लिटरेचर लव

बाइट्स प्लीज (उपन्यास, भाग -14)

27.

रत्नेश्वर सिंह महीने में दो तीन बार ही पटना आते थे। उनका अधिकांश समय मुजफ्फरपुर में व्यतीत होता था। मुजफ्फरपुर में रिपोर्टर के तौर पर अविनव पांडे की नियुक्ति माहुल वीर ने ही की थी। अविनव पांडे इसके पहले एक राष्ट्रीय अखबार के मुजफ्फरपुर एडिशन में नौकरी बजा रहा था। कलम के मामले में वह मजबूत था, इलेक्ट्रानिक मीडिया का तौर तरीका वह जल्द ही सीख गया। मुजफ्फरपुर में रहने की वजह से रत्नेश्वर सिंह से अक्सर मिलना जुलना होता था। इसका लाभ उठाते हुये अविनव पांडे अपने प्रभाव में इजाफा करने लगा। वह अपने आप को महेश सिंह के दायरे से पूरी तरह से मुक्त कराने की जुगत में था इसलिये रत्नेश्वर सिंह को बार-बार यह अहसास दिलाने लगा कि जब मुज्जफरपुर में वह खुद हैं ही तो उसे पटना में रिपोर्ट करने की क्या जरूरत है।

एसाइनमेंट डेस्क से चंदन का जब भी फोन जाता तो वह यही कहता कि इस वक्त वह चेयरमैन के काम में लगा हुआ है। यहां तक कि महेश सिंह को भी वह इसी लहजे में जवाब देने लगा, जिसे महेश सिंह सीधे तौर पर अपने अधिकार क्षेत्र में कटौती मानता था, हालांकि महेश सिंह को इस बात का अहसास था कि मुजफ्फरपुर में रहने की वजह से अविनव पांडे की शक्ति बढ़ती जा रही है। अविनव पांडे के खिलाफ महेश सिंह ने नरेंद्र श्रीवास्तव को भड़काना शुरु कर दिया। नरेंद्र श्रीवास्तव के सामने बार-बार वह यही कहता कि खबरों के मामले में मुजफ्फरपुर काफी कमजोर है। लेकिन जब नरेंद्र श्रीवास्तव ने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो उन्हें यहां तक समझाने लगा कि अविनव पांडे उनकी शिकायत चेयरमैन से करता है।

कुछ दिनों से रत्नेश्वर सिंह नरेंद्र श्रीवास्तव से कई कारणों से नाराज भी चल रहे थे। चारों ओर से मिल रही सूचनाओं के आधार पर रत्नेश्रर सिंह के दिमाग में धीरे-धीरे यह बात बैठ रही थी कि उनके साथ धोखा हो रहा है, कि नरेंद्र श्रीवास्तव ने उनके पैसों का गलत इस्तेमाल किया है, कि नरेंद्र श्रीवास्तव को जितनी रकम चैनल हेड के तौर पर दी जा रही है वे उसके काबिल नहीं है। इसके अलावा नरेंद्र श्रीवास्तव कुछ साहित्यिक मूड के आदमी थे, अपनी प्रतिष्ठा को लेकर खासे सर्तक रहते थे। इस वजह से जब कभी नरेंद्र श्रीवास्तव उनसे किसी मसले पर जिरह करते थे तो उन्हें खटकता था। कभी –कभी तो अपना फोन भी बंद कर लेते थे और रत्नेश्वर सिंह के संपर्क से पूरी तरह से बाहर हो जाते थे। चूंकि चैनल को लेकर रत्नेश्वर सिंह की समझ अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हुई थी, इसलिये वह नरेंद्र श्रीवास्तव से नाता तोड़ना नहीं चाहते थे। हालांकि दो मर्तबा संस्थान के अंदर यह अफवाह उड़ चुकी थी कि नरेंद्र श्रीवास्तव ने चैनल छोड़ दिया है, लेकिन दूसरे ही दिन अपनी बड़ी सी पजेरो कार से, जो उन्हें कंपनी ने दे रखा था, दफ्तर में हाजिर होकर सारे अफवाहों पर उन्होंने विराम लगा दिया था। वैसे इन अफवाहों की वजह से संस्थान के अंदर उनकी स्थिति थोड़ी कमजोर जरूर हो गई थी।

