निजी स्वार्थ में भाजपा को ही चबा डाला सुशील मोदी ने
विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बिहार भाजपा का कलह खुलकर सामने आ गया है। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की बढ़ती मनमानी के कारण ऐसा होना ही था। असंतोष को अनुशासन की छड़ी से बहुत दिनों तक दबाये नहीं रखा जा सकता है। सुशील मोदी को पार्टी से अधिक अपने पद और प्रतिष्ठा की चिंता है। किसी राजनीतिबाज के लिए ऐसी महत्वाकांक्षा स्वाभाविक भी है। लेकिन राजद, लोजपा, जदयू और झामुमो के स्टाईल में जब सुप्रीमो बनने की महत्वकांक्षा जग जाये तो यह किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं के लिए आत्मघाती हो सकता है। खासकर वैसे नेताओं के लिए जिनका अपना कोई जनाधार नहीं हो। सुप्रीमो के स्टाईल में सुशील मोदी की हो रही मनमानी पर केंद्रीय नेतृत्व ने अंकुश नहीं लगाया तो समर्पित कार्यकर्ता टूटते जाएंगे। और इसका दुष्प्रभाव पार्टी जनाधार पर भी पड़ेगा।
नवंबर 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी। लगभग ढाई वर्षों बाद जब मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ तो भाजपा कोटे के बेहतर काम करने वाले मंत्री या तो हटा दिये गये या उनका विभाग बदल दिया गया। इसके साथ ही पार्टी के अंदर मोदी के खिलाफ विक्षुब्ध गतिविधियां तेज हो गई। पहली बार केंद्रीय नेतृत्व के सामने सुशील मोदी की मनमानी के खिलाफ सामूहिक आवाज उठी। लोकसभा चुनाव 2009 का हवाला देकर विद्रोह की आवाज दबा दी गई। विक्षुब्ध खेमे के नेताओं का मानना है कि मोदी के खिलाफ पार्टी के अंदर वर्षों से सुलग रही चिंगारी को मंत्रिमंडल-फेरबदल से हवा मिली और वह धधक उठी। उसी समय अगर मोदी के खिलाफ कार्रवाई होती तो विधानसभा चुनाव के मौके पर आज पुन: भाजपा को यह दिन नहीं देखना पड़ता।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि सुशील मोदी के कारण अचानक डाक्टर सीपी ठाकुर का प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा और इस इस्तीफा प्रकरण पर पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गोपाल नारायण सिंह, प्रदेश कोर कमेटी के सदस्य अश्विनी चौबे व अन्य सदस्यों का बयान तथा भाजपा के स्टार प्रचारक और सांसद शत्रुधन सिन्हा की नाराजगी आदि स्पष्ट करता है कि प्रदेश भाजपा में गुजबाजी चरम पर है। विक्षुब्ध गतिविधियों को अनुशासनहीनता का नाम दिया जा रहा है, जबकि सुशील मोदी पर आरोप है कि पिछले 20 वर्षों से उन्होंने ही अनुशासनहीनता को बढ़ावा दिया। सुशील मोदी का विद्यार्थी परिषद से भाजपा खासकर विधायकी में प्रवेश ही बागी के रूप में हुआ। 