रमसाध्य है। फिर भी मैंने इसे सुनकर ज्यों का त्यों एक -एक शब्द लिखा है। भारतीयता और भारत को समझने में उनके व्याख्यानों से मदद मिलती है। अब आपको राजीव के व्याख्यान पढने को मिलते रहेंगे। यह व्याख्यान कब का है, कहां दिया गया, मुझे नहीं मालूम। इस व्याख्यान में आनंदमठ और गीतांजलि की बात आयी है। इसलिए इन दोनों को डाउनलोड करने के लिए लिंक दे रहा हूं।

http://sites.google.com/site/myepatrika/e-book

एक लिंक यह भी है इससे संबंधित।

http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=3691&Itemid=43

जन गण मन और वंदे मातरम् की कहानी

व्याख्यान: राजीव दीक्षित

“………उन्होंने इस गाने को लिखा। लिखने के बाद सात साल लगे। उसके बाद ये गाना लोगों के सामने आया। क्योंकि उन्होंने जब ये गाना लिखा, उसके बाद एक उपन्यास लिखा उसका नाम था- आनंदमठ। उसमें इस गीत को डाला। वो उपन्यास छपने में सात साल लगे। अठारह सौ बयासी में ये आनंदमठ उपन्यास का हिस्सा बना- वंदे मातरम्। और उसके बाद जब लोगों ने उस उपन्यास को पढ़ा तो इसका अर्थ पता चला कि वंदे मातरम् क्या है? आनंदमठ उपन्यास बंकिम चन्द्र चटर्जी ने लिखा था अंग्रेजी सरकार के विरोध में और अंग्रेजी सरकार को सहयोग करने वाले उन राजा-महाराजाओं के विरोध में जो किसी भी जाति और सम्प्रदाय के हों लेकिन अंग्रेज सरकार को सहयोग करते हों। फिर उसमें उन्होंने बगावत की भूमिका लिखी और ये कहा कि अब बगावत होनी चाहिए, विद्रोह होना चाहिए ताकि इस अंग्रेजी सत्ता को हम पलट सकें। और इस तरह से वंदे मातरम् को सार्वजनिक गान बनना चाहिए- ये उन्होंने घोषित किया। उनकी एक बेटी हुआ करती थी, बंकिम चन्द्र चटर्जी की, जिसका अपने पिताजी से बहुत मतभेद था। मतभेद किस बात पर था? उनकी बेटी कहती थी कि आपने वंदे मातरम् लिखा है, इसके शब्द बहुत क्लिष्ट हैं। और बोलने और सुनने वाले की ही समझ में नहीं आयेंगे। तो गीत को आप ऐसा सरल बनाइए जो बोलनेवाले और सुननेवाले को समझ में आए। तो उस समय बंकिम चन्द्र चटर्जी ने कहा कि देखो आज तुम्हें लगता है कि ये क्लिष्ट है लेकिन मेरी बात याद रखो थोड़े दिन के बाद ये गान भारत के हर नौजवान के होठों पर होगा। हर क्रांतिवीर की प्रेरणा बनेगा। उसके बाद हम सब जानते हैं कि ये घोषणा करने के लगभग बारह साल के बाद चटर्जी जी का स्वर्गवास हो गया। वो जीवित नहीं रहे। बाद में उनकी बेटी और परिवार के लोगों ने ये जो आनंदमठ पुस्तक की, जिसमें ये गान था, इसका बड़े पैमाने पर प्रचार किया। वो पुस्तक पहले बांग्ला में बनी। फिर बाद में उसका मराठी हुआ, हिन्दी हुआ, तमिल, तेलगू, कन्नड़ बहुत सारी भाषाओं में छपी और उस पुस्तक ने क्रांतिकारियों में जोश भरने का काम किया। उस पुस्तक में क्या था- ये पूरी व्यवस्था का विरोध करें क्योंकि ये विदेशी है, आततायी है। ऐसा वो सब था। उसमें बहुत सारी ऐसी जानकारियां थीं जो लोग सुनकर उबलते थे, जानकर उबलते थे। अंग्रेजी सरकार ने बार-बार इस पुस्तक पर पाबंदी लगायी, कई बार इसके बहुत सारे अंश काट-छांट दिये। कई बार इसको जलाया गया। लेकिन पुस्तक की मूल प्रति किसी -न-किसी रूप में सुरक्षित रही। तो ये आगे बढ़ती रही। 