इधर मुजफ्फरपुर में रत्नेश्वर सिंह के नजदीक रहते हुये अविनव पांडे माहुल वीर को चैनल हेड बनाने के पक्ष में फिल्डिंग करने लगा था। रत्नेश्वर सिंह के सामने बार-बार वह दोहराता रहता था कि माहुल वीर नरेंद्र श्रीवास्तव से बेहतर चैनल हेड साबित होंगे, क्योंकि इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उनकी समझ नरेंद्र श्रीवास्तव के मुकाबले कई गुणा बेहतर है। साथ ही अविनव पांडे पटना में ब्यूरो प्रमुख के रूप में आने का सपना भी देखने लगा था। माहुल वीर लगातार अविनव पांडे के सपनों को हवा दे रहे था।

रत्नेश्वर सिंह भी मुजफ्फरपुर में अपने विरोधियों से निपटने और अपने तमाम धंधों को बढ़ाने के लिए अविनय पांडे का खुलकर इस्तेमाल करने लगे थे। यहां तक कि पुलिस और प्रशासन को भी धौंसपट्टी देने लगे थे। मुजफ्फपुर मे रत्नेश्वर सिंह का जमीन का व्यापक कारोबार था। झंझटिया जमीन में हाथ डालकर उसे अपने नाम कराने में वह पहले से ही माहिर थे, चैनल खोलने के बाद इस काम को सुचारू रुप से चलाने के लिए उन्हें एक नया हथियार मिल गया था। अभिनव पांडे का इस्तेमाल भी वह इसी रूप में कर रहे थे। चैनल के नाम पर किसी भी सरकारी दफ्तर में बेधड़क प्रवेश करके अभिनव पांडे रत्नेश्वर सिंह के उल्टे सीधे कामों को आगे बढ़ाने में जोर शोर से लगा हुआ था। पत्रकारिता की अच्छी समझ होने की वजह से कभी-कभी उसके मन में इस स्थिति के खिलाफ विद्रोह करने की इच्छा जागृति तो होती थी, लेकिन महत्वकांक्षा और जीवन को परिवार समेत पटरी पर चलाते रहने की शर्त उसकी इस इच्छा का गला घोंट देती थी।

रत्नेश्वर सिंह के पटना आगमन के समय उसकी पूरी कोशिश होती थी कि वह भी उस वक्त पटना में मौजूद रहे। किसी न किसी बहाने वह आ ही जाता था और लगातार रत्नेश्वर सिंह के दायें-बायें बने रहने की कोशिश करता था। इस तरह से पटना में काम करने वाले तमाम लोगों की नजरों को वह अपनी ओर खींचते हुये यह जताने की कोशिश करता था कि संस्थान के अंदर उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

सुकेश से उसकी पटती थी। मौका मिलते ही दोनों दफ्तर के बाहर सरक लेते थे और किसी चाय की दुकान में बैठकर उन तमाम मामलों पर चर्चा करते थे जो संस्थान के अंदर उनसे जुड़े हुयी थीं। सुकेश को भी यह अहसास हो चला था कि रत्नेश्वर सिंह के नजदीक होने की वजह से अविनव पांडे का कद कुछ बढ़ गया है। महेश सिंह पर आक्रमण करने के लिए सुकेश की उसकी जरूरत थी और महेश सिंह को लेकर अविनव पांडे पहले से ही भिडंत की मुद्रा में था। एक तरह से साझा शत्रु मित्रता की कड़ी को और भी मजबूत कर रही थी। उन दोनों की बैठकों में कभी-कभी नीलेश भी शरीक हो जाता था।

28.

“आज तक मैंने कभी किसी लड़की को इस तरह से शूट नहीं किया था। जब मैं इसको शूट कर रहा था तो मेरा हाथ बुरी तरह से कांप रहा था, ”, स्क्रीन पर एक लिपी पुती चेहरे वाली लड़की का विजुअल्स देख रहे अमलेश से कैमरामैन अंजनी ने कहा।

“तुम्हें पता है यह कौन है?” एडिटर अमलेश ने पूछा

“ मैं बता सकता हूं कि यह कौन है ”, रंजन ने कहा।

“आप मत बताइये, अंजनी को बताने दीजिये।”

“इसको शूट करने में पसीने छूट रहे थे, मुझे नहीं पता यह कौन है।”

“यह तृष्णा की बहन है, इसके आंख और नाक देखकर मैं बता सकता हूं, जिंदगी भर विजुअल्स ही देखता रहा हूं, ” रंजन ने कहा।

