अंदाजे बयां

पटना को मैंने करीब से देखा है (पार्ट-3)

वीणा सिनेमाघर में फिल्म शोले से खाता खुला     

 आलोक नंदन

 सभ्यता के विकासक्रम में लाइफ स्टाइल के साथ सोचने के तरीकों को तब्दील करने में पोस्टरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दीवारों पर चिपके हुये पोस्टर देखने वालों के ऊपर उनकी मानसिक क्षमता और संवदेनशीलता के मुताबिक अलग-अलग असर डालते हैं, और इस असर को मापने का कोई आब्जेक्टिव तरीका नहीं है। सार्वजनिक स्थलों पर पोस्टर चिपका कर लोगों को आकर्षिक करने की शुरुआत कहां से हुई, इस बारे में विश्वास के साथ कुछ भी कह पाना मुश्किल है, लेकिन 16 वीं और 17 वीं सदी में यूरोप के नाट्य थियेटरों में इनका इस्तेमाल होने लगा था। इंग्लैंड में ग्लोरियस रिवोल्यूशन के समय भी पोस्टरों और पंपलेटों का इस्तेमाल लोगों को आकर्षित करने के लिए किये गये थे। मार्क्स और एंजेल्स के समय मजदूर क्रांति को उभार पर लाने के लिए इनका इस्तेमाल एक सशक्त संचार माध्यम के तौर पर किया गया था, बाद में लेनिन के नेतृत्व में तो बोल्शेविकों ने इस मोर्चे पर जबरदस्त काम करके इसकी अपार शक्ति को पूरी मजबूती के साथ स्थापित किया। फिल्मी पोस्टर की संस्कृति मूलरूप से नाट्य थियेटरों की ही देन है, क्योंकि फिल्म के विकास में नाट्य जगत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन दिनों पटना में फिल्मी पोस्टरों की खूब धमक थी। पूरा पटना फिल्मी पोस्टरों से पटा रहता था। शहर के सभी सार्वजनिक दीवारों पर तो यह होते ही थे।      

पटना जंक्शन पर बस से छलांग लगाने के बाद सभी लड़के हो-हल्ला मचाते हुये वीणा सिनेमा की ओर बढ़ चले। उन दिनों सड़कों पर रिक्शों की तादाद अधिक थी। सड़कों पर धीमी गति से दौड़ रहे रिक्शों से बचते खुचते सभी वीणा सिनेमा के मुख्य गेट के पास पहुंचे और वहां पर लगे हुये शोले के पोस्टर को चाव से देखने लगे।

एक लड़का, जिसे सभी उसकी सूखी और लंबी टांगों के कारण बगुलवा कहते थे, पोस्टर में चिपके चेहरों को पहचानते हुये पूरे उत्साह से बता रहा था, यह गब्बर सिंह हैं, और उसके गर्दन को जो डंडा से खींच रहा है वह वीरू, जय के हाथ में स्टेनगन है, बसंती तांगेवाली है, और ठाकुर का हाथ कटा हुआ है, जिसे गब्बर सिंह ने काटा है।” बगुलवा के नाक पर एक बड़ा सा काला मस्सा था, जिसे अन्य लड़कों ने चोंच का नाम दे दिया था। हाफ पैंट से निकलती हुई उसकी लंबी-लंबी सूखी टांगें उसके नामांकरण के औचित्य को एक ही बार में स्पष्ट कर देती थीं। उसे भी इस नाम से परहेज नहीं था, लेकिन कभी-कभी इसे लेकर नाराजगी भी व्यक्त करता था,और ऐसी स्थिति में लड़के उसे और छेड़ते थे। फिल्मी भूत उसके दिमाग पर बुरी तरह से हावी रहता था, और पटना शहर में लगने वाले प्रत्येक फिल्म को वह देख मारता था। उसके बारे में कई किस्से मशहूर थे। एक बार तो वह फिल्मी हीरो बनने का सपना लेकर बंबई की तरफ भाग निकला था, लेकिन रास्ते में ही टीटी द्वारा पकड़ लिया गया और फिर किसी तरह वापस घर आया। वह करीब आठ साल का रहा होगा। उसका बड़ा भाई मूठ्ठू  मिठाई लाल की दुकान में शहर भर से कबाड़ी लाकर बेचने का काम करता था, और जो पैसे उसे मिलते थे उसे सिनेमा पर खर्च करता था। उस दिन दोनों भाई साथ थे।         