1905 में अंग्रेजों की सरकार ने बंगाल का बंटवारा कर दिया। एक अंग्रेज अधिकारी था- कर्जन। उसने बंगाल को दो हिस्सों में बांट दिया। एक पूर्वी बंगाल, एक पश्चिमी बंगाल। पूर्वी बंगाल था मुसलमानों के लिए और पश्चिमी बंगाल था हिन्दुओं के लिए। हिन्दू और मुसलमान के आधार पर ये भारत का पहला बंटवारा था। तो भारत के कई सारे ऐसे लोग जो जानते थे कि आगे क्या हो सकता है, उन्होंने इस बंटवारे का विरोध किया। और बंग-भंग के विरोध में एक आंदोलन शुरु हुआ। इस आंदोलन के सबसे प्रमुख नेता थे- लाला लाजपत राय जो उत्तर भारत में थे, विपिन चन्द्र पाल जो बंगाल और पूर्व भारत का नेतृत्त्व करते थे और लोकमान्य बाल गांगाधर तिलक जो पश्चिम और मध्य भारत के बड़े नेता थे। इन तीनों नेताओं ने अंग्रेजों के बंग-भंग सॉरी अंग्रेजों के बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन शुरु किया। और इस आंदोलन का एक हिस्सा था- अंग्रेजों भारत छोड़ो, अंग्रेजी सरकार से असहयोग करो, अंग्रेजी कपड़े मत पहनो, अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करो। और दूसरा हिस्सा था पाजिटीव कि भारत में स्वदेशी का निर्माण करो, स्वदेशी के पथ पर आगे बढ़ो। लोकमान्य तिलक ने इस आंदोलन को अपने शब्दों में स्वदेशी आंदोलन कहा। अंग्रेजी सरकार इसको बंग-भंग विरोधी आंदोलन के नाम से कहती रही। लोकमान्य तिलक कहते थे ये हमारा स्वदेशी आंदोलन है। ये छ: साल चला। इस आंदोलन की ताकत इतनी थी कि अंग्रेजों के खिलाफ जो उन्होंने कहा वो पूरे भारत ने स्वीकार कर लिया। जैसे उन्होंने एक ऐलान किया कि अंग्रेजी कपड़े खरीदना बंद करो, करोड़ों भारतवसियों ने अंग्रेजी कपड़े पहनना बंद कर दिया। और उसी समय भले हिन्दुस्तानी कपड़ा मिले, मोटा मिले, खादी का मिले वही पहनना है। फिर उन्होंने कहा -अंग्रेजी ब्लेड का बहिष्कार करो तो भारत के लाखों नाईयों ने अंग्रेजी ब्लेड से दाढ़ी बनाना बंद कर दिया, वो उस्तरा हिन्दुस्तान में वापस लौट आया। फिर लोकमान्य तिलक ने कहा -अंग्रेजी चीनी खाना बंद करो क्योंकि शक्कर उस समय इंग्लैड से बनकर आती थी, भारत में गुड़ बनता था। तो हजारों लाखों हलवाईयों ने गुड़ डालकर मिठाई बनाना शुरु कर दिया। फिर उन्होंने अपील किया कि अंग्रेजी कपड़े से और अंग्रेजी साबुन से अपने घर को मुक्त करो तो हजारों लाखों धोबियों ने अंग्रेजी साबुन से कपड़े धोना बंद कर दिया। फिर उन्होंने पुरोहितों को कहा कि आप शादी कराओ अगर लड़के-लड़कियों की तो उनके शरीर पर अंग्रेजी वस्त्र न हों तभी शादी कराओ। अगर वो अंग्रेजी वस्त्र पहनकर शादी करें तो शादियों का बहिष्कार करो। तो पुरोहित समाज ने सूट-पैंट-टाई पहनने वाले दूल्हों का बहिष्कार कर दिया। इतने व्यापक स्तर पर ये आंदोलन फैला। छ: साल के अंदर अंग्रेजी सरकार घबड़ा गई क्योंकि उनका माल बिकना बंद हो गया। ईस्ट इंडिया कंपनी का धंधा चौपट हो गया। तब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेज सरकार पर दबाव डाला कि हमारा तो सारा धंधा ही खतम हो गया है भारत में। अब हमको कुछ भी उपाय नहीं है। आप इन भारतवासियों की मांग को मंजूर करो तो मांग क्या थी? एक मुख्य मांग थी कि बंगाल का जो बंटवारा किया है हिन्दू-मुसलमान के आधार पर ये वापस