1990 विधानसभा चुनाव में पार्टी ने पटना (पूर्वी) से नंदकिशोर यादव, पटना (मध्य) से नवीन किशोर सिन्हा और पटना (पश्चिम) से राधारानी को उम्मीदवार बनाया। लेकिन गोविंदाचार्य ने पटना (मध्य) से बागी उम्मीदवार बन चुके सुशील मोदी को पार्टी का सेंबल दे दिया। अंतिम समय में पटना पश्चिम में नवीन किशोर सिन्हा को ट्रांसफर किया गया। राधारानी के समर्थकों द्वारा हंगामा करने पर उन्हें भी सेंबल दे दिया गया। दो सेंबुल जमा होने के कारण नवीन किशोर सिन्हा को पार्टी का चुनाव चिन्ह नहीं मिल पाया। इसके बावजूद चुनाव बाद सुशील मोदी को विधायक दल में उप-नेता का पद तो तोहफा के रूप में दे दिया गया। बाद के दिनों में ललित उरांव और लालमुनी चौबे के बाद यशवंत सिन्हा को विधायक दल का नेता बनाने का पार्टी ने फैसला लिया तो मोदी समर्थकों ने पार्टी कार्यालय में हंगामा-तोड़फोड़ की, जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाये। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने जब पार्टी के वरिष्ठ नेता अश्वनी कुमार को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का फैसला तो इस पद के लिए पहले से ताल ठोके सुशील मोदी ने रामदेव महतो को मोहरा बनाते हुये उन्हें अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाकर पार्टी में टकराव की स्थिति बना दी। तत्कालीन राष्ट्रीय महामंत्री गोविंदाचार्य का तब ऐसा संरक्षण प्राप्त था कि इसके बाद सुशील मोदी राष्ट्रीय मंत्री बना दिये गये। पार्टी में रिक्त होने वाले हर पद के दावेदार बनने वाले सुशील मोदी ने बिना वरिष्ठ नेताओं से विचार-विर्मश किये राष्ट्रीय मंत्री पद से तब अचानक इस्तीफा दे दिया जब बिहार विधानसभा में विरोधी दल का नेता पद खाली होता नजर आया। हवाला कांड में नाम आ जाने से प्रतिपक्ष के नेता यशवंत सिन्हा के सामने पद छोड़ने की स्थिति बन गई थी। खाली हुये प्रतिपक्ष के नेता पद पर सुशील मोदी लाबिंग कर काबिज भी हो गये। 1996 में विधान परिषद के चुनाव में सुशील मोदी की इच्छा के विपरित यशोदानंद सिंह को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया। प्रवीण सिंह को बागी उम्मीदवार बनाकर यशोदानंद सिंह की परायज तय कर दी गई थी। लेकिन श्री सिंह ने व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा वोट प्रबंधन कर रखा था कि अंतत: वे जीत गये। बागी उम्मीदवार प्रवीण सिंह को भाजपा के 11 विधायकों का वोट मिला। प्रवीण सिंह की इस अनुशासनहीनता पर दिखावटी कार्रवाई हुई, क्योंकि उसके संरक्षक गोविंदाचार्य एवं सुशील मोदी थे। इस प्रकरण के बाद पार्टी के अंदर करिश्माई कार्रवाई हुई। यशोदनंद सिंह को सच बोलने की सजा पार्टी से बाहर कर के मिली तो दूसरी ओर छह वर्षों के लिए पार्टी से निष्कासित प्रवीण सिंह को अगले द्वि-वार्षिक चुनाव में ही विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया। पार्टी के विक्षुब्ध घेमे के नेताओं का आरोप है कि सुशील मोदी ने अपने रास्ते में रोड़े बनाने वाले कई वरिष्ठ नेताओं को पार्टी के बाहर का रास्ता दिखाया या हाशिये पर कर दिया। दूसरी ओर पार्टी संगठन में अपने समर्थकों (यशमैन) को महत्वपूर्ण पद देकर पूरी प्रदेश पार्टी पर कब्जा जमाये रखने का मुहिम चलाया। इसी क्रम में आलाकमान की पसंद गोपाल नारायण सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर स्वयं पार्टी अध्यक्ष बने। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में भाजपा सरकार की वापसी की “फीलगुड” में भागलपुर लोकसभा से उम्मीदवार बने। जीतकर सांसद तो बन गये लेकिन यूपीए सरकार बने जाने से केंद्र में मंत्री बनने का सपना पूरा नहीं हुआ। नवंबर 2005 के चुनाव के बाद जब बिहार में एनडीए की सरकार बनने की तैयारी शुरु हुई तो पुन: उप मुख्यमंत्री बनने के लिए टपक गये। सदन नेता यानि मुख्यमंत्री बनने के लिए जरूरी नहीं है कि वे विधानसभा का ही सदस्य हो। विधान परिषद का सदस्य बनकर भी कई मुख्यमंत्री विधानसभा में सदन नेता का दरजा पाते रहे हैं। लेकिन संसदीय इतिहास में यह अनोखा उदाहरण ही होगा कि कोई उप मुख्यमंत्री सदस्य तो है विधान परिषद का लेकिन विधानसभा में उसे विधायक दल के नेता का पद हासिल है।
सुशील मोदी के हर “पद की दावेदारी” जैसे स्वाभाव के कारण ही उनके समर्थक माने जाने वाले कई नेता आज उनके विरोधी कैंप में हैं। कभी उनके पक्के समर्थक रह चुके अश्वनी चौबे ने तो विक्षुब्ध खेमे का नेतृत्व ही संभाल रखा है। विधायक दल का नेता होने के बावजूद विधायकों का समर्थन घटता गया। यही कारण है कि टिकट बंटवारे में सुशील मोदी ने अधिक से अधिक अपने लोगों को टिकट देने का तिकड़म लगाया ताकि चुनाव बाद विधायक दल नेता बनना आसान हो जाये। निशाने पर लिये गये मंत्रियों या दबंग विधायकों का तो टिकट नहीं कटा पाये लेकिन जहां तक संभव हो सका विरोधी स्वर उठाने की आशंका वालों का पत्ता साफ कराया। पार्टी के अंदर चाहे जितना दबंगई कर लें सुशील मोदी, नीतीश कुमार के सामने उनकी बोलती बंद हो जाती है। नरेंद्र मोदी प्रकरण पर भी जदयू को जबाव देने के लिए उन्होंने अपने समर्थकों को आगे कर दिया। दरअसल एनडीए की राजनीतिक चढ़ाव के समय से ही नीतीश कुमार ने सुशील मोदी का “पर” कतरना शुरु कर दिया था। 2004 लोकसभा चुनाव के पूर्व जब नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान को नजरअंदाज करना शुरु किया तो सुशील मोदी और उनके समर्थकों द्वारा पासवान को तरजीह दिया जाने लगा। उन दिनों सुशील मोदी द्वारा पासवान को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने का प्रयास और लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद पासवान की एनडीए में वापसी का न्यौता नीतीश कुमार को नागवार गुजरा। तब तक बिहार विधानसभा में भाजपा 36 विधायकों के साथ बड़े भाई की भूमिका में थी। समता पार्टी का जदयू में विलय करने के बाद भी जदयू विधायकों की संख्या 35 ही पहुंची थी, क्योंकि तब जदयू के चार विधायकों ने पार्टी से अलग जनता दल (जेपी) बना लिया था। नीतीश कुमार के प्रयास से इन चार में 2 शशिकुमार राय और विश्वनाथ सिंह पुन : जदयू में वापस हो गये। और 37 विधायकों की संख्या के साथ विधानसभा में जदयू बड़े भाई की भूमिका में आ गया। हालांकि इस संख्या बढ़ोतरी के बाद भी नीतीश कुमार कहते रहे कि सुशील मोदी एनडीए विधायकों के नेता हैं और वे प्रतिपक्ष के नेता बने रहेंगे। लेकिन जदयू प्रदेश नेतृत्व ने विधानसभा अध्यक्ष को लिखित रूप से आग्रह किया कि संख्या बल के हिसाब से प्रतिपक्ष के नेता का पद जदयू के पास होना चाहिए। इस