“अरे नहीं”, अनुराग ने विरोध किया।

“रंजन सर ठीक बोल रहे हैं। यह तृष्णा की बहन है,” अमलेश ने कहा।

“हां यह तृष्णा की बहन ही है, इसको देखने के बाद मुझे लगा था कि यह तृष्णा की बहन है और मैंने उससे पूछा भी था। पहले तो वह इन्कार कर दी थी, फिर बाद में उसने खुद ही स्वीकार किया कि यह उसकी बहन है, बड़ी बहन। ” मानषी ने कहा।

“इसको शूट करने का आइडिया किसका होगा यह भी मैं बता सकता हूं,” रंजन ने कहा।

“किसका ? हालांकि मुझे पता है,” अमलेश ने हंसते हुये कहा।

“भुजंग का! ”रंजन ने कहा। “इस तरह के आइडिया उसी के दिमाग में आ सकते हैं। लेकिन अंजनी तुम्हें तो समझ जाना चाहिये था, इसका मतलब है कि तुम्हारी नजर पारखी नहीं है। अपनी नजर से नहीं तो कम से कम कैमरे की नजर से तो समझ ही सकते थे। ”

“सर अभी तो मैं सीख ही रहा हूं, वैसे भी आपकी वाली नजर होने में थोड़ वक्त तो लगेगा ही,” अंजनी ने कहा।

“अंजनी हनुमान जी के भक्त हैं। लड़कियों पर इनका ध्यान नहीं जाता, ” मानसी ने हंसते हुये कहा।

होठों के अंदर खैनी दबाये हुये भुजंग भी वहां पहुंच गया। थोड़ी देर के लिए सभी लोग खामोश हो गये। स्क्रीन की तरफ देखते हुये उसने कहा, “कैमरा वर्क बहुत अच्छा हुआ है। मैंने खुद शूट किया है।”

“हां सर आपकी मेहनत दिख भी रही है, ” रंजन ने कहा। उसकी बात को सुनकर बगल में बैठा एडिटर सुजान ने भुंजग की तरफ देखकर हंस दिया। दूसरे लोग भी मुस्करा रहे थे। भुजंग को कुछ अटपटा लगा, बुरा सा मुंह बना कर वह वहां चला गया और अपने दरबे में बैठकर मेशू को सुजान को बुलाने के लिए भेजा।

थोड़ी देर बाद सुजान मेशू के दरबे में खड़ा था।

“आप हंस क्यों रहे थे?”, थोड़े सख्त लहजे में भुजंग ने पूछा।

“वैसे ही सर, कोई खास बात नहीं थी,” सुजान ने जवाब दिया।

“मुझे पता है पीठ पीछे मेरे बारे में लोग क्या बोलते हैं। आप यहां काम करने आये हैं चुपचाप काम कीजिये। फालतुगिरी में मत पड़िये। मैं आप को बता देता हूं मैं उस टाइप का आदमी नहीं हूं। ”

“सर, मैंने तो कुछ नहीं कहा।”

“मुझे सब पता है, ठीक है जाइये, लेकिन ध्यान रखिएगा आइंदा से बदतमीजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।”

“जी सर। ”

सुजान वापस अपनी कुर्सी पर आकर बैठा तो रंजन ने पूछा, “क्या कह रहा था भुजंग? ”

“हड़का रहा था, कि मैं आपकी बात पर क्यों हंसा। और बोल रहा था कि वह उस टाइप का आदमी नहीं है।”

“किस टाइप  का? इसने कंट्री लाइव को नरक बना रखा है। चोर की दाढ़ी में तिनका वाला मामला है।”

तभी तृष्णा अपने कंधे पर एक चमड़े का थैला लटका कर अंदर दाखिल हुई। एडिटिंग सिस्टम पर अपनी बहन के विजुअल्स को देखकर वह अमलेश के पीछे खड़ी हो गई।

“तृष्णा, तुम क्या उल्टे सीधे प्रोग्राम करने में लगी हुई है। मौका मिला है कुछ बेहतर करो यार,” चंदन ने तृष्णा से कहा।

“अब जो कहा जाएगा वही करूंगी ना, ” खाली पड़ी एक कुर्सी को खींच कर उस पर बैठते हुये तृष्णा ने कहा।