शोले के पोस्टर को देखने के बाद सभी सिनेमाघर की ओर बढ़े। मुख्य गेट के अंदर सिनेमा घर के सामने एक अच्छी खासी भीड़ पसरी हुई थी। स्पेशल, डीसी और बीसी के सभी काउंटर बंद हो गये थे। चूंकि वीणा सिनेमा  गोरिया टोली के बगल में पड़ता था, इसलिए इस सिनेमाघर पर पूरी तरह से गोरिया टोली के लड़कों का कब्जा था। गोरिया टोली भी मुख्य रूप से यादवों का ही एक प्राचीन गांव था, और हुल्लड़ई के लिए पूरे पटना में विख्यात था। गोड़िया टोली के लड़कों से पंगा होने की स्थिति में दूसरे मुहल्ले के लड़के इस सिनेमा घर में फटकने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, और गोड़िया टोली वाले भी इस ताक में रहते थे कि पंगा लेने वाले दूसरे मुहल्ले के लड़के जब यहां सिनेमा देखने आये तो कैसे उनका स्वागत किया जाये।  

वीणा सिनेमा गोड़िया टोली के लड़कों की कमाई का एक मुख्य भी स्रोत था। काउंटर मैन से सांठगांठ करके ये लोग बहुत बड़ी संख्या में टिकट ब्लैक करते थे। सबसे कम दर की टिकट 1 रुपये 70 पैसे की थी। सभी लड़के इसी काउंटर की ओर दौड़े। यह काउंटर सबसे अंत में खुलता था, और सिर्फ निम्नस्तर के लोग ही इस काउंटर के सामने लगी भीड़ में खड़ा होने की हिम्मत जुटा पाते थे। 1.70 के बगल में ही 2.55 वाला काउंटर था। एक लोहे की जाली से दोनों काउंटर को अलग-अलग कर दिया गया था। जाली के अंदर 10  लोगों को खड़ा करने की क्षमता थी, लेकिन काउंटर खुलने के पहले तक उसमें करीब 100 से अधिक लोग घुस जाते थे, और उतने ही उसके अंदर घुसने के लिए अपनी एड़ी चोटी का जोड़ लगाते रहते थे। ठसमठस की स्थिति में सांस लेना भी मुश्किल हो जाता था। काउंटर खुलने के ठीक पांच मिनट पहले दो-तीन लोग हाथों में डंडा लेकर आते थे और भीड़ पर लाठियां बरसाते हुये उसे कतारबद्ध करते थे।  

बिहार में सार्वजनिक स्थलों पर लाइन लगा कर काम करने की पद्धति को हमेशा ही नकारा गया है, जिसके कारण सार्वजनिक जीवन में अव्यवस्था को चहुंओर देखा और महसूस किया जा सकता है। इस मामले में दिल्ली और मुंबई पूरी तरह से व्यवस्थित है। इन शहरों में लाइन  में लगकर काम करना शहर की संस्कृति का एक हिस्सा बन चुका है। बिहार से निकलने वाले लोग जब देश के दूसरे शहरों में जाते हैं तो उन्हें लाइन में लगकर काम करने में असहजता महसूस होती है, और वे वहां पर भी कूद-फान करने की कोशिश करते हैं। अन्य प्रांतों के बड़े शहरों में बिहार को हिकारत की दृष्टि से देखने के प्रमुख कारणों में से एक यह भी है। यहां के लोगों को लाइन से वैसे ही नफरत करते हैं जैसै सांड़ लाल रंग से नफरत करता है। और ये लोग ऐसा करके खुद के साथ-साथ अन्य लोगों का जीवन भी कठिन बनाते हैं।    