करो। हमें संप्रदाय के आधार पर बंटवारा नहीं चाहिए। और आप जानते हैं कि अंग्रेजों की सरकार ने झुकना स्वीकार किया और 1911 में डिवीजन आफ बंगाल ऐक्ट कानून वापस लिया गया और बंगाल को फिर से एक किया गया। तब लोकमान्य तिलक को ये समझ में आ गया कि अगर अंग्रेजों को झुकाना है तो इनका बहिष्कार ही सबसे बड़ी उपाय है और ताकत है। ये छ: साल जो आंदोलन चला 1905 से 1911 इस आंदोलन का मूल मंत्र था – वंदे मातरम्। ये जितने कार्यकर्ता थे लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल के साथ काम करनेवाले उनकी संख्या एक करोड़ बीस लाख से ज्यादा थी। वो हर कार्यक्रम में वंदे मातरम् का उद्घोष करते थे। कार्यक्रम के ही शुरुआत में वंदे मातरम् गाते थे। कार्यक्रम के अंत में भी वंदे मातरम् गाया जाता था। बाद में क्या हुआ कि 1911 में लोकमान्य तिलक और इन सब लोगों के दबाव में और बंगाल में इतना जबरदस्त आंदोलन हो गया उसके दबाव में अंग्रेजों की सरकार ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट कर दिया। अंग्रेजों को ऐसा लगता था कि अब हम कलकत्ता में सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि बंगाल इस आंदोलन का केंद्र था। तो उन्होंने अपने को सुरक्षित करने के लिए कलकत्ता से भागकर दिल्ली में शरण ली और 1911 में दिल्ली भारत की राजधानी बन गयी। उसके बाद अंग्रेजों ने एक दूसरा काम किया कि भारत के लोगों को शांत करने के लिए जो अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह से भरे हुए थे। अंग्रेजी राजा को भारत में आमंत्रित किया। जार्ज पंचम भारत में आया सन 1911 में। और जब जार्ज पंचम भारत में आया तो इन अंग्रेज अधिकारियों ने जार्ज पंचम के स्वागत के लिए एक गीत लिखवाया। और उस गीत का नाम है -जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्यविधाता। क्योंकि इस गीत के सारे के सारे शब्द अंग्रेजी राजा जार्ज पंचम की स्तुति का गान हैं। जन गण मन अधिनायक, अधिनायक माने सुपरहीरो। भारत की जनता है, भारत के जो लोग हैं उनके तुम सुपरहीरो, तुम्हारी जय हो। माने कौन? – जार्ज पंचम। इस गीत को जिन्होंने लिखा वो थे श्री रवींद्रनाथ टैगोर। और रवींद्रनाथ टैगोर की लिखी हुई एक चिट्ठी मेरे पास है जो कभी समय आने पर मैं टीवी चैनल के माध्यम से पूरे देश को दिखाने वाला हूं। उस चिट्ठी में उन्होंने अपने बहनोई को लिखा है जो थे सुरेंद्रनाथ बनर्जी और लंदन में रहते थे। आई सी एस आफिसर थे। उनको उन्होंने लिखा है कि ये गीत मेरे उपर अंग्रेज अधिकारियों ने दबाव डलवाकर लिखवाया है, वंदे मातरम् के पैरेलल। क्योंकि उस समय भारत में हर जगह उद्घोष था  वंदे मातरम् का। हर क्रांतिवीर गाता था वंदे मातरम्। और इस वंदे मातरम् को और ज्यादा लोकप्रियता तब मिली जब भारत का सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी खुदीराम बोस फांसी के फंदे पर चढ़ा तो वंदे मातरम् कहते हुए चढ़ा। उसके बाद तो सभी क्रांतिकारियों ने इसको बना लिया कि फांसी पर जायेंगे तो वंदे मातरम् गायेंगे। वो चाहे भगतसिंह हो चाहे आशफाक उल्ला हो चाहे उधम सिंह हो चाहे शचींद्रनाथ सान्याल हों चाहे कोई भी हो। सब ने फांसी पे चढ़ने को स्वीकार