प्रकार प्रतिपक्ष के नेता पद से सुशील मोदी को बेदखल करते हुये उपेंद्र कुशवाहा को उस पद पर बिठा दिया गया। नीतीश कुमार की इस धोबियापाट राजनीति से भाजपा आहत हुई। लेकिन लोकसभा चुनाव सामने देखकर इस पर चुप्पी साध ली गई । इस घटना के बाद से ही सुशील मोदी नीतीश कुमार की राजनीति से भय खाते रहे और मधुर संबंध बनाये रखने का प्रयास जारी रखा। सरकार बनने के बाद तो स्थिति यह हो गई कि सुशील मोदी बिहार सभा के अंदर बोले या आम सभाओं में, सरकार की उपलब्धियां गिनाते समय कभी एनडीए या जदयू-भाजपा सरकार का संबोधन नहीं किया। उनकी जुबान पर “नीतीश सरकार” ऐसे चढ़ा कि इस जुगाली में उन्होंने भाजपा को ही चबा डाला। सुशील मोदी की इस घुटनाटेक राजनीति का भी कार्यकर्ताओं में रोष है।
कर्पूरी ठाकुर के बाद बिहार में किसी को जननेता नहीं कहा गया। वोट बैंक के हिसाब से आज भी व्यक्तिगत स्तर पर देखा जाये तो नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के पास ही अपना वोट बैंक है। किसके पास कितना –इस सवाल पर विवाद हो सकता है। इसका अलावा चौथा नेता कोई नहीं है, जिसके पास अपना वोट बैंक है। पार्टी स्तर पर कांग्रेस, भाजपा, वामदल या बसपा का अपना आधार वोट जरूर है। सुशील मोदी के समर्थकों का दावा है कि उनके नेता के पीछे भी उनका सजातीय (वैश्य) वोट बैंक है। शायद इसलिये उप मुख्यमंत्री के रूप में सुशील मोदी ने व्यापारियों का विशेष ख्याल रखा है। इसके बावजूद बिहार में औद्योगिक विकास का ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका।
प्रेक्षकों का मानना है कि बिहार में ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा कर कभी कोई लोकप्रिय नहीं नेता नहीं बन सकता। बटाईदारी के मुद्दे पर जब नीतीश कुमार बिगड़ी स्थिति को संभालने में लगे थे तब बटाईदारों के पक्ष में बयान देकर सुशील मोदी ने भाजपा के ग्रामीण जनाधार पर चोट पहुंचाया। हालांकि विरोध का तेवर देखते हुये अगले ही रोज मोदी ने अपने बयान को तोड़ मड़ोरकर परोसना बताया और संबंधित अखबार को तलाड़ा भी। विरोधी दल नेता के रूप में मोदी ने मीडिया प्रबंधन पर विशेष ध्यान रखा और उप मुख्यमंत्री के रूप में अपनी छवि को लेकर सतर्क रहे।
बिहार में चले पिछड़ावाद की आंधी का असल भाजपा पर भी हुआ और नंदकिशोर यादव और सुशील मोदी को इसका सीधा लाभ मिला। इसी प्रकार बटाईदारी के मुद्दे पर जब भाजपा सवर्णों के निशाने पर आई, तब इसकी काट के लिए डा. सीपी ठाकुर प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये। 1980 में भाजपा के गठन के बाद पहली बार गुटबाजी के कारण बिहार भाजपा के अध्यक्ष को तय करने में काफी परेशानी हुई। एक ओर सुशील मोदी तो दूसरी मोदी से नाराज विक्षुब्धों का खेमा। मोदी जहां मंगल पांडे या गिरीराज सिंह को अध्यक्ष बनाना चाहते थे वहीं असंतुष्ट खेमा अश्वनी चौबे, जनार्दन सिंह सिग्रीवाल या चंद्रमोहन राय को अध्यक्ष बनाना चाहता था। बिहार भाजपा को गुटबाजी से बचाने के लिए बीच का रास्ता अपनाया गया और डाक्टर सीपी ठाकुर अध्यक्ष बनाये गये। डाक्टर