बहरहाल, टीम के सभी लड़के उस भीड़ भरे लोहे की जाली में प्रवेश करने की कला अच्छी तरह से जानते थे। उनका पहले से ही अच्छा खासा अभ्यास बना हुआ था, क्योंकि सभी टेकाबाज फिल्मची थे। मेरे साथ के दो लड़कों ने जल्दी-जल्दी अपनी कमीज उतारी और लोगों की पैरों की परवाह किये बगैर जाली के सबसे सबसे नीचले खाने से सड़ाक से अंदर घुस गये। चूंकि वे दुबले-पतले थे, अत: अंदर घुसने में उन्हें मुश्किल से 15 सेकेंड लगे थे। उधर अन्य लोग जाली के मुख्य भाग की ओर धक्का-मुक्की करते हुये एक-दूसरे पर गुर्राते हुये हवा में भद्दी-भद्दी गालियां उछाल रहे थे। जिस समुदाय में प्रबल गालियों की संख्या जितनी अधिक होगी, यकीनन वह समुदाय उतना ही अधिक मजूबत होगा। गाली किसी भी संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है, किसी समुदाय को समझना है तो उस समुदाय में इस्तेमाल किये जाने वाली गालियों को समझना बेहतर होगा। बिहार इस मामले में काफी समृद्ध है, वैसे गालियों के मामला में हरियाणा का जवाब नहीं।   

इस बीच मेरी टीम के तीन और लड़के पहले दो लड़कों की तरह तेजी से जाली के अंदर सरक लिये। दूसरी ओर गालियां दे रहे लोग हाथापाई पर उतर आये थे, और शोर-शराबा बढ़ता ही जा रहा था। इसके पहले कि टिकट काउंटर का वह क्षेत्र जंग के मैदान में तब्दील होता दो-चार लोग हाथों में डंडा लेकर आये और लाइन में लगे हुये लोगों को व्यवस्थित करने लगे। देखते ही देखते जाली के अंदर पहले से दाखिल करीब 100 लोगों को उन्होंने डंडे के जोर पर व्यवस्थित कर दिया। अब सबके फेफेड़े में कुछ ताजी हवा जा रही थी, और उनके शरीर पर फैले पसीने सूखने लगे थे। करीब 15 मिनट बाद पांचों लड़के अपनी मुट्ठियों में दो-दो मुचड़े हुये टिकट लेकर विजेता की मुद्रा में भीड़ को चीरते हुये प्रकट हुये।

12 बजे वाला शो अभी टूटा नहीं था, लेकिन अगले शो के लिए लोग अभी से ही हाथों में टिकट लेकर दरवाजे के पास लाइन में खड़े होने लगे थे, और फिर यहां भी धक्का मुक्की शुरु हो गई थी, गालियों के साथ।  

एक बूढ़ा सा दिखने वाला दरबान अपने हाथ में डंडा लेकर दरवाजे के सामने ही कुर्सी बैठकर जोर-जोर से चिल्लाते हुये लोगों को सही तरीके से लाइन में खड़ा रहने की हिदायत दे रहा था, हालांकि वह खुद इस बात जानता था कि जब तक वह उठेगा नहीं तब तक यह लाइन ठीक होने वाला नहीं है।   

फर्स्ट क्लास के दरवाजे से सटे बड़े से बरामदे के बगल में पेसाबखाना बना हुआ था, जो पूरी तरह से खुला था। लोग अंदर पेसाब तो कर रहे थे, लेकिन उनके द्वारा छोड़ा गया सारा मूत्र बरामदे के सामने वाली सड़क पर बह रही थी, और हवा के झोंकों के साथ उसमें से दम घोंटने वाली बदबू दरवाजे के पास लाइन में लगे लोगों के नथूनों से टकरा रही थी। लेकिन फिल्म देखने का जुनून उनके सिर पर इस कदर हावी था कि बदबू भरे इन झोंकों को का उनपर कोई असर नहीं हो हो रहा था।  