किया वंदे मातरम् के घोष से। अंग्रेजों को इससे बहुत चिढ़ होती थी। तो अंग्रेजों का ये कहना था कि इसके पैरेलल कोई गाना प्रचारित किया जाय। और उस समय 1911 में आपको मैं ऐतिहासिक जानकारी दे रहा हूं कि रवींद्रनाथ टैगोर का परिवार अंग्रेजों के बहुत नजदीक था। रवींद्रनाथ टैंगोर के परिवार के ज्यादा लोगों ने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी में काम किया। उनके बड़े भाई जो अवनींद्रनाथ टैगोर थे वो ईस्ट इंडिया कम्पनी के बहुत सालों तक कलकत्ता डिविजन के डायरेक्टर रहे। काफी पैसा उनके परिवार का ईस्ट इंडिया कम्पनी में लगा था। तो अंग्रेजों से बहुत सहानुभूति थी- रवींद्रनाथ टैंगोर की। ये सहानुभूति खतम हुई 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्या कांड हुआ। और गांधी जी ने रवींद्रनाथ टैगोर को गाली देते हुए कहा कि अभी भी तुम्हारी आंखों से अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरता तो कब उतरेगा? तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए? तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए? आप जानते हैं 1911 में ये गान जब लिख दिया तो उन्होंने अपने बहनोई को कहा कि ये गान तो मैंने अंग्रेजों के कहने पर लिखा है। शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इसलिए कृपया इसको न गाया जाए तो अच्छा है। लेकिन अंत में एक लाइन लिख दिया कि ये चिट्ठी किसी को न दिखायें क्योंकि मैं सिर्फ आप तक ये सीमित रखना चाहता हूं। कभी मेरी मृत्यु हो जाए तो जरुर सबको बताएं। 1941 में रवींद्रनाथ टैगोर की मृत्यु हो गई। तब बनर्जी साहब की कृपा से ये चिट्ठी लोगों के सामने आई। उसकी एक कॉपी मेरे पास भी है। और उन्होंने पूरे देश को कहा कि जन गण मन को न गाया जाय। उसी बीच में कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी और एक बड़ा संगठन बन चुकी थी। कांग्रेस में जबतक लोकमान्य तिलक थे , लाला लाजपत राय थे, विपिन चंद्र पाल थे तब तक वंदे मातरम् ही गाया गया। बाद में आप जानते हैं कि लोकमान्य तिलक का कांग्रेस के नेताओं से मतभेद हुआ। और कांग्रेस के नेताओं में उनका सबसे ज्यादा मतभेद हुआ पंडित मोतीलाल नेहरु के साथ। क्योंकि मोतीलाल नेहरुजी की योजना ये थी कि अंग्रेजों के साथ कोई संयोजित सरकार बने -कोलीसन गवर्मेंट। और उसके लिए वो बार-बार कहते थे। और लोकमान्य तिलक कहते थे कि अंग्रेजों के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देना है। तो इस मुद्दे पर मतभेद था। तो ये कांग्रेस से निकल गये। तो फिर इन्होंने एक गरम दल बनाया। तो कांग्रेस के दो हिस्से हो गए। एक नरम दल, एक गरम दल। गरम दल के लीडर- लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल- ये सब बड़े कांग्रेस के लीडर थे। तो ये हर जगह वंदे मातरम् गाते थे। फिर ये नरम दल वाले ज्यादातर अंग्रेजों के साथ रहते थे। अंग्रेजों की कहना, अंग्रेजों की सुनना, उनके नजदीक जाना, उनकी मीटिंगों शामिल होना वगैरह-वगैरह् और वो हर समय अंग्रेजों से समझौते के मूड में रहते थे। तो जब 1911 में ये गाना लिख दिया तो ये नरम दल वालों ने इस गाने को गाना शुरु कर दिया। कई बार ये गरम दलवालों