“सर एक भी प्रोग्राम अच्छा नहीं बन रहा है, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैं खबरों की दुनिया में काम कर रही हूं। मुझे हेल्थ पर प्रोग्राम बनाने को मिला है। अब इसमें करने को क्या है मेरे लिए,” मानषी ने कहा। “वैसे तृष्णा स्क्रीन पर खूब दिख रही है, लेकिन इसके प्रोग्राम सब भी ठीक नहीं है। सर खबरों वाला प्रोग्राम बनाइये ना। ”

“अब ये बात भुजंग की समझ में आये तब ना। ज्यादा टेंशन मत लो, जो प्रोग्राम मिला है उसे ही ठीक से करो। समय आएगा तो अच्छे प्रोग्राम बनाया जाएगा,” रंजन ने मानषी को दिलासा देते हुये कहा।

“ओह, मेरी स्क्रीप्ट वाली एक फाइल फिर करप्ट हो गई, मैं तो तंग आ गया हूं। कब से बोल रहा हूं कि कंप्यूटरों में एंटी वायरस डलवाओ, लेकिन कोई सुन ही नहीं रहा है,” माउस पर हाथ चलाते हुये नीलेश ने कहा। उसकी नजरें स्क्रीन पर टिकी हुई थी।

“यहां कुछ नहीं हो सकता, अपनी फाइलों को तुम्हें मेल पर डाल देनी चाहिये थी,” रंजन ने कहा।

“एक आईटी का बंदा रख लो।”

“उसकी सैलरी कौन देगा ? वैसे आईटी का काम अमलेश संभाल रहा है।”

“ये तो एक साथ कई काम संभाल रहा है। लेकिन इसे शहर भर की लड़कियों से फुर्सत मिले तब ना,” नीलेश ने कहा।

“अब आप लोग मेरे पीछे क्यों पड़ रहे हैं? आप एक बार कंप्यूटर को शट डाउन कीजिये, ठीक हो जाएगा.”,

झुंझलाटह की स्थिति में नीलेश ने बिना सोचे समझे शट डाउन पर क्लिक कर दिया।

29.

कभी पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में बिना पैसे के ही काम करके शुकून हासिल करने वालों की कमी नहीं थी। बिहार में तो ऐसे पत्रकारों की एक पूरी फौज तैयार हुई थी, जेपी मूवमेंट में। ये लोग डिग्री जलाकर पत्रकारिता करने वाले थे, व्यवस्था के खिलाफ इनके दिलों में जेपी पी आग धधक रही थी, जिन्हें हर तरह से निकालने की कोशिश में ये रहते थे। अखबार और पत्र-पत्रिकाएं एक कारगर प्लेटफार्म साबित हुआ इनके लिए। इलेक्ट्रानिक युग में प्रवेश के साथ ही जमीनी स्तर पर स्थिति कमोबेश एक जैसी थी, हालांकि परिस्थितियां बदलाव का पूरा अहसास कर रहा थी। लोग पत्र-पत्रिकाओं से आगे निकल कर इलेक्ट्रानिक मीडिया से खेल तो रहे थे, लेकिन वर्किंग प्रबंधन में वेतन के लिए उन्हें कई तरह से मानसिक क्लेश से गुजड़ना पड़ रहा था। जेपी मूवमेंट की रोमांटिक पत्रकारिता तो बहुत पहले ही गुम हो गई थी। इलेक्ट्रानिक मीडिया उनमें काम करने वाले पत्रकारों और गैर पत्रकारों को आर्थिक स्तर पर ब्रूटल साबित हो रहा था, यह दूसरी बात थी कि ब्रूटलिटी में भी पत्रकारों की एक फौज खुद को झोंके हुये थी, इस उम्मीद में कि एक दिन किसी अच्छी जगह पर टिरक कर चला जाएगा। कभी रोमांटिक रिवोल्यूशन से संचालित होने वाला यह काम एक व्यवसायिक राक्षस का रुप अख्तियार कर चुका था, जो पत्रकारिता की आत्मा को तो कुचल ही रहा था, पत्रकारों को भी चबा रहा था। देर से मिलने वाला वेतन कंट्री लाइव में भावी अनिश्चतता की ओर ही इशारा कर रहा था, शुरुआती दिनों के रत्नेश्वर सिंह के सारे दावे ध्वस्त हो रहे थे। नीतीश कुमार दोबारा भारी बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गये थे लेकिन कंट्री लाइव अभी तक सत्ता में पैठ कर पाने में असफल था।

शुरु के दो महीने में कंट्री लाइव में काम करने वाले सभी लोगों को वेतन समय पर मिलता रहा, लेकिन बाद के महीनों में 20 तारीख के पहले वेतन का दर्शन ही नहीं होता था। लोग 5 तारीख से ही अपने पिछले महीने के वेतन का इंतजार करते हुये एक दूसरे से पूछते रहते थे कि पैसा कब मिलेगा। धीरे-धीरे एक झुंझलाहट भरा माहौल कायम हो जाता था। कुछ लोग तो अपनी पूरी शक्ति के साथ चैनल का नाम लेकर ही गालियां निकालने लगते थे।

कंट्री लाइव में काम करने वाले लोगों को पैसा देने का स्टाइल भी ईंट भट्टे पर काम करने वाले मजदूरों की तरह था। अपनी सुविधानुसार रत्नेश्वर सिंह बैग में कैश मनी के साथ दफ्तर में पहुंचते थे और फिर एकांउटेंट विमल मिश्रा को बुलाकर उसे पैसे दे देते थे। इसके बाद विमल मिश्रा अपने दरबे में बैठकर लोगों को कतार में लगाकर वेतन बांटता था। सैलरी स्लिप तो किसी को दी ही नहीं जाती थी। पैसे देने के बाद एक सादे पन्ने पर लिखे हुये नाम के बगल में लोग अपना हस्ताक्षर कर देते थे। कभी-कभी अधिक देर होने पर रत्नेश्वर सिंह भोला को मुजफ्फरपुर बुला कर वेतन के पैसे उसे थमा देते थे, जिन्हें लेकर वह पटना पहुंचता था, जहां सब लोग बेसब्री से उसकी राह देख रहे होते थे।

वेतन प्रक्रिया में होने वाली देर का असर काम पर स्पष्ट रूप से पड़ता था। 10 तारीख के बाद तो काम को लेकर लोग पूरी तरह झल्लाहट की स्थिति में आ जाते थे। जिले से रिपोटरों का फोन लगातार आने लगता था और ब्यूरो में बैठे बड़े ओहदेदारों की किरकिरी होने लगती थी, जिन्हें खुद पता नहीं होता था कि वेतन का यह खेप कब आने वाला है। सबसे अधिक परेशानी चंदन को होती थी। चूंकि एसाइनमेंट का कार्यभार चंदन ने ही पूरी तरह से संभाल रखा था, इसलिये रिपोटर सीधे उसी को फोन करते थे और उसके पास रिपोटरों को देने के लिए कोई सटीक जवाब नहीं होता था। कभी-कभी तो वह खुद पर ही बुरी तरह से झल्लाते हुये कहता था,”रिपोटरों को पैसा मिला नहीं है, इनसे खबरे मांगता हूं तो ये पैसों के बारे में पूछते हैं। ऐसे कहीं सिस्टम चलता है। सालों कि औकात होती है नहीं, और बैठ जाते हैं चैनल खोलकर। ये लोग तो हैं ही, लेकिन इनसे बड़े गधे हमलोग हैं जो चले आते हैं यहां काम करने।  ”

इस बारे में जब वह किसी बड़े ओहदेदार से पूछता तो उससे यही कहा जाता, कि कह दो जल्द ही मिल जाएगा। यह जवाब सुनते-सुनते रिपोटर भी चिढ़ जाते थे और अपने क्षेत्र में खबरों को बटोरने में ढिलाई करने लगते थे।

सबसे बुरी स्थिति कम वेतन पाने वाले कर्मचारियों की होती थी। उनके चेहरे पर हमेशा तनाव रहता था और वे हर बात पर काट खाने के लिए तैयार रहते थे। खासकर उस समय उनकी झल्लाहट देखते ही बनती थी जब उन्हें किसी काम को लेकर डांट फटकार लगती थी।

ऐसी स्थिति में नरेंद्र श्रीवास्तव हमेशा संयम रखते थे। लोगों को समझाते हुये कहते थे,“ लड़ो-झगड़ो मत, ज्यादा काम करने की भी जरूरत नहीं है। पहले पैसों की चिंता करो। पैसा आ जाएगा फिर काम करना। ”

पैसे आने पर एक एक लोगों को वे व्यक्तिगततौर पर जाकर कहते थे कि पैसे ले लो। धीरे-धीरे लोग इसी व्यवस्था के मुताबिक ढल चुके थे। लंबे समय तक वेतन का इंतजार करने के बाद जब रत्नेश्वर सिंह पटना के दफ्तर में पहुंचते थे तो वहां की स्थिति देखने लायक होती थी।

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