हाल की दीवारों पर जहां तहां फिल्म शोले के छोटे-बड़े कई आकार में चमकीले चटकते हुये पोस्टर लगे थे, जो आंखों को बड़ी सहजता से अपनी ओर आकर्षिक कर रह् थे। लाइन में खड़े अधिकतर लोगों का ध्यान इन्हीं पोस्टरों पर लगा हुआ था, और साथ ही उनके दमकते हुये चेहरे इस बात की गवाही दे रहे थे कि बहुत जल्द ही इस फिल्म को देखने का सुख उन्हें भी प्राप्त होने वाला है।  

तभी जोर-जोर से घंटी बजने की आवाज आई और इसके असर में आकर बूढ़ा दरबान चिल्लाते हुये अपनी कुर्सी से उठा और डंडे से लोगों को हांकते हुये उन्हें दीवार से सटाने लगा। लोग की लाइन एक डरे हुये सांप की तरह दीवार से चिपकती चली गई। फिर हाल का दरवाजा खुला और पानी के बुलबुलों की तरह लोग तेजी से बाहर निकलने लगे। बाहर की रोशनी में उनकी आंखे चुंधिया रही थी। करीब 5 मिनट में सारा हाल खाली हो गया और फिर बुढ़ा दरबान एक-एक करके लोगों के हाथों से टिकट लेकर उसे आधा फाड़कर उन्हें वापस करते हुये  हाल के अंदर धकेलने लगा। अंदर आकर लोग तेजी से कुर्सी लपकने लगे थे। आगे का चार रो 170 वालों के लिए था। अन्य लड़कों के साथ मैं भी एक कुर्सी पर काबिज हो गया।

कुछ देर बाद घुप अंधेरे में पर्दे पर रोशनी की चमक बिखरी और चलते-फिरते और बातें करते हुये लोग सामने दिखने लगे। इसके साथ ही टिकट काउंटर और बाहर गेट के पास शोर-शराबा के बीच गाली बक्कम करने वाले लोगों की आवाजें पूरी तरह से शांत हो गई। पर्दे पर नजर गड़ाये हुये सभी लोग एक दूसरी ही दुनिया में छलांग लगा चुका थे, या फिर चमकते हुये पर्दे ने उनकी आंखों के साथ-साथ उनके दिमाग पर भी कब्जा कर लिया था।   

मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त स्कूल से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। स्कूल की दहलीज पर कदम रखने से पहले ही मैंने सिनेमा घर का रास्ता देख लिया था और शुरुआत हुई थी शोले से। उस दिन से शहर के तमाम सिनेमाघर मेरे लिए मक्का और मदीना बन गये थे।  

बाद के दिनों में रामगोपाल वर्मा को देखने, पढ़ने और सुनने का मौका मिला तो पता चला कि बचपन में शोले फिल्म ने उन्हें भी चकाचौंध कर दिया था, और अचेतन रूप से उनके दिमाग में फिल्म निर्माण की योजना उसी समय से बनने लगी थी। तकनीकी क्रांति का युग अब जवान हो चला है, संचार के कई माध्यम बने हुये हैं, लेकिन आज भी फिल्म अपने आप में सबसे अनूठा और गहनतम है। इस माध्यम में एक अनपढ़ बच्चे के अचेतन को भी हिचकोले खिलाने की पूरी क्षमता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस माध्यम का फूहड़ तरीके से भरपूर इस्तेमाल हुआ है, लेकिन सुपरलेटिव डिग्री पर जाकर इस माध्यम का इस्तेमाल करने वाले लोगों की भी कमी नहीं रही है। मेरे मानसिक पटल का विस्तार प्रदान करने में फिल्मों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, और मैं इस मामले में काफी भाग्यशाली रहा कि जीवन के प्रारंभिक दौर में मुझे पटना शहर मिला जो विभिन्न तरह के सिनेमाघरों से भरा हुआ था- तभी तो मैं कहता हूं इस शहर को मैं दीवानगी के हद तक  प्यार करता हूं।         

 जारी……( अगला अंक अगले शनिवार को)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button