ठाकुर गठित कार्यसमिती पर इतना विवाद हुआ कि मोदी समर्थक अलग बैठकें करने लगे। विवाद को सुलाझाने के लिए आलाकमान ने हस्तक्षेप किया और कार्य समिती में फेर बदल कर कुछ मोदी समर्थकों को जगह दी गई। चुनाव के लिए गठित कोर कमेटी तो बनाई गई, लेकिन न इसकी विधिवत बैठकें हुई और न मोदी विरोधी नेताओं को इसकी सूचना दी गई। टिकट चयन के प्रारंभिक दौर में ही। डाक्टर सीपी ठाकुर को नजरअंदाज किया जाने लगा। मामले को पटरी पर लाया जाता कि डाक्टर ठाकुर ने इस्तीफा देकर ऐसा विस्फोट किया कि मोदी के खिलाफ और नेताओं की जुबान खुलने लगी।
बहरहाल सुशील मोदी ने जिला मुख्यालयों में रोड शो (चुनाव अभियान) का कार्यक्रम बनाया है। ग्रामीण बिहार से अपने को किनारे करते हुये मोदी को अपने शहरी क्षेत्रों में केंद्रित किया है। कहा जाता है कि एक तो उनके अधिकांश अपने उम्मीदवार शहरी क्षेत्र में ही है और दूसरा यह कि ग्रामीण क्षेत्र में जाकर अपनी लोकप्रियता की पोल नहीं खुलवाने चाहते हैं। चुनाव प्रचार अभियान के पहले दौर में धमदाहा क्षेत्र में बड़हरा में उन्होंने सभा की जिसमें बामुश्किल 200-250 श्रोता ही जुट पाये।
बिहार में जो स्थिति 2000 से 2005 तक कांग्रेस की थी, वही स्थिति 2005 से 2010 के बीच भाजपा की रही। उन दिनों लालू प्रसाद ने केंद्र की राजग सरकार पर बिहार की उपेक्षा का आरोप लगाते हुये जो तर्क प्रस्तुत किया उसमें कांग्रेस की नेहरू, इंदिरा, राजीव सरकार को भी कठघरे में खड़ा किया। बड़े-बड़े विज्ञापनों में कहा गया कि केंद्र ने बिहार को उपनिवेश बना कर रखा, केंद्र की हर सरकार ने राज्य की उपेक्षा की। तब राबड़ी देवी सरकार में मंत्री सुख भोग रहे किसी कांग्रेसियों ने इसका विरोध नहीं किया, बल्कि लालू-राबड़ी के खिलाफ मुखर हुये तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रामजतन सिन्हा को ही अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। 2005 से सरकार में आने के बाद लगातार नीतीश कुमार ने भाजपा को न सिर्फ औकात में लाया, बल्कि पार्टी के जनाधार पर लगातार प्रहार किया। सरकार में रहते हुये भाजपा कार्यकर्ता ही नहीं विधायक भी उपेक्षित किये गये। किशनगंज में बंगला देसी घुसेपैठ के खिलाफ लगातार संघर्ष करने वाले विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा के विरोध में प्रदर्शन किया तो उन पर पुलिस की लाठियां चली, लेकिन विद्यार्थी परिसद की कोख से पैदा हुये सुशील मोदी ने चुप्पी साध ली। यह चुप्पी तब भी बनी रही जब भाजपा के आईकान बने नरेंद्र मोदी प्रकरण पर नीतीश कुमार ने कड़ा रुख अख्तियार किया।
सुशील मोदी से भाजपा बर्षो से त्रस्त है…गाहे बगाहे दबी जुबान से इसका विरोध भी होता रहा है…बात केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंचती भी है लेकिन पता नहीं क्यों मोदी जी को मनमानी करने की छूट लगातार मिलती रही है. दीघा सीट जदयू को दिया जाना बहुत बाद में तय हुआ लेकिन भाजपा के तमाम कार्यकर्ता छह महीना पहले से ही मोदी जी की नीति को जानते हुये इसकी चर्चा करते रहते थे…