को चिढ़ाने के लिए गाना गाया करते थे। बाद में क्या हुआ कांग्रेस के बड़े-बड़े अधिवेशन हुआ करते थे, उनमें ये बहुत बहस होती थी- कौन सा गाना गाया जाय? तो वंदे मातरम् पर सबकी सहमति होती थी लेकिन नरम दल का छोटा-सा एक गुट था जो अंत में फिर जन गण मन गा लेता था। बाद में क्या हुआ कि ये नरम दल के कुछ खुराफाती लोगों ने एक वायरस छोड़ दिया। और वो वायरस ये छोड़ दिया कि ये मुसलमानों को नहीं गाना चाहिए। क्योंकि इसमें बुतपरस्ती है माने बुत की पूजा है। मुसलमानों को आप जानते हैं कि एक बड़ा करेंट लगता है ये सुनते ही। तो बिना सोचे समझे उनको करेंट दौड़ गया। तो जो मुस्लिम लीग के नेता थे, चूंकि मुस्लिम लीग 1906 में बन चुकी थी और उसी के कहने पर बंगाल का विभाजन भी हुआ था तो मुस्लिम लीग के नेताओं में करेंट दौड़ गया। मोहम्मद अली जिन्ना जब इसके प्रेसीडेंट बने तो इन्होंने इसके खिलाफ बोलना शुरु कर दिया कि वंदे मातरम् सांप्रदायिक गाना है। हम इसे नहीं गायेंगे। फिर इन्होंने क्या किया कि दुश्मनी निकालने के लिए जहां भी वंदे मातरम् गाया जाता था वहीं पर जन गण मन गाते थे। जहां वंदे मातरम्  होता था वहीं जन गण मन  होता था। तो एक तरह से जन गण मन और वंदे मातरम् में कम्पटीशन शुरु करा दिया। अंत में ये क्म्पटीशन इतना आगे बढ़ा कि 1941 में जब टैगोरजी मर गये तो भी ये सत्य उद्घाटित होने के बाद भी मुस्लिम लीग ने कहा हम तो यही गायेंगे। अब अंत में क्या हुआ भारत आजाद हुआ 1947 में इसी झगड़े के साथ कि वंदे मातरम् कि जन गण मन? वंदे मातरम् कि जन गण मन? फिर ये कंस्टिट्यूएंट एसेम्बली की बहस हुई जिसमें  319 लोग थे। इन सभी  में एक को छोड़कर सब ने माना कि वंदे मातरम् ही होना चाहिए राष्ट्रगान। एक ने नहीं माना। वो एक कौन थे- पंडित जवाहरलाल नेहरु। उन्होंने नहीं माना। क्यों नहीं माना? तो वो कहते हैं कि मुसलमानों को इससे दुख होता है। उनके दिल को चोट पहुंचती है तो हम क्यों गाएं इसको? माने हिन्दुओं के दिल को चोट पहुंचे तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । मुसलमानों के दिल को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। और नेहरुजी कहते थे कि इस समय मुस्लिम लीग की राजनीति चल रही है। भारत का बंटवारा किया है। इसका तोड़ करने के लिए मुसलमानों को साथ रखना जरुरी है। तो उनकी इन बातों को मान लेना ही अच्छा है। तो नेहरुजी बार-बार यही तर्क देते थे। अंत में क्या हुआ कि सभी कंस्टिट्यूएंट एसेम्बली के मेम्बर्स ने कहा कि हमको तो ये बैठता नहीं है जन गण मन। तो फैसला कौन करे तो गांधी जी के पास पहुंचे तब तक गांधीजी जीवित थे। तो गांधीजी ने कहा कि जन गण मन के पक्ष में तो मैं भी नहीं हूं। और तुम वंदे मातरम् के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गाना निकालो। तो उन्होंने कहा आप ही निकाल के दे दो। तो गांधीजी ने एक गाना निकाल के दिया जो हमारा बाद में झंडा गान था। उसके पहले वो झंडा गान नहीं था। विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा। इसकी शान न जाने पाए, चाहे आन भले ही जाए। ये जो गाना था गांधीजी ने कहा इसको बना लो। तो नेहरुजी उसपे भी तैयार नहीं। अब नेहरुजी का तर्क क्या था? नेहरुजी का तर्क था कि ये गाना ऑर्केस्ट्रा पे नहीं बज सकता और जन गण मन ऑर्केस्ट्रा पे बज सकता है। और जन गण मन आप जानते हैं अंग्रेजों का लिखवाया हुआ गीत था जार्ज पंचम के स्वागत के लिए। इसके एक-एक शब्द को ध्यान दें। जन गण मन अधिनायक जय हे, तुम्हारी जय हो। भारत भाग्य विधाता, तुम भारत के भाग्य विधाता हो। पंजाब सिंध गुजरात मराठा, द्राविड़ उत्कल बंग, विंध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तरंग। तब शुभना में जागे। हम तुम्हारे नाम की शुभकामनाओं के लिए तब शुभ आशिष मांगे आशिष मांगते हैं तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो। जार्ज पंचम ने जब ये सुना तो उसको अर्थ तो समझ में नहीं आया। फिर उसने इंग्लिश ट्रांसलेशन कराया। तो जार्ज पंचम का स्टेटमेंट था कि इतनी खुशामद तो मेरी इंग्लैंड में भी कोई नहीं करता। बहुत खुश हुआ जार्ज पंचम। कौन है रवींद्रनाथ टैगोर, बुलाओ, मेरे पास लेके आओ। तो रवींद्रनाथ टैगोर को  परिचय कराया गया। अंत में जार्ज पंचम जब विदा हुआ तो उस समय की वो नोबुल प्राइज कमिटी का चेयरमैन भी था। तो उसने रवींद्रनाथ टैगोर का नाम नोबुल प्राइज के लिए रिकमेंड कर दिया। क्योंकि वो उनके गीत से प्रभावित था। अब रवींद्रनाथ टैगोर के लिए संकट खड़ा हो गया कि जिस गाने को वो खुद अच्छा नहीं मानते, दबाव में लिखा हुआ है उसी पर नोबेल प्राइज मिल रहा है। तो उन्होंने अंग्रेजों से कहा कि कम-से-कम एक कृपा करो मेरे उपर कि पूरे देश में ये प्रचारित करो कि मेरी गीतांजलि पर ये मिल रहा है नोबेल पुरस्कार। तो हम सब जानते हैं गीतांजलि पर नोबुल प्राइज मिला है। गीतांजलि में कोई दम नहीं है कि उसको नोबुल प्राइज दिया जा सके।  मैंने गीतांजलि कई बार पढ़ी है। ऐसा कुछ दम नहीं है। उससे ज्यादा अच्छी कविताएं इस देश में बहुत सारे कवियों की लिखी गयी हैं। लेकिन छुपा दिया उन्होंने इसको और पूरे देश में प्रचारित कर दिया कि ये गीतांजलि पर मिल गया। वास्तव में हुआ ये था कि जार्ज पंचम का इतना चाटुकारिता भरा गान जो गा दिया उसपर वो खुश होके नोबेल प्राइज दे गया। गांधीजी को जब ये सच्चाई पता चली तो 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ तो गांधीजी ने बहुत कड़क पत्र लिखा रवींद्रनाथ टैगोर को। और वो पत्र आप पढ़ेंगे तो रो देंगे। इतनी गालियां सभ्य शब्दों में वो दे सकते थे वो उन्होंने दिया। फिर खुद गांधीजी मिलने गये कि तुम अभी तक अंग्रेजों की स्वामीभक्ति में डूबे हुए हो। अभी भी उनका सहयोग कर रहे हो। ये हमारे भारत के लोगों को मार रहे हैं, काट रहे हैं। कब इनका साथ छोड़ोगे? तब रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी उपाधियां वापस की और अंग्रेजी सरकार के खिलाफ उन्होंने लिखना शुरु किया। 1919 के पहले रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे गये लेख सब अंग्रेजी सरकार के समर्थन में हैं। फिर 1919 के बाद उन्होंने जो लेख लिखे हैं वो थोड़े-थोड़े उनके विरोध में गये। तो जन गण मन ऐसा गान है जो उन्होंने लिख दिया जार्ज पंचम के लिए। और हम हिन्दुस्तानियों ने पंडित नेहरु के कहने पर उसको राष्ट्रगान बना लिया। जबकि 318 सांसद संसदीय समिति जो थी न सॉरी कंस्टिट्यूएंट एसेम्बली के 318 लोग वो कहते थे कि वंदे मातरम् होना चाहिए। अकेले नेहरुजी कहते थे जन गण मन होना चाहिए। और नेहरुजी माने वीटो, उस जमाने का। आप में बहुत सारे बुजुर्ग जिन्होंने नेहरुजी को देखा है, यहां हैं। नेहरुजी माने वीटो। नेहरुजी ने जो कहा वही कानून। नेहरुजी ने कहा वही आदेश। नेहरुजी ने कहा वही कैबिनेट का फैसला। और जो नेहरुजी ये धमकी दें कि मैं सरकार छोड़ रहा हूं तो पूरी कांग्रेस हिलना शुरु हो जाती। उस जमाने में इंडिया इज नेहरु, नेहरु इज इंडिया ये नारा। बाद में इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा ये नारा। तो इस तरह का वो था जैसे नीरो के समय में जैसे क्लौडियस के समय में वैसे ये। तो नेहरुजी का कहना माने अंतिम वाक्य तो कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया कि भई यही ठीक है। फिर इन्होंने तब तक इसको लटकाकर रखा जब तक गांधीजी की हत्या नहीं हुई। गांधीजी की हत्या के बाद इसको पिटारे में से निकाल लिया और जन गण मन को राष्ट्रगान घोषित किया। अब विद्रोह की स्थिति ना आये पूरे देश में, तो वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दे दिया। कि भई ये भी चले और ये भी चले, वो जो क्या कहना दोनों को संतोष रहे। तो ये है इतिहास। और आज हिन्दुस्तान की सरकार ने एक सर्वे किया है पूरे हिन्दुस्तान का और वो रिपोर्ट अभी आयी है थोड़े दिन पहले। अर्जुन सिंह की मिनिस्ट्री में है। वो रिपोर्ट में ये पूछा गया था भारत के लोगों से कि आपको कौन-सा गान ज्यादा पसंद है- जन गण मन या वंदे मातरम्? नाइंटी एट प्वाइंट एट परसेंट लोगों ने कहा है- वंदे मातरम्। फिर अभी थोड़े दिन पहले बीबीसी ने एक सर्वे किया है। ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कॉरपोरेशन। उन्होंने एक स्पेशल फीचर बनाया है- वंदे मातरम् पर जो आजकल दिखाया जा रहा है लंदन में। तो बीबीसी ने एक सर्वे किया है कि जहां-जहां भारतवासी रहते हैं दुनिया में, उनसे पूछा जाय। तो उन सर्वे में से नाइंटी नाइन परसेंट लोगों ने कहा है- वंदे मातरम्। और बीबीसी के सर्वे से एक नयी जानकारी मिली है कि दुनिया में सबसे लोकप्रिय गानों में वंदे मातरम् दूसरे नंबर पर है। दुनिया में! बहुत सारे देश इसको समझते नहीं हैं लेकिन इसकी जो लय है न और इसका जो संगीत है वो कहते हैं कि ये हममें जज्बा पैदा कर देता है। इसमें संगीत और लय देने का काम किया था- पंडित विष्णु दिगम्बर पलुष्कर ने। बहुत बड़े संगीतज्ञ थे हम सब जानते हैं। विष्णु दिगम्बर पलुष्कर ने इसकी लय बनाई। और इसमें ये जो आज जिस लय में हम गाते हैं न, ये उनकी दी हुई लय है विष्णु दिगम्बर पलुष्कर की। उन्होने ये लय बनाकर गाना शुरु किया। बीच में जो संगीत भरा गया है वो भी उन्हीं के समय का है। बाद में ये वंदे मातरम् लता मंगेशकर ने गाया, आशा भोसले ने गाया। थीम वही है जो विष्णु दिगम्बर पलुष्कर की है। तो ये इतिहास है वंदे मातरम् का और उसके साथ है जन गण मन का। अब हम तय करें कि क्या गाना है? बहुत बहुत धन्